Delhi-Rajkot

गुजरात-दिल्ली की आग हमारे सीनों में क्यों नहीं झुलसती?

अनुज राज पाठक, दिल्ली

राजकोट गुजरात में बच्चों के लिए बनाए गए एक गेम जोन में आग लग गई। इस हादसे में 28 लोग मारे गए। इनमें 12 बच्चे थे। इसी तरह, दिल्ली के एक बेबी केयर सेंटर में भी आग लगी और सात नवजात जलकर मर गए। बागपत, उत्तर प्रदेश के एक निजी अस्पताल में भी आग लगी। हालाँकि वहाँ भर्ती 12 मरीज़ों को बचा लिया गया। लेकिन इस तरह के हादसों से उठने वाले सवालों की आँच से शायद ही कोई बचे।

कारण कि ये घटनाएँ जिन जगहों पर हुईं, वहाँ निश्चित ही सम्बन्धित विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र लिए गए होगें। निश्चित रूप से ये प्रमाण पत्र बिना मानकों के दिए गए होंगे। प्रमाण पत्रों की वैधता अवधि पर भी प्रश्न चिह्न रहे होंगे। लेकिन इस बात को भी कई (ग़ैर) ज़िम्मेदार लोगों ने लम्बे समय से अनदेखा किया होगा। किसी ने नहीं देखा होगा कि जिन जगहों पर अस्पताल या गेम ज़ोन जैसे ठिकाने बने हैं, वहाँ से समुचित निकासी वग़ैरा का इंतिज़ाम है भी या नहीं? इस तरह की तमाम लापरवाहियों की लम्बी श्रृंखला रही होगी।

उसी के नतीज़े में ऐसे हादसे सामने आए हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि अब भी लापरवाहियों का सिलसिला रुका नहीं है। गुजरात का ही मसला ले लें। राज्य सरकार कहती है कि हादसे में अधिकारियों की गलती है। वहीं, स्थानीय कलेक्टर कहते हैं कि नगर निगम की गलती है। इन सबके बीच सोशल मीडिया पर अभियान जारी है। इसमें कहा जा रहा है कि उनके नेताओं को फँसाया जा रहा है। उनकी कोई ग़लती नहीं है। 

तो भाई ग़लती है किसकी? क्या किसी की नहीं? या हर किसी की? क्योंकि ऐसी तमाम दुर्घटनाओं के बाद भी आख़िर कोई बदलाव क्यों नहीं आता? व्यवस्था लापरवाह है। अधिकारी बेपरवाह हैं। लूटने-खसोटने वाले लूट-खसोट करने में लगे हैं। पर इन सबके बीच हम ख़ुद कहाँ हैं? हम इस तरह की लूट-खसोट, बेपरवाही, लापरवाही को अनदेखा क्यों कर रहे हैं? उसका बहिष्कार क्यों नहीं करते? छोटे से फ़ायदों के लिए हम इतना बड़ा ज़ोख़िम क्यों ले लेते हैं कि हमारे बच्चों की जान पर बन जाए? चन्द मिनटों में वे ख़ाक हो जाएँ? सवाल ये है कि गुजरात-दिल्ली की यह आग हमारे सीनों में क्यों नहीं झुलसती? हम ख़ुद कैसे इतने लापरवाह हो सकते हैं? क्या लापरवाही अब हमारे स्वभाव का हिस्सा बन चुकी है? या फिर हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता इस तरह के हादसों से?

फ़र्क़ पड़ना चाहिए अलबत्ता। क्योंकि आज भले आग में झुलस कर ख़ाक हुए बच्चे दिल्ली वालों या गुजरात वालों के हों। लेकिन कल को वे हमारे भी हो सकते हैं? याद रखिएगा, हमारे आँसुओं से व्यवस्था का, अफसरों का, लूट-खसोट करने वाले कारोबारियों का दिल नहीं पसीजेगा। लेकिन अगर हम जागरूक हुए, इनकी लापरवाहियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने लगे, तो इनका दिमाग़ ज़रूर हिल जाएगा। 
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)

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