…पर हे कृष्ण! मैं हूँ तुम्हारे साथ, जीने और संग मरने के लिए भी!

आद्या दीक्षित, ग्वालियर, मध्य प्रदेश से, 30/8/2021

कृष्ण एक अभिशप्त मानव, निर्वासित देवता…। सुनने में अटपटा लगा न, अस्वीकार्य भी? ऐसा ही होता है। सच अक़्सर अस्वीकार्य और कड़वा सा लगता है। इसीलिए उस पर महिमामंडन का लेप, अलौकिता का छिड़काव और आदर्श का आवरण डालने की कोशिश की जाती है। और फिर निरपेक्ष सत्य को अपना-अपना सच बनाकर कितने ख़ुश हो लेते हैं हम मनुष्य। 

अभावों को प्रभावों में बदलने की भारतीय मनीषा कितनी प्रखर है, यह युगों की सीमाओं से परे आज भी देखी जा सकती है। जब कोई खिलाड़ी ओलम्पिक जैसी प्रतिस्पर्धा में कमाल करता है। कोई अभ्यर्थी बड़ी परीक्षा में चयनित होकर नाम कमाता है। तब हम क्या करते हैं? उनकी संघर्ष गाथा और यहाँ तक कि उनके दुर्दिनों को भी दिखाकर उन्हें नायक की तरह पेश करते हैं। जबकि वह अपने संघर्ष के दिनों में भी हमारे हिस्से थे, सफ़लता के शिखर छूते हुए भी हमारा हिस्सा हैं और आगे भी रहेंगे। उन्हें भी हम ‘साधारण इंसानों’ की तरह हमेशा, हर मोड़ पर संबल, संवेदना, सहयोग और समर्थन की ज़रूरत होती है। उन्हें भी तक़लीफ़ होती है। संत्रास होता है। लेकिन हम उनके उस त्रास को महसूस नहीं करते। बल्कि उन्हें नायक, महानायक, असाधारण व्यक्तित्त्व बताकर साधारण समाज से दूर मान लेते हैं। कर देते हैं। इस पर विचार भी नहीं करते कि ऐसे लोगों ने मौके-बेमौके संबल के अभाव में क्या खो दिया? उनके और उनकी तरह तमाम अन्य लोगों के लिए क्या किया जा सकता था? क्या कर सकते हैं? 

अपने कृष्ण के साथ भी तो हमने यही किया है। हम मानकर बैठे हैं कि ‘लल्ला’ तो अनोखा है, विशेष है, सबका तारनहार है। इस तरह हम अपने तमाम बोझ उसी पर डाल देते हैं। क्योंकि हम देखते, सुनते और पढ़ते आए हैं कि वह नन्हा सा बालक पूतना जैसी महाकाय राक्षसी का वध कर देता है। बकासुर, अघासुर, धेनुकासुर जैसे राक्षसों को मार देता है। आग पीता है। जहरीले नाग के फणों पर नृत्य करता है। गोवर्धन पर्वत को एक छोटी उँगली पर सात दिन तक उठाकर रखता है। ऐसे न जाने कितने चमत्कारिक कर्म करता है, कर सकता है, वह। इसलिए हम उसे लेकर हमेशा चमत्कृत ही बने रहते हैं। उसकी वेदना के साथ अपनी संवेदना को जोड़ते नहीं। कोशिश ही नहीं करते। करें भी तो कैसे? वह सुकुमार सा बालक हमारी तरह मनुष्य रूप होकर भी हमारे लिए ‘महामानव’ जो बन बैठा है और हम ठहरे ‘साधारण जन’। तो हमारी उससे क्या बराबरी भला? लेकिन क्या यही सच है? अधिक विवेचना में मैं नहीं जाती। लेकिन यदि हम कभी नरेन्द्र कोहली जी को ही पढ़ लें, तो कृष्ण के जीवन-संघर्षों, उनसे जुड़ी घटनाओं की स्वभाविकता को कुछ हद तक जान सकेंगे।

बहरहाल, यदि मैं कुछ देर के लिए भूल जाऊँ कि कृष्ण पूर्णावतार, योगेश्वर, या देव हैं और उन्हें अपने ही घर का सदस्य, अपना बड़ा भाई मानूँ तो सच में, मन करुणा से भर उठता है। कोई कैसे सह सकता है इतना सब। वह भी बिना किसी शिक़ायत। हमेशा मुस्कुराते हुए। मेरा कृष्ण, जिसके माता-पिता हमेशा अपने लल्ला के लिए चिन्तित तो रहते हैं, लेकिन उसे सुरक्षा या संरक्षा देने में अपने आप को बेबस पाते हैं। मेरा कृष्ण, जिसके बड़े भाई हमेशा कन्धे से कन्धा, क़दम से क़दम मिलाकर उसके संग रहते हैं, लेकिन कुरुक्षेत्र के निर्णायक धर्मयुद्ध में साथ छोड़ जाते हैं। मेरा कृष्ण, जिसके मित्र सिर्फ माखन चुराने और खाने में उसके साथ हैं, मार खाने में नहीं। मेरा कृष्ण, जो वह हमेशा ख़ुद को संघर्ष-पथ पर एकाकी पाता है। बावज़ूद इसके कि राधा उसकी अनन्य, अभिन्न और निकटतम सखी है। 

मेरा अध्ययन कम है। पर इतना मालूम है कि जब राम की रावण से लडाई हो रही थी तब इन्द्र आए थे, अपना रथ लेकर। आदि-शक्ति ने उन्हें अपनी शक्तियाँ दी थीं। शिव ने आशीष और गुरुओं ने चमत्कारी शस्त्रास्त्र, दिव्य वस्त्र और भी बहुत कुछ गुप्त-प्रकट दिया था। मगर मेरे कृष्ण को? देह धारण करने से लेकर छोड़ने तक कभी कोई दैवीय शक्ति एक बार पूछने तक नहीं आई कि क्या हम कोई सहायता कर सकते हैं? मानो, उसे देवताओं का निर्वासन मिला हो एक जीवन भर के लिए। कह सकते हैं कि राधा तो साथ थीं हमेशा। लेकिन देखने, सुनने, पढ़ने में बहुधा यही आता है कि जब राधा रुठती है तो कृष्ण मनाता है? राधा रोती है तो कृष्ण समझाता है? हर बार हमेशा…क्यों? क्या मेरे कृष्ण को अधिकार नहीं, कभी किसी से रूठने का? मन की टीस को आँखों के नीर से कहने का?  कोई क्यों नहीं आया, कभी उसके सर को कन्धा देने? विक्षोभ क्या सिर्फ उसके माँ-बाबा, राधा और गोकुल के ग्वाल-ग्वालिनों को ही था, उससे दूर होने का? क्या मेरे कृष्ण को नहीं हुई होगी पीड़ा, सबको छोड़ने की? मगर उसे विकल्प ही कहाँ मिले स्वयं की अभिव्यक्ति के? उसे संभालना था नन्द-यशोदा को। उसे देखना था कि कहीं उसकी दी हुई हिम्मत न खो दें ग्वाल-ग्वालिनें। उसे समझाना था, राधे को भी। सम्बल देना था, हर किसी को। सहारा बनना था, सभी का। 

मैं अपने अध्ययन में अब तक ढूँढ़ती ही रही एक भी प्रसंग कि कहीं तो लिखा होता- हे कृष्ण! तुम निश्चिन्त होकर जाओ। मैं हूँ तुम्हारे पीछे। तुम्हें कभी, किसी मोड़ पर भी लगे तो लौट आना यहीं, मैं हूँ, मैं सदैव हूँ…!

पर नहीं। मेरे कृष्ण के सामने तो उम्र के नाज़ुक मोड़, महज़ 11-12 वर्ष की अवस्था में ही नए माता-पिता के लिए स्वीकरोक्ति का क्षण आन पड़ा है। ‘अनिच्छित हत्याओं’ के बाद कोमल हाथों को खून से लाल करना पड़ा है उसे। किसी आर्तनाद की तरह  विजय-घोषों का आस्वाद लेना पड़ा है। नए जीवन का आरम्भ हुआ तो वह भी फ़िर उसी रूप में, जहाँ उसे दूसरों का त्राता बनना है और लोग उसके सामने कातर दृष्टि से निहार रहे हैं। उसे ख़ुद ही नया सम्राज्य बनाना है। जितने विवाह किए हैं, वे भी दूसरों की ख़ुशी, प्रतिज्ञा और सम्मान के लिए। जितने युद्ध किए, वे भी दूसरों को जिताने के लिए।

हर कर्म विश्व के लिए, विश्व-कल्याण के लिए। मेरा कृष्ण, अपने जीवनकाल में, निपट एकान्त में घंटों बाँसुरी बजाकर अपने मन का ताप ठंडा कर रहा है। पर किसी को उसकी बाँसुरी के सुरों में छिपी उसकी वेदना सुनाई नहीं दे रही है। और फिर मनुष्य-जीवन के अन्तकाल में भी वह निरा-एकाकी एक पेड़ के नीचे बैठकर बाँसुरी ही बजा रहा है। अन्तिम क्षणों में भी कोई संग-साथ नहीं उसके। उसकी राधा भी नहीं। ऐसा दारुण अन्त… सच है, कुछ लोग अभिशप्त होते हैं, मज़बूत होने के लिए। ख़ुश दिखने के लिए। महान हो जाने के लिए। बन जाने के लिए। बना दिए जाने के लिए। मेरे कृष्ण की तरह।

पर हे कृष्ण! मैं तुम्हें कुछ देने लायक तो नहीं ही हूँ। लेकिन बस, इतना कहना चाहती हूँ तुम्हारे जन्मदिन पर कि मेरे घर में तुम वह बन कर रह सकते हो जो तुम हो, बिना किसी मुखोटे के। मैं हूँ तुम्हारे साथ हर प्रलाप, क्रियाकलाप में। तुम्हारे साथ जीने और संग मरने के लिए भी। मेरे घर के कृष्ण को ‘भगवान’ बनने की कोई बाध्यता नहीं है…!   
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(आद्या दीक्षित, छोटी उम्र से ही समाजसेवा जैसे बड़े कार्य में जुटी हैं। ऐसे कि उनके योगदान को अब राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर ख़ासी पहचान मिल चुकी है। मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें ‘बेटी बचाओ अभियान’ के लिए अपना प्रतिनिधि चेहरा (Brand Ambassador) बनाया है। भारत सरकार ने उन्हें 2015 में ‘बालश्री’ पुरस्कार से सम्मानित किया है।)

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