Holi

देखो न, कैसे मैंने होली मनाई….

द्वारिकानाथ पांडेय, कानपुर, उत्तर प्रदेश से

सुबह उठा तो सबसे पहले जिस चीज में दिमाग भिड़ाना पड़ा ,वह था आँखों में चुपरा गया काजल। रात में होली जलाकर आने के बाद काजल लगाने की परम्परा का निर्वहन नींद के दौरान कुछ इस तरह किया गया था कि आँखों ने सुबह खुलने से लगभग मना कर दिया। आखिरकार उन्हें खोलने के लिए कड़ू तेल का प्रयोग करना पड़ा। इसके बाद जब आँखें खुलीं, तो हम भी निकल पड़े बाहर का माहौल जाँचने। सवेरे से गाँव अपने काम में व्यस्त था। किसी को रंग खेले जाने से पहले जानवरों का चारा लाकर रखने की जल्दी थी, तो किसी को खेतों में खुद रहे आलू की कट्टी ट्रैक्टर में लदवाने की। क्योंकि अगर अभी सुबह जल्दी यह काम नहीं निपटाए गए तो फिर आज ये होने से रहे। आखिर भंग और रंग दोनो इंतजार जो कर रहे थे। 

बहरहाल, बाहर का माहौल भाँपकर लौटे तो घर में घुसते ही फोन की घंटी ने स्वागत किया। मोहल्ले के लड़कों की कॉल थी। कॉल क्या थी, इस बात का ऐलान था कि गुरु जमघट शुरू हो और कार्यक्रम आगे बढ़ाया जाए। सो, कुछ ही देर में सभी तय जगह पर एकत्रित थे। ठंडाई बनाने का प्रोग्राम भी कुछ बड़के भईया लोगों ने तय किया था, तो उसमें श्रमदान की थोड़ी जिम्मेवारी का निर्वहन शेष था। उन्हें बाजार से कुछ जरूरी चीजें लाकर पकड़ाई गईं और हम सब निकल लिए आज के अपने एक सूत्रीय कार्यक्रम पर। 

पहले तो आपस में ही सबको रंगा गया। फिर उसके बाद घर-घर जाकर दोस्तों को निकालकर पोत दिया गया। जो-जो रंग दिया जाता, वह रंगने वाले काफिले का सैनानी बन बाकियों को रंगने के लिए निकल पड़ता। छोटों-बड़ों सबके रंग बदलने के बाद वापस मोहल्ले में उसी जगह जमघट हुआ जहाँ ठंडाई का प्रोग्राम था। अब यहाँ से शुरू हुआ प्रमुख कार्यक्रम अर्थात भाभियों से होली खेलने का क्रम। एक-एक करके झुंड भाभियों के द्वार पर दस्तक देता और कुछ ही मिनटों में गोबर से लिपे हुए आँगन से लेकर पूरियों की सुगंध से भरे चौंके तक सब रंग जाता। किसी को छत पर चढ़कर रंगा गया तो किसी के बन्द दरवाजे को छोटे बच्चे की मदद से हाथ डालकर पहले खोला गया, फिर होली खेली गई। 

सारे सफल प्रयासों के बाद ठंडाई पीने वालों ने ठंडाई पी। कुछ ने अपने पापा-चाचा से आँख बचाकर सादी के नाम पर छह-सात गिलास हलक में उड़ेल लिए। अब ठंडाई और वह भी सादी? यह तो वही बात हुई की बैल, वह भी बिना सींग का। ऐसा होता है क्या भला? तो अब इसके बाद कीचड़, मोबिऑयल, कोल्ड ड्रिंक जैसे पदार्थो का प्रयोग पानी के स्थान पर करते हुए जो भी आया, उसे रंग कर भेजा गया। कुछ चतुर जन मुँह में यह सोचकर अबीर थोपकर आए कि इस पर कोई चटक रंग नही चढ़ेगा। ऐसे गुणीजनों को पकड़ कर पहले उनका मुँह धुलाया गया। फिर लाल, हरे और काले रंग की कई परतें उनके श्रीमुख के ऊपर चढ़ाई गईं। इसके बाद फिर ऊपर से पहले की तरह उनके मुँह पर अबीर थोपकर उन्हे विदा किया। अब भला इससे ज्यादा ऑर्गेनिक होली भला हो सकती थी? 

कई बार इमरजेंसी में रंग घोलने के लिए पानी न मिलने पर ठंडाई से ही काम चलाया गया। यानी होली पर ठंडाई पीने के अलावा रंगने के भी खूब काम आई। छह-सात घंटे के हुड़दंग के बाद मजमा पहुँचा नदी पर। अब शुरू हुआ चेहरे की रगड़ाई का कार्यक्रम। जैसी रेगमाल से लोहा रगड़ा जाता है, कुछ वैसे ही प्रयत्न चेहरे पर लगे रंग को छुड़ाने के लिए हो रहे थे। पर रंग तो क्या छूटा हाथों की खाल निकल आई। इधर, ठंडाई ने भी अपना काम करना शुरू कर दिया था। इसलिए घर लौट चलने में ही सबने भलाई समझी। लौट भी लिए पर खूब हँसते हुए। 

हालाँकि ये किसी को शायद ही समझ आया हो कि हम सब हँस किस बात पर रहे थे। कदम भी मानो उठे तो आगे बढ़ने को, लेकिन पड़े पीछे की ओर। नदी से घर का रास्ता बमुश्किल 15 मिनट का। पर घर पहुँचे तो लगा, जैसे घंटों से चलकर आ रहे हैं। आखिर किसी तरह घर आकर खटिया पकड़ी गई। और कुछ इस तरह रंग और भंग की दोपहर के कार्यक्रम का समापन हुआ। सच कहें, त्योहारों का जो मजा अब भी गांँव में है न, वह भला शहर में कैसे मिलता होगा? 
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(नोट : द्वारिकानाथ युवा हैं। सुन्दर लिखते हैं। यह लेख उनकी लेखनी का प्रमाण है। मूल रूप से कानपुर के हैं। अभी लखनऊ में रहकर पढ़ रहे हैं। साहित्य, सिनेमा, समाज इनके पसन्दीदा विषय हैं। वह होली पर ऐसे कुछ लेखों की श्रृंखला लिख रहे हैं, जिसे उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी पर प्रकाशित करने की सहमति दी है।) 
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