भगवान का दिया हुआ सब कुछ है, दौलत है, शोहरत है, इज्जत है, बस… ख़ुशी नहीं है! क्यों?

टीम डायरी

साल 2007 की फिल्म है, ‘वैलकम’। हास्य फिल्म है। इसमें नाना पाटेकर एक डायलॉग बोलते हैं, “भगवान का दिया हुआ सब कुछ है। दौलत है, शोहरत है, इज्जत है। बस…’। याद आ गया होगा? आज की इस कहानी में आगे के लिए यह डायलॉग पूरा का पूरा यूँ ही रखिए। लेकिन सिर्फ़ ‘बस…’ के आगे से थोड़ी तब्दीली कर लीजिए। यूँ कि ‘ख़ुशी नहीं है। अकेलापन महसूस होता है। क्यों? क्या करूँ?’ और इस लाइन को जोड़ते वक़्त यक़ीन रखिए कि हम काल्पनिक स्थिति नहीं जोड़ रहे हैं। बल्कि ख़ाली स्थान में मौज़ूदा दौर की सच्चाई रख रहे हैं। 

दरअस्ल, अभी बीते दो-तीन के भीतर दो ख़बरें सामने आई हैं। इनमें एक में बेंगलुरू के किसी सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखी है। ट्विटर वग़ैरा पर ख़ूब साझा की जा रही है। इसमें उसने नाम नहीं बताया है लेकिन हालात लिखे हैं। लिखा है, “मैं 24 साल का हूँ। बीते दो साल नौ महीनों से बेंगलुरू में रह रहा हूँ। बड़ी सॉफ्टवेयर कम्पनी में काम करता हूँ। टैक्स काटने के बाद साल की 58 लाख रुपए तनख़्वाह मिलती है। काम का कोई दबाव नहीं है। सभी तरह की सुविधाएँ हैं। लेकिन मैं ख़ुश नहीं हूँ। अकेलापन महसूस होता है। घर-दफ़्तर की एक जैसी दिनचर्या से थक गया हूँ। क्या करूँ?” आगे कुछ और भी बातें हैं। लेकिन विचार के लायक इतनी ही हैं।

इसी तरह, एक मामला सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए आया। अभी एकाध दिन पहले ही। इसमें पति-पत्नी दोनों ही कामकाज़ी हैं। उनके पास भी न पैसे की कमी है, न ही सुविधाओं की। फिर भी वे एक-दूसरे से नाख़ुश हैं। तलाक़ चाहते हैं। यह जानने के बाद सुप्रीम कोर्ट के अनुभवी जजों ने उन्हें मशवरा दिया, “आप दोनों लोग अपनी शादी को वक़्त नहीं दे रहे हैं। एक-दूसरे के साथ समय नहीं बिता रहे हैं। एक दिन में काम करता है। दूसरा रात में। थोड़ा वक़्त दीजिए, एक-दूसरे को। एक मौक़ा देकर देखिए। मुमकिन है, शादी टूटने से बच जाए।” लेकिन उन्होंने सलाह नहीं मानी। आख़िर अदालत को उनका तलाक़ मंज़ूर करना पड़ा। सवाल फिर वही। क्या अब वे ख़ुश रहेंगे? 

दोनों मामलों में परिस्थितियाँ क़रीब-क़रीब समान हैं। ख़ासकर ख़ुशी की आधुनिक परिभाषा के मायने में, जिसमें पर्याप्त या उससे अधिक पैसा होना ख़ुशी की गारंटी माना जाता है। मगर सोचिए फिर भी। कि भरपूर पैसा होने के बाद भी इन दो-तीन को ही नहीं, बल्कि इनके जैसे हज़ारों युवाओं को ‘गारंटीड ख़ुशी’ क्यों नहीं मिली? क्यों नहीं मिलती? आख़िर क्या है, जो रह जा रहा है? छूट रहा है? आधुनिक परिभाषा वाली तरक़्क़ी के पीछे भागते-भागते अकेलेपन, तनाव और अवसाद की भयंकर त्रासदी की शिकार इस युवा पीढ़ी को बचाने के लिए इन सवालों के ज़वाब ज़रूरी हैं।

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Neelesh Dwivedi

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