गैस त्रासदी…जिसने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को सरे बाजार नंगा किया!

विजय मनोहर तिवारी की पुस्तक, ‘भोपाल गैस त्रासदी: आधी रात का सच’ से, 3/12/2021

‘भोपाल गैस त्रासदी : आधी रात का सच’, यह ऐसी कहानी है, जिसमें एक अदालती फैसले के सिवाय नया कुछ नहीं है। भोपाल में ज्यादातर तथ्य पहले से सब जानते हैं। लेकिन हादसे के बाद बीते इन (37) सालों में देश में एक नई पीढ़ी तैयार हुई है। उसे शायद ही हादसे की सच्चाइयाँ मालूम हों। शायद उसकी कोई दिलचस्पी भी न हो। जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि जिस व्यवस्था में वे जिंदगी गुजारने वाले हैं, वह कैसी है? सत्ताधीशों को क्या करना चाहिए और करते क्या हैं? खासतौर से तब जब एक शहर ने हजारों लाश को सड़कों पर कीड़े-मकोड़ों की तरह पड़ा देखा हो। ऐसे कठिन समय में उनसे क्या उम्मीद की जानी चाहिए? तब वे क्या कहते, क्या करते हैं?…

…गैस त्रासदी आजाद भारत का अकेला ऐसा बड़ा मामला है, जिसने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को सरे बाजार नंगा किया है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कई अहम ओहदेदार एक ही हम्माम के निर्लज्ज नंगों की कतार में खड़े साफ नजर आए। इन्होंने बेशर्मी से यूनियन काबाईड के हित में मनमाने फैसले लिए थे। लाखों बेगुनाह लोगों के प्रति बेहद गैरजिम्मेदार रवैया अपनाया था। इनके नाम समकालीन इतिहास के काले कोने में दर्ज हो चुके हैं। इनके हाथ 15 हजार निर्दोष लोग से रंगे हैं।… 

…अदालत का फैसला सुनने से पहले हम गजाला के घर चलेंगे। एक बेबस और बदनसीब औरत की अंधेरी दुनिया में ताकि अंदाजा हो कि गैस के निशान कितने गहरे हैं। फिर अदालत का रुख करेंगे और फैसला सुनेंगे, जिसका लंबा इंतजार सबने किया है। फैसले के बाद सुर्खियों के सिलसिले पर हमारी खास नजर होगी। इन खबरों में वे चेहरे दिखाई देंगे, जिनके दामन दागदार हैं और वे चेहरे भी, जो मुश्किल हालात के अंधड़ में दीए की रोशनी बने रहे। अचानक रफ्तार में आईं भोपाल और दिल्ली की सरकारों की हलचल गौरतलब होगी, जहां नेता एक बार फिर गैस पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते नजर आएंगे। आखिर में रुख करेंगे साजिदा बानो के घर। गैस हादसे की शिकार एक और जिंदा किरदार। उड़िया बस्ती में जाएंगे, जहां हादसे की रात पैदा हुए जवाहरलालजी रहते हैं। इस तरह, इन पन्नों पर परत-दर-परत एक ऐसी कहानी खुलेगी, जिसे हकीकत में भोपाल ने भोगा है।…  

…भोपाल के बुधवारा में शासकीय हमीदिया उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के सामने एक इमारत की पहली मंजिल पर गजाला परवीन का आशियाना है। वह अपनी बड़ी बहन शहला के साथ रहती हैं। किराए के इस घर में गजाला की अपनी दुनिया अंधेरी है। दिसंबर (1984) में गैस का कहर बरपा और मार्च में गजाला की आंखों की रोशनी जाती रही। बेदम फेंफड़े तपेदिक की मार झेल रहे हैं। घर की अंधेरी दुनिया से बाहर की सैर अस्पताल और डॉक्टर के सिवा शायद ही कहीं होती हो। शहला प्यार से उसकी चोटी बना रही हैं। गजाला कुछ कह रही है, सुनिए… 

“मैं तब 12 साल की थी, जब हादसा हुआ। पांच बहनों से भरा-पूरा हमारा परिवार था। पिता अब्दुल मोइन खान की सुलतानपुर में अच्छी खासी खेती-बाड़ी थी और यहां ठेकेदारी का काम भी। हमारी प्यारी अम्मी कमर सुलताना अपनी बेटियों के आने वाले चमकदार कल की तस्वीरें बुनती थी। गैस ने बाप को सांसों का मोहताज बना दिया, गुर्दों पर बुरा असर डाला और मां के गुर्दे भी खराब हुए। कारोबार ठप हो गया। 80 एकड़ जमीन कब बिक गई पता ही नहीं चला। 25 बरस (अब 37) बीत गए। मां दस बरस पहले और पिता बीते साल अल्लाह को प्यारे हो गए। अब मेरा ठिकाना आपा का यही घर है… 

मैं आपको बताऊं, जब शहला, उसके शौहर सैयद इमरान अली और बच्चे रात को नींद के आगोश में होते हैं, तब में अक्सर जागती हूं। अपनी अंधेरे में डूबी तन्हाइयों में कुरान की आयतें दोहराती हूं। हादसे की बरसी हर साल आती है। तब मैं अपने परवरदिगार से पूरे वक्त एक ही सवाल करती हूं, ‘बता तो सही, मेरा क्या गुनाह था?’

