परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 16/3/2021

क्या है कि बहुत से मनुष्यों की प्रकृति बेचैन रहने की होती है। उनको कुछ ना कुछ चाहिए, जिसमें वे उलझे रहें। ऐसे ही कुछ लोगों के मन में हर चीज को खोद-खोद कर देखने की आदत लगी होगी। उनकी बेचैन प्रकृति ने उनके मन में उतने ही स्वाभाविक सवाल पैदा किए होंगे। जैसे, हवा क्या है? पानी क्या है? ज़मीन क्या है? आग क्या है? आकाश क्या है? ये कहाँ से आए? इन्हें किसने बनाया? क्यों बनाया? इनकी जरूरत क्या है? इन्हें मिटा कौन देता है? ऐसे तमाम सवालों से उन पहले से बेचैन लोगों की बेचैनी और बढ़ी होगी।  

इसके बाद वे सब छोड़कर इन सवालों के उत्तर ढूँढ़ने में जुट गए होगें। उसी क्रम में उन्होंने हर चीज को बारीकी से देखा होगा। तब उन्हें अनुभव हुआ होगा, अरे! पृथ्वी में तो महक है। ओह! ये ठोस है और कोमल भी। इसी तरह पहले बाह्य प्रकृति में मौज़ूद तमाम चीजों के बारे में अन्वेषण हुआ होगा। फिर बाह़्य अन्वेषण से होते हुए वे अंतरतम में उतरते गए होंगे। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि आख़िर मनुष्य भी तो प्रकृति का ही हिस्सा है। 

इसी तरह शायद देखने की नई तकनीक का विकास हुआ होगा। उसे ही नाम दिया गया ‘दर्शन’ यानि देखना। देखना कैसे? जैसे दर्पण में ख़ुद को देखते हैं। ‘दर्पण’, ‘दर्शन’ कितने समान से शब्द हैं। भाषा वैज्ञानिक बता सकते हैं कि किन ध्वनियों के आघात, प्रघात, घर्षण आदि से ‘दर्शन’ से ‘दर्पण’ बना। अथवा ‘दर्पण’ से ‘दर्शन’। या फिर ये हो सकता है कि दोनों के बनने में एक-दूसरे का कोई योगदान न भी हो। पर दोनों लगते तो एक से ही हैं। काम भी मिलता-जुलता है। दर्पण चेहरा दिखता है। चाहे जैसा हो, स्पष्ट दिखाता है। कुछ छुप नहीं सकता, सच्चा दिखाता है। 

वैसे ही दर्शन में भी चेहरा दिखता है। पर किसका? ये सवाल है। इसका उत्तर ये हो सकता है कि वह चेहरा, जो दर्पण में दिखने से रह जाता है। वह चेहरा, जिसे केवल हम ही देख सकते हैं। वह चेहरा, जिसे हम अक्सर दूसरों से छुपाए घूमते हैं। हमारा असली चेहरा। वह दर्शन के माध्यम से दिखता है। 

इस तरह उन ‘कुछ लोगों’ के लिए बाह्य प्रकृति के अन्वेषण से शुरू हुआ क्रम आत्म के अध्ययन (अध्यात्म) की तरफ बढ़ा होगा। फिर अध्यात्म से परमात्म की तरफ चल पड़ा होगा। सम्भवत: इसीलिए बुद्ध भी कहते हैं, “अपने दीपक ख़ुद बनो।” मतलब ‘स्व’ को ‘स्वयं’ देखो। ‘परम् लौ’ को प्राप्त हो जाओगे। 

(अनुज राज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की दूसरी कड़ी है।)

 

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *