समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल, मध्य प्रदेश
पाकिस्तान के ख़िलाफ़ चलाए गए भारत के ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ का नाटकीय ढंग से पटाक्षेप हो गया। इसके साथ ही यह घटनाक्रम उभरते भारत के लिए सीख का एक पुलिन्दा भी छोड़ गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अब तक एक दर्प के साथ प्रधानमंत्री मोदी को ‘अपना मित्र’ सम्बोधित करते रहे थे। लेकिन श्रेय लेने की जल्दी में उन्होंने कूटनीतिक शिष्टचार और भारत की परिस्थिति को नज़रअन्दाज़ कर दिया। साथ ही जिस खुले तरीके से अपनी पीठ थपथपाई, वह अलहदा सी बात थी। उन्होंने भारत सरकार से बातचीत के बाद निर्णय की घोषणा सोशल मीडिया पर पहले कर दी। यह मोदीजी के लिए कभी न भूलने वाला अनुभव रहा होगा। यक़ीनन भारतीयों के लिए यह एक सबक भी है। इसका सन्देश यह है कि जब तक हम अपने मूल्य और हितों को नहीं जगाएँगे, ऐसे कड़वे अनुभव मिलते रहेंगे।
मेरे ख़्याल से पहली बात तो यह कि इस घटना में अप्रत्याशित कुछ भी नहीं था। अभी कुछ समय पहले की ही बात है। अमेरिकी राष्ट्रपति भवन ‘व्हाइट हाऊस’ में डोनाल्ड ट्रम्प, वहाँ के उपराष्ट्रपति जेडी वेन्स और यूकेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की से जुड़ा विचित्र घटनाक्रम हुआ था। उसमें ट्रम्प और वेन्स के साथ जेलेंस्की की तू तू – मैं मैं जैसी हो गई थी। यह शर्मसार करने वाला प्रकरण सारी दुनिया ने देखा। वह भी एक अजब मिसाल ही था। फिर भी यदि किसी को वह कम लगता हो, तो ट्रम्प के अतिरेकपूर्ण वक्तव्य, चीन पर हास्यास्पद सीमा शुल्क लगाने और फिर उसे वापस लेने की उनकी कार्रवाई आदि के उदाहरण भी हैं। प्रधानमंत्री मोदी भी इन सभी चीज़ों से वाक़िफ़ हैं ही।
फिर भी शायद मोदीजी को लगा होगा कि इस अमेरिकी राष्ट्रपति को वह धैर्य और सहनशीलता के साथ सन्तुलित कर सकेंगे। उन्होंने यह तो सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ट्रम्प उनके साथ ऐसा अनापेक्षित व्यवहार भी कर सकते है। ख़ैर, अमेरिकी कूटनीति के इस नए स्तर के मनोविज्ञान को ठीक से समझने लेने का समय सभी के लिए अब आ चुका है, ऐसा कहा जाए तो पूरी तरह ग़लत नहीं होगा।
ट्रम्प जिस ‘अमेरिका-फर्स्ट’ की बात करते हैं, वहाँ सफलता का प्रतिमान 19वीं शताब्दी का ‘बैड ब्वाय’ और ‘काऊ ब्वाय’ है। ट्रम्प और उनकी टीम जिस मूल्य को लाना चाहती है, उसमें ‘बैड ब्वाय’ प्रभावशाली, आक्रमक, स्वच्छन्द और सफल है। इन्हीं मूल्यों पर अमेिरका महान बना था। वह अपनी शर्तों पर अपने हिसाब से जीता है। दूसरा जो कोई उसके साथ है, उसे अपने हितों के लिए प्रभावशाली, आक्रमक और निर्ममता से स्पष्टतावादी बनना होगा। भारतीय मानस की समस्या यह है कि ग़ुलामी को ढोने के कारण हम अपनी साभ्यतिक मूल्य, सांस्कृतिक सोच और हितों को औपनिवेशिक दरबारी शिष्टचार के अन्तर्गत हासिल करना चाहते हैं। अद्यतन काल का आप्त वाक्य ‘वीर-भोग्या वसुन्धरा’ है। चीन ने पश्चिमी वैश्विकता को नियंत्रित कर अपना कथानक स्थापित कर लिया है। इसी के बल पर वह बखूबी अमेरिका से अपने मूल्यों पर सौदा-समझौता कर रहा है। ऐसे में भारतीयों को अपनी सोच को आमूलचूल बदलने की ज़रूरत है।
हालाँकि इसमें समस्या यह है कि ये दरबारी मूल्य तो उपनिवेशों की समृद्धि के लिए हैं, भारतीयों की समृद्धि के लिए नहीं। ये मूल्य भारतीयों की अपनी पहचान, स्वभाविक गुण और चरित्र के विपरित हैं। हमारी राजनीति जिस औपनिवेशिक संविधान के छायाछत्र में चलती है, वहाँ आर्थिक, सामाजिक और लोकहित की दृष्टि और मापदंड सब विकसित देशों से नकल करने की परम्परा है। हमारा श्रेष्ठी वर्ग पहले हितों के लिए ब्रिटेन की विचारकों की ओर ताकता था। अब वह अमेरिकी विश्वविद्यालयों और प्रभावशाली की ओर आमुख है। ऐसे में हमारे अमेरिकन दोस्त जब अपने राष्ट्र के हितों को सर्वोपरि रखकर कुछ करते है तो हम उसके प्रति ग़ाफ़िल रहते हैं।
इसे लोग भारत में रणनीतिक सोच के अभाव के रूप में देखते हैं। वास्तव में यह अभाव है नहीं, यह तो अपने हितों को ठीक से ध्यान में न रखने का परिणाम है। चाहे आरक्षण हो या सूचना प्रौद्योगिकी का क्षेत्र, उदारीकरण हो या मनरेगा – भारत अपनी नीतियों को विदेशाें में मिल रही प्रशंसा और स्वीकृति के आधार पर परखता है।
चूँकि अन्तर्राष्ट्रीय वित्त संगठनों के सामने हम अपने हितों को अपने परिप्रेक्ष्य में नहीं रखते ,तो वे सहायता के नाम पर उनके हितों की नीतियााँ लागू कराने में सफल हो जाते हैं। इसके चलते ही भारतीय अर्थव्यवस्था और विकास नीति पर अमीर देशों को नियंत्रण कायम हुआ है। यही कारण है कि विकास के नाम पर हम जो नीतियाँ बनाते आए हैं, जिन योजनाओं और विकल्पों को हमने चुना है, जिन मूल्यों को तरजीह दी है, उनमें से अधिकांश भ्रष्टाचार की खान साबित हुई है। जब इन फर्जी योजनाओं में अफसरशाह, राजनेता, न्यायतंत्र और कुछ समुदायों या वर्गों के हित शामिल हो गए तो ये हमारी मुख्यधारा में ऐसे स्थापित हो गए। इससे उनका पुनर्मूल्यांकन असंभव हो गया है।
देश में नीतिनिरपेक्ष तंत्र आधुनिक जीवनशैली व सुख-सुविधाओं के फर्जी आयातित प्रतिमान स्थापित कर भोगवाद, नशा और व्याभिचारीय मनोरंजन को समाज में सायास स्थापित किया जा रहा है। ऐसी तमाम बातें हैं, जहाँ हमें ‘सबसे बड़ा रोग… क्या कहेंगे लोग’ को नजरअंदाज कर कठोर संघर्ष करते हुए अपने मूल्य स्थापित करना है।
हम सब जानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी भारतीय संस्कृति की बात इसी सन्दर्भ से करते हैं। किन्तु नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति हो, स्वदेशीकरण हो या भाेगवादी अंधाधुन्ध पश्चिमी औद्योगिकीकरण पर नियंत्रण के लिए दृढ़ निश्चय। उनकी सरकार चटपटी, तार्किक कार्ययोजना के मामले में कमजोर दिखती है। इन मुद्दों पर वह मजबूत धरातल पर काम करने वाले लोगाें को जोड़ने में अक्षम साबित हुई है। इस कारण जिस भारतीय कथानक को स्थापित करने बात की जाती है, वह अभी दूर की कौड़ी साबित हो रहा है। ऐसे में अगर ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ का अनुभव प्रधामंत्री मोदी को इसे मामले पर गम्भीरता से प्रभावशाली और सृजनात्मक कदम उठाने के लिए प्रेरित करता है तो यह यह सीख हमारी सभ्यता के लिए एक बेहद कारगर सिद्ध हो सकती है।
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(नोट : समीर #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना से ही साथ जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं। सनातन धर्म, संस्कृति, परम्परा तथा वैश्विक मसलों पर अक्सर श्रृंखलाबद्ध लेख भी लिखते हैं।)
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