‘रैयतवाड़ी व्यवस्था’ किस तरह ‘स्थायी बन्दोबस्त’ से अलग थी?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 8/9/2021

लंदन में बैठे कंपनी के निदेशक मंडल ने कॉर्नवालिस को आदेश दिया था कि वह राजस्व संग्रह के लिए किन्हीं स्थायी नियमों को अमल में लाएँ। ऐसे में, उनके पास ज़मींदारों को मान्यता देने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह गया। कारण कि उनके पास किसानों से सीधे लगान वसूलने के तब तक कोई साधन ही नहीं थे। बहरहाल, बंगाल में ज़मीनों के मालिक कितना लगान अदा करेंगे, यह तय था। इसका उनकी आर्थिक स्थिति से कोई संबंध नहीं था। नियम ये भी था कि अगर ज़मीन मालिक तयशुदा लगान सरकार को नहीं दे पाए तो उनकी ज़मीन किसी और को बेची जा सकती थी।

इस बंदोबस्त का मुख्य उद्देश्य यह था कि सरकार के कोष में सुनिश्चित राजस्व आता रहे। साथ ही कृषि के विस्तार में भी कुछ मदद मिले। पर ऐसा हुआ नहीं। उल्टा हुआ ये कि बड़े पैमाने पर ज़मीन मालिक लगान चुकाने में असमर्थ रहे। इससे उनकी ज़मीनें व्यापारियों को बेच दी गईं। ज़मीन में व्यापारियों की दिलचस्पी नहीं थी। लिहाज़ा इन नए ज़मींदारों के अधीन खेती करने वाले जोतदारों के अधिकारों को भी सुरक्षित करने का इरादा किया गया। ठीक उसी तरह जैसी सुरक्षा नियमित लगान अदा करने वाले ज़मींदारों को सरकार ने दी हुई थी। इरादा ये था कि कृषकों के अधिकारों को अदालतें न्यायिक-संरक्षण दें। मगर इसमें सवाल ये आड़े आया कि कृषकों के अधिकार आख़िर थे क्या? भारतीय परंपरा में इन अधिकारों का कोई उल्लेख नहीं था। अंग्रेज भी इनकी स्पष्ट परिभाषा नहीं तय कर सके।

नतीज़ा ये हुआ कि ‘स्थायी बंदोबस्त’ का कानून लागू होते ही तमाम अदालतें मुक़दमों से लद गई। इससे फ़ैसलों में इतनी ज़्यादा देर होने लगी कि अदालत में मामला ले जाने का मतलब किसी नतीज़े पर पहुँचने की रही-सही उम्मीद भी ख़त्म होना समझा जाने लगा। इस तरह किसानों के अधिकार ख़त्म होते दिखने लगे और ज़मींदारों के हित सब तरफ से सुरक्षित हो गए। इस तरह यह व्यवस्था भी असफल साबित हो गई।

अंग्रेजों ने अपने आधिपत्य वाले दूसरे इलाकों में ‘स्थायी बंदोबस्त’ से जुड़े कुछ प्रयोग भी किए। जैसे, मद्रास प्रांत के इलाकों ज़मींदार वर्ग था ही नहीं। इसलिए वहाँ कई गाँवों को मिलाकर जागीर की तरह वर्गीकृत किया गया। फिर उन्हें नीलाम किया गया। इस तरह वहाँ ज़मींदार जैसा वर्ग तैयार करने की कोशिश की। लेकिन बात बनी नहीं। आख़िर 1802 के बाद ‘स्थायी बंदोबस्त’ धीरे-धीरे ख़त्म कर दिया गया। इसकी जगह ‘रैयतवाड़ी’ लागू की गई। 

रैयतवाड़ी व्यवस्था लगान के स्थायी आकलन पर आधारित थी। यह लगान हर तरह की कृषि योग्य ज़मीन पर देय था। इसका निर्धारण खेतों और अन्य छोटी इकाईयों के सर्वेक्षण के आधार पर किया जाता था। जो लगान तय होता, वह एक सालाना समझौते के तहत सरकार को किसान अदा किया करते थे। रैयतवाड़ी व्यवस्था ने सरकार और व्यक्ति विशेष के बीच संबंधों की अलग ही अवधारणा प्रस्तुत की थी। मद्रास में यह व्यवस्था शुरू करने वाले सर थॉमस मुनरे ने इस बारे में लिखा था, “संपत्ति की रकम को एक समान रखने के लिए यह बेहतर होगा कि वह चार-पाँच सौ बड़े लोगों के बजाय 40-50 हज़ार छोटे मालिकों के हाथ में रहे।” इस तरह दोनों प्रणालियों ने कम, ज़्यादा सही मगर भू-मालिकों का ऐसे लोगों का वर्ग तैयार कर दिया जो अंग्रेजी अर्थों में ज़मींदार थे तो दूसरी ओर मूल किसानों के मालिक।

ऐसा ही मामला धार्मिक कानूनों का था। इसमें सामान्य तौर पर अंग्रेज यह स्वीकार कर चुके थे कि हिंदु और मुसलिम धार्मिक कानूनों में सरकार को दख़ल नहीं देना चाहिए। इसीलिए ऐसी दख़लंदाज़ी कभी कहीं हुई भी तो वह उन्हीं क्षेत्रों तक सीमित रही, जहाँ अंग्रेजों की अंतश्चेतना को झकझोरा गया। वैसे, अंग्रेजों को मुसलिम धार्मिक कानून ज़्यादा सहज लगे थे क्योंकि उनकी व्याख्याएँ स्पष्ट थीं। जैसे- निक़ाह, तलाक़, वरासत आदि कई चीजों से संबंधित प्रावधान साफ़ तौर पर लिखे गए थे। हालाँकि अंग्रेज ने यह भी पाया था कि 11वीं सदी के अंत तक मुसलिम कानून सभी रूपों में कुछ ज़्यादा ही कठोर हो चुके थे। आधुनिक समाज में इसकी इजाज़त नहीं दी जा सकती थी। लिहाज़ा, शुरू में रास्ता निकाला गया कि मुसलिम धर्म के जिन मामलों में लिखित प्रावधान नहीं हैं, वहाँ ब्रिटिश न्यायाधीश अंग्रेजी कानूनों के हिसाब से फै़सले कर सकते हैं। 

वहीं, हिंदु कानून ज़मीन आदि के मामलों की तरह धार्मिक मुद्दों पर भी अस्पष्ट था। उसके प्रावधान भिन्न-भिन्न थे। इस सिलसिले में जो लिखित दस्तावेज़ थे, वे थीं- स्मृतियाँ। इनमें मनु संहिता और उसके बाद उस पर की गई टीकाएँ हैं। जैसे- ‘विघ्नेश्वर’ (11वीं सदी), ‘हेमाद्रि’ (14वीं शताब्दी), ‘जीमूतवाहन’ (15वीं सदी), आदि। हालाँकि इन संहिताओं-टीकाओं में अक्सर विरोधाभासी विवरण पाए गए। शायद इसीलिए पूरे भारत में किसी विशिष्ट ग्रंथ को समान रूप से मान्यता नहीं थी। हर हिस्से में अलग-अलग ग्रंथों को प्राथमिकता दी गई। वहाँ उसी से संबंधित विधिक प्रवधान कानून की तरह स्थापित हो गए।

ब्रिटिश न्यायाधीशों के पास 1864 तक हिंदु, मुसलिम कानूनों की व्याख्या से संबंधित कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी। उनकी अदालतों के साथ हिंदु और मुसलिम कानूनों के जानकार संबद्ध कर दिए गए थे। वही उन्हें धर्म के कानूनों की व्याख्या कर के बताते थे। न्यायाधीश उनके प्रवक्ता मात्र थे। इस तरह जो कानून लागू किया गया, वह यद्यपि समसामयिक था। लेकिन उन परिस्थितियों में देश के बड़े हिस्से के लिए अप्रासंगिक भी था। इस तरह धार्मिक कानूनों के प्रति शासन का ढुलमुल रवैया तब तक बना रहा, जब तक ब्रिटिश राजशाही ने भारत का शासन अपने हाथ में नहीं ले लिया।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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पिछली कड़ियाँ : 
22. स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था क्यों लागू की गई थी?
21: अंग्रेजों की विधि-संहिता में ‘फौज़दारी कानून’ किस धर्म से प्रेरित था?
20. अंग्रेज हिंदु धार्मिक कानून के बारे में क्या सोचते थे?
19. रेलवे, डाक, तार जैसी सेवाओं के लिए अखिल भारतीय विभाग किसने बनाए?
18. हिन्दुस्तान में ‘भारत सरकार’ ने काम करना कब से शुरू किया?
17. अंग्रेजों को ‘लगान का सिद्धान्त’ किसने दिया था?
16. भारतीयों को सिर्फ़ ‘सक्षम और सुलभ’ सरकार चाहिए, यह कौन मानता था?
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