अनुज राज पाठक, दिल्ली
व्यक्ति के सन्दर्भ में विचार और व्यवहार के स्तर पर समानता की सोच स्वयं में अधूरी है। व्यावहारिक तौर पर व्यक्तियों में समानता सम्भव नहीं। हाँ समभाव अवश्य सम्भव है। सनातन ऋषियों ने अपनी प्रार्थनाओं में ईश्वर से समानता की प्रार्थना नहीं, अपितु समभाव से जीवनचर्या की प्रार्थना की है। (समानो मंत्र समिति सामनी- ऋग्वेद)
व्यक्ति में असमानता होने के उपरान्त भी वैचारिक समभाव हो तो व्यक्ति सहज, सरल और मानवीय रह पाता है। पाश्चात्य या वाम विचारसरणी ने व्यक्ति के वैचारिक समभाव के स्थान पर व्यक्ति रूप, रंग, जाति, आचार और आर्थिक आदि आधारों पर समानता की संकल्पना की, जो कि स्वयं में विरोधाभासी है।
“मैं रंग से काला हूँ, वह गोरा है”, ऐसा विचार व्यक्ति-व्यक्ति में भेदकारक है। वहीं “वह भी मानव है, मैं भी मानव हूँ”, यह विचार समभाव का द्योतक है। इसी कारण वैदिक ऋषि “मनुष्य बनो” (मनुर्भव -ऋग्वेद) के भाव को बढ़ावा देता है।
यही मनुष्य बनने की संकल्पना स्त्री और पुरुष के समभाव की संकल्पना भी है। वैवाहिक जीवन ने प्रारम्भ से पूर्व ऋषि उपदेश देते हुए कहता है कि वर-वधु के हृदय जल के समान हों (समापो हृदयानि नौ)। वहीं आगे कहता है, “मैं तुम्हें ज्ञानपूर्वक ग्रहण करूँ, तुम भी ज्ञानपूर्वक मुझे ग्रहण करो” (अमोऽहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्यमोऽहम्)। यहाँ वह यह नहीं कह रहा कि हम-तुम एक-दूसरे के समान होकर एक-दूसरे को पति-पत्नी के रूप में स्वीकार करें। इसकी जगह ज्ञानपूर्वक समझ के साथ समभाव से युक्त होकर परस्पर स्वीकार्यता हो, ऐसा कहा जा रहा है।
भारतीय मनीषा स्त्री-पुरुष को परस्पर समान से भी अधिक उत्तम और व्यावहारिक धरातल पर आपसी सहयोगी और एक मानव के तौर कर स्वीकार करती है। इस मानवीय धरातल पर व्यक्ति-व्यक्ति में लिंग आधार से भेद नहीं होता क्योंकि उसके लिए स्त्री-पुरुष परस्पर सहयोगी मानव हैं, शत्रु नहीं। विवाह के समय का संकल्प देखिए कितना सुन्दर है। ऋषि वर-वधू से परस्पर कहलाता है, “तेरे हृदय को मैं अपने कर्म के अनुकूल धारण करूँ (मम व्रते ते हृदयं दधामि)।” यहाँ परस्पर हृदयों की अनुकूलता धारण करने का संकल्प है, न कि समानता की बात है।
जबकि इसके ठीक उलट, आज आधुनिक युग में, स्त्री-पुरुष की समानता की अवधारणा ने स्त्री को उत्तम होने के स्थान कर भोग्या के तौर कर स्थापित कर दिया है। यद्यपि भोग्या बनने में स्त्री का अपना योगदान कम है। अपितु परिवार समाज और बाजार उसे केवल धन-उत्पादक के तौर कर स्थापित करने में सफल रहा है। यह दुर्भाग्य है कि स्त्री स्वयं को धन-उत्पादक के तौर पर देखकर प्रसन्न भी है। वह यह भी नहीं समझ पा रही कि वह जिस समानता की इच्छा में आगे बढ़ी थी वह इच्छा दु:स्वप्न बन चुकी है।
आज ‘हाउस-अरेस्ट’ जैसे कार्यक्रमों में स्त्री सार्वजनिक रूप से, स्वेच्छा से विवस्त्र होने के लिए प्रस्तुत है। क्योंकि उसके लिए धन सबसे प्रमुख है। चरित्र, मान, सम्मान और समभाव जैसे शब्द निरर्थक हैं। वह ‘निर्वस्त्र’ होने को ही समानता मान चुकी है। इसमें निश्चित रूप से उसके परिवार की भी सहमति है, जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। फिर हम ‘हाउस अरेस्ट¹ जैसे कार्यक्रम के आयोजकों को अधिक दोष कैसे दें? दोष तो प्रतिभागियों और उनके परिवारों के साथ उस समाज का है, जो ऐसे कार्यक्रमों को बढ़वा देता है। जिसके लिए स्त्री भोग्य वस्तु से अतिरिक्त कुछ नहीं है। वह स्त्री को समानता, स्वतंत्रता और आत्म अभिव्यक्ति के नाम पर आत्मविस्मृति के साथ आत्मविकृति की तरफ ले जा रहा है।
हम समानता के अधिकार की संकल्पना से स्त्री-पुरुष को उन्नति के पथ पर आगे बढ़ने की मनोकामनाओं से युक्त थे। परन्तु परिणाम रूप में छद्म वेश्यावृत्ति की तरफ बढ़ते समाज का निर्माण होते देख रहे हैं। इसी कारण आज भारतीय ऋषियों की संकल्पनाओं का समाज हमें अधिक प्रगतिशील और व्यावहारिक दिखाई पड़ता है।
इसीलिए मैं कहना चाहूँगा कि अब भी सचेत होने का वक्त है। भारतीय आचार-व्यवहार नियमों और परम्पराओं का पालन, हमें इस गर्त से निकाल सद्गमार्ग की तरफ ले चलने में सहायक सिद्ध होगा। हमें उसे अपनाना होगा। केवल स्त्री ही नहीं, अपितु मानव जीवन और स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु स्त्री को आत्मविकृति से आत्मविकास के मार्ग की तरफ उन्मुख करना आवश्यक है। इस हेतु भारतीय संस्कृति की स्वीकार्यता अपरिहार्य है।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)