मुआवजे के नाम पर मेरे हिस्से में कई सालों के अंतराल से मिले दो किश्तों के एक लाख 90 हजार रुपए आए। लेकिन मुझे याद कि आंखों की रोशनी बुझी थी तो मद्रास में हुए इलाज पर ही दो लाख से ज्यादा खर्च हो चुके थे। लेकिन नसीब मुझसे रूठा ही रहा। पांचवीं तक पढ़ाई की है मैंने। मेरी याददाश्त गजब की है। आगे पढ़ना चाहती थी। इसलिए आंखें न होते हुए भी पिछले साल एक महीने तक आपा के साथ कम्प्यूटर सीखने गई। इसी बीच, मेरे कमजोर फेंफड़ों पर तपेदिक ने हमला कर दिया। काश, सब ठीक रहता तो मैं अपने अब्बा-अम्मी को वकील बनकर दिखाती… 

जिस साल हादसा पेश आया, उसी बरस ईद के मुबारक मौके पर मैंने एक तस्वीर खिंचवाई। यह देखिए, टूटे कांच के फ्रेम में यह मैं ही हूँ। यकीन करेंगे आप इसे और मुझे देखकर? इस तस्वीर में वह पल कैद है, जो 25 बरस पहले बीत चुका है। ईद की वैसी खुशियां फिर जिंदगी में कभी नहीं आई। मैं खुद को भी नहीं देख सकती। मेरी आंखों में कैद आखिरी छवियां भी बहुत पुरानी हैं। अब सामने कुछ नहीं है। दूर तक फैला हुआ गहरा अंधेरा….

देखिए, इसी घर के सामने वक्फ बोर्ड ने जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा मुझे दिया था। कलेक्टर ऑफिस से उसकी दस्तावेजी खानापूर्ति में महीनों परेशान होते रहे। कानूनी अड़चनें आईं। सरकार के खास हुक्म पर वह जमीन जनवरी 2007 में मुझे मिली भी। हमने ईंट, सीमेंट, रेत और पत्थर के इंतजाम कर डाले। फिर कानूनी पेंच फंस गए। कुछ वक्त के बाद मैं बीमार पड़ गई। सबकी हिम्मत जवाब दे गई। अब अस्पताल, डॉक्टर, जांच और दवाओं के सिवा कुछ नहीं सुनती, दिखाई तो कुछ पहले से ही नहीं देता। डेढ़ साल से हजार रुपए महीने की दवाएं लेती हूं। कभी इकट्ठे गिने नहीं, मगर 25 सालों में 25 लाख तो इलाज के नाम पर फूंके ही होंगे…

लोग बताते हैं कि मैं अकेली इस हाल में नहीं हूं। मेरे जैसे अनगिनत लोग हैं, जिनकी किस्मत में यूनियन कार्बाइड के अलावा हमारी बेईमान व्यवस्था के हाथों हर रोज मर-मर कर जीना लिखा है। लगता है कि यहां हर कोई दूसरे के हक पर घात लगाए बैठा है। हमारी जिंदगियां किस कदर तबाह हो गईं। हमारे मां-बाप बेबसी में मरे। वे जीते-जी हमारी दुनिया के हर कोने को रोशनी से भरना चाहते थे। उनकी बूढ़ी आंखों ने मेरी बुझी हुई आंखों को बरसों तक दिल पर पत्थर रखकर देखा। आपकी रंगीन और रोशन दुनिया में है कोई अदालत, जहां मेरे बेकसूर बेबस अब्बा की आहों का इंसाफ हो…

