Sanskriti, Sanskritik

सांस्कृतिक पुनर्जागरण कैसे होगा? और उसका मार्गदर्शन कौन करेगा?

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

हमारे सांस्कृतिक पुनर्जागरण में सनातन श्रौत यज्ञ परम्परा के महत्व का अन्तिम भाग दो सप्ताह पहले पूरा किया। एक बोझिल, अरुचिकर और पुरातनपन्थी विषय पर नज़र-ए-इनायत करने वाले दाे मित्रों की उस पर प्रतिक्रिया भी आई। बोले कि अब तक का जो लिखा गया, वह सैद्धान्तिक निरुपण था। कमोबेश वैचारिक ही है। इसका व्यवहारिक और क्रियात्मक पक्ष उपेक्षित ही रहा। इसलिए इस अन्तिम परिच्छेद में सनातन श्रौत यज्ञ विज्ञान के दर्शन के आलोक में आलोच्य विषय पर कुछ विचार प्रस्तुत है।

तो शुरू करेंगे समस्या को आज के परिप्रेक्ष्य में समझने की प्रक्रिया से। कुछ हफ्तों पहले स्वयं को सनातन हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध बताने वाले एक राजनीतिक पक्ष की नवनिर्वाचित ओडिशा सरकार से जुड़ी एक ख़बर आई। इसके अनुसार, पुरी के श्री जगन्नाथ महाप्रभु की अन्य राज्यों में फैली सम्पत्तियों के बेचकