अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 20/4/2021
हर साल एक लड़के के माता-पिता उसे गर्मी की छुट्टी के लिए दादी के घर ले जाते थे, और वे दो हफ़्ते बाद उसी ट्रेन से घर लौट आते।
फिर एक दिन लड़का अपने माता-पिता से कहता है: “अब मैं अब बड़ा हो गया हूँ। क्यों न मैं इस साल अकेले ही दादी के घर जाऊँ?”
चर्चा के बाद माता-पिता भी सहमत हो जाते हैं। अब सब लोग प्लेटफॉर्म पर खड़े हैं, और एक-दूसरे का अभिवादन कर रहे हैं। जैसे ही खिड़की के पास खड़े होकर पिता बेटे को यात्रा के लिए कुछ टिप्स देने लगते हैं, लड़का कहता है, “मुझे पता है। आप पहले ही मुझे कई बार बता चुके हैं!”
ट्रेन छूटने वाली है और पिता फुसफुसाते हुए कहते हैं: “मेरे बेटे, अगर आपको अचानक डर लगे, तो यह आपके लिए है!” और वह लड़के की जेब में कुछ डाल देते हैं। अब लड़का बिल्कुल अकेला है, पहली बार अपने माता-पिता के बिना, ट्रेन में बैठा वह खिड़की से रास्ते के दृश्यों को देखता हुआ यात्रा करता है।
उसके आस-पास के लोग ऊधम मचाते हैं। शोर करते हैं। डिब्बे में प्रवेश करते हैं और बाहर निकलते हैं। उसे लगता है कि वह अकेला है। तभी एक व्यक्ति उसे घूरने लगता है। अब वह लड़का और अधिक असहज महसूस करता है। और वह कुछ डरा हुआ भी है।
वह अपना सिर नीचे कर लेता है। सीट के एक कोने में झपकी लेने की कोशिश करता है। उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं।
उस समय उसे याद आता है कि उसके पिता ने उसकी जेब में कुछ डाला था। काँपते हाथ से वह कागज़ के इस टुकड़े को देखना चाहता है। वह उसे खोलता है। उसमें लिखा होता है, “बेटा! चिन्ता मत करो, मैं अगले डिब्बे में ही हूँ!”
जैसे ही बच्चे को ज्ञान होता है कि पिता पास में हैं, उसका भय नष्ट हो जाता है। अज्ञानता भय पैदा करती है। अज्ञानता को नष्ट करने के लिए ज्ञान का होना ज़रूरी है। ज्ञान कैसा? जैसा पहले कहा। ज्ञान वेदवाणी है।
वेद ज्ञान ही क्यों हैं, यह बड़ा सवाल है। हम वेद के महत्त्व को ऐसे समझ सकते हैं कि ईश्वर को मानने, न मनाने से हमें कोई आस्तिक-नास्तिक नहीं कहेगा। लेकिन हम वेद की निंदा करते हैं, तो हमें नास्तिक कहा जाएगा। मनुस्मृति कहती है, “नास्तिको वेद निंदक:”। इसी वेद के प्रामाण्य के आधार पर भारत भूमि में उत्पन्न होने वाले दर्शनों का आस्तिक और नास्तिक दर्शन के रूप में वर्गीकरण हुआ।
ब्रह्म अर्थात ईश्वर को ज्ञान रूप (सत्यं ज्ञानम् अनन्तं ब्रह्म-तैत्तिरीय) भी कहा गया है। अतः ज्ञान अर्जन से ही सुख की प्राप्ति सम्भव है। लेकिन वह ज्ञान कैसा हो, जिससे सुख मिले। तो वैदिक ऋषि कहता है, “ऋते ज्ञानान्न मुक्ति” अर्थात् सत्य ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं है। इसी ज्ञान के विषय में भगवद्गीता के चौथे अध्याय के 33वें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं, “सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।” अर्थात्, हे पार्थ! सभी कर्मों का परिसमापन ज्ञान में प्रतिष्ठित होने पर हो जाता है।
चौथे अध्याय के ही 48वें श्लोक में कहा गया है, “नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते”। यानी ज्ञान से अधिक पवित्र कुछ भी नहीं है। वह वेद वाणी ज्ञान है। और इस पवित्र ज्ञान को हासिल कर लिया तो स्वतः मुक्ति मिल जाएगी। लेकिन किससे? अज्ञान से, दुःख से। अज्ञान ही दुख है। जैसा यात्रा करने वाले बच्चे को हो रहा था।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की सातवीं कड़ी है।)
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