और हां, यह भी सुन लीजिए। जब गैस कांड की बरसी आती है तो सब हमें याद करते हुए घर का पता पूछते चले आते हैं। बात करते हैं, तस्वीरें लेते हैं न तो आपके छपे हुए को पढ़ सकती, न तस्वीरें देख सकती हूं। मेरे लिए अब यह सब बेमानी है। मैं उस वक्त को अपनी दिलो दिमाग से मिटा देना चाहती हूं, जिस रात गैस रिसी। मेहरबानी करें, मेरी गुजारिश यह है कि हमारे आने वाले कल की बेहतरी के लिए कुछ करने को सरकारी नुमाइंदों से कहिए, उन संगठनों को भी याद दिलाइए, जो हमारे नाम पर सुना है कि खूब छाए रहते हैं। क्या वे नहीं जानते कि गजाला नाम की बेबस औरत को जमीन का एक टुकड़ा मिला था, जो कानूनी-दांवपेंच में उलझा दिया गया। गजाला यानी मैं, जो हादसे के वक्त एक अल्हड़ सी लड़की थी। अपने अब्बा-अम्मी की सबसे प्यारी लड़की…

गजाला की आवाज इस कमरे में सुनाई दे रही है। यह उसके दिल का गुबार है। नीचे सड़क पर कारों की कतारें हैं, जो यहां गैराजों में आई हैं। कभी कम तो कभी ज्यादा भीड़ है, शोरगुल है, जो दिनभर रहता है। उसकी आवाज वहां कोई सुन नहीं सकता। यहां के बाशिंदों के लिए उसका परिचय सिर्फ इतना है कि अच्छा वो गैस पीड़ित गजाला, जिसकी आंखें चली गईं? वो उस इमारत में ऊपर रहती है…

गजाला के पास बैठे रहिए। वह सुनाती जाएगी। उसका दर्द नजदीक से देख-सुनकर आप अपनी सुधबुध खो बैठेंगे। अनगिनत किरदार हैं ऐसे। मध्यप्रदेश की राजधानी के गली-मोहल्लों में।…
(जारी…)
—–
विशेष आग्रह : #अपनीडिजिटलडयरी से जुड़े नियमित अपडेट्स के लिए डायरी के टेलीग्राम चैनल (यहाँ क्लिक करने से यह लिंक खुलेगी) से भी जुड़ सकते हैं।  
——
(नोट : विजय मनोहर तिवारी जी, मध्य प्रदेश के सूचना आयुक्त, वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। उन्हें हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने 2020 का शरद जोशी सम्मान भी दिया है। उनकी पूर्व-अनुमति और पुस्तक के प्रकाशक ‘बेंतेन बुक्स’ के सान्निध्य अग्रवाल की सहमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर यह विशेष श्रृंखला चलाई जा रही है। इसके पीछे डायरी की अभिरुचि सिर्फ अपने सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकार तक सीमित है। इस श्रृंखला में पुस्तक की सामग्री अक्षरश: नहीं, बल्कि संपादित अंश के रूप में प्रकाशित की जा रही है। इसका कॉपीराइट पूरी तरह लेखक विजय मनोहर जी और बेंतेन बुक्स के पास सुरक्षित है। उनकी पूर्व अनुमति के बिना सामग्री का किसी भी रूप में इस्तेमाल कानूनी कार्यवाही का कारण बन सकता है।)

सोशल मीडिया पर शेयर करें
Apni Digital Diary

Share
Published by
Apni Digital Diary

Recent Posts

बाबा साहेब से प्रेम और तिरंगे की मर्यादा…, सब दो दिन में ही भुला दिया!! क्यों भाई?

यह वीडियो मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल का है। देखिए गौर से, और सोचिए। शहर… Read More

18 hours ago

‘चिन्ताएँ और जूते दरवाज़े पर छोड़ दीजिए’, ऐसा लिखने का क्या मतलब है?

रास्ता चलते हुए भी अक्सर बड़े काम की बातें सीखने को मिल जाया करती हैं।… Read More

2 days ago

राजनैतिक दबाव में हँसकर माँगी माफ़ी से क्या ‘देवास की मर्यादा’ भंग करने का पाप कटेगा?

मध्य प्रदेश में इन्दौर से यही कोई 35-40 किलोमीटर की दूरी पर एक शहर है… Read More

3 days ago

“संविधान से पहले शरीयत”…,वक़्फ़ कानून के ख़िलाफ़ जारी फ़साद-प्रदर्शनों का मूल कारण!!

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में भारी हिंसा हो गई। संसद से 4 अप्रैल को वक्फ… Read More

4 days ago

भारतीय रेल -‘राष्ट्र की जीवनरेखा’, इस पर चूहे-तिलचट्‌टे दौड़ते हैं…फ्रांसीसी युवा का अनुभव!

भारतीय रेल का नारा है, ‘राष्ट्र की जीवन रेखा’। लेकिन इस जीवन रेखा पर अक्सर… Read More

5 days ago

हनुमान जयन्ती या जन्मोत्सव? आख़िर सही क्या है?

आज चैत्र शुक्ल पूर्णिमा, शनिवार, 12 अप्रैल को श्रीरामभक्त हनुमानजी का जन्मोत्सव मनाया गया। इस… Read More

7 days ago