महाकवि शूद्रक के कालजयी नाटक पर विशेष श्रृंखला।
अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 4/10/2022
‘वसंतसेना’ दरिद्र ‘चारुदत्त’ से प्रेम करती है, ऐसा जानकर ‘मदनिका’ कहती है : क्या मंजरीरहित आमों पर मधुकारियां (भौरें) कभी बैठी हैं?
वसंतसेना : तभी तो वे मधुकारियाँ हैं, वसंतसेना नहीं।
मदनिका : यदि इतना ही चाहती हो तो कह क्यों नहीं देती?
वसंतसेना : नहीं शीघ्रता उचित नहीं।
मदनिका : अच्छा, तभी बहाना बनाकर आभूषण चारुदत्त के हाथों धरोहर रख कर आई हो?
वसंतसेना : हाँ, तुमने सही समझा।
(नेपथ्य में)
अरे देखो! दस सोने के सिक्के के लिए बाँधा हुआ जुआरी भाग गया। पकड़ो, पकड़ो।
संवाहक (जुआरी) सोचता है, यह जुआरीपन बड़ा ही कष्टदायक है। जैसे-तैसे बन्धनों को छुड़ाकर भाग कर आया हूँ। फिर भी लोग पीछा नहीं छोड़ रहे। ऐसा करता हूँ, जब तक लोग मेरा पीछा करते हैं, तब तक मैं इस सूने मन्दिर में देवता की मूर्ति बनकर बैठ जाता हूँ।
इसके बाद एक जुआरी और माथुर रंगमंच में प्रवेश करते हैं।
माथुर : लग रहा है सिक्कों के लिए बाँधा गया जुआरी भाग गया है।
दूसरा जुआरी : चाहे कहीं चला जाए, हम उसे पकड़ कर ही रहेंगे। देखो यहाँ पर पैरों के चिह्न समाप्त हैं।
माथुर : अरे यहाँ तो पैरों के चिह्न उल्टे हैं, (सोचकर) अच्छा धोखा देने के लिए उल्टे पैर मन्दिर में प्रवेश किया है। चलो मन्दिर में देखते हैं।
जुआरी : यह तो लकड़ी की मूर्ति है।
माथुर : नहीं नहीं यह पत्थर की मूर्ति है (ऐसा कहकर कई तरह से हिला-डुलाकर देखता है) ऐसा ही हो। चलो जुआ खेलते हैं।
दोनों वहीं जुआ खेलने बैठ जाते हैं।
उधर, मूर्ति बना हुआ ‘संवाहक’ अपनी जुआ खेलने की इच्छा को बहुत दबाता हुआ मन में सोचता है कि पाशों की आवाज निर्धन मनुष्य को वैसे ही अपनी तरफ खींचती है जैसे हारे हुए राजा को रणभेरी की आवाज आकर्षित करती है।
ऐसा सोचते हुए ‘संवाहक’ जुआ खेलते माथुर और जुआरी के पास आकर बैठ जाता है, और कहता है, “यही दाँव मेरा है।” माथुर तभी ‘संवाहक’ को पकड़ लेता है और अपने सिक्के माँगने लगता है।
संवाहक : मैं सिक्के अभी दूँगा। मुझ पर कृपा करो।
माथुर : अभी दो।
संवाहक : देता हूँ, मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है ऐसा कहता हुआ धरती पर गिर पड़ता है।
(गिरे हुए संवाहक को दोनों अनेक प्रकार मारते हैं)
संवाहक : क्या जुआरियों द्वारा पकड़ लिया गया हूँ? जुआरियों के नियम का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, लेकिन अभी कहाँ से दूँ?
माथुर : वादा करो, वादा करो।
संवाहक : (जुआरी को छूकर) तुम्हें आधा देता हूँ, आधा मेरे लिए छोड़ दो।
जुआरी : ऐसा ही हो।
माथुर (जुआरियों का अध्यक्ष ) : इसमें क्या हानि है। इसलिए ठीक है, आधा छोड़ दिया।
संवाहक : आधे आप ने भी छोड़ दिए?
जुआरी : हाँ।
संवाहक : ठीक है अब जाता हूँ।
माथुर : कहाँ चले? दस सिक्के दो।
संवाहक : अरे महाराज ! अभी अभी तो आप दोनों ने आधे-आधे छोड़ दिए, अब मुझे निर्बल जानकर फिर से माँग रहे हो?
माथुर : अरे ! बहुत चतुर बन रहा है। अभी दो दस सिक्के।
संवाहक : अभी नहीं हैं। कैसे दे सकता हूँ?
माथुर : अपने को बेचकर दो।
संवाहक : ठीक है मुझे सड़क पर ले चलो।
माथुर संवाहक को सड़क पर ले आता है…
जारी….
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(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर मंगलवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)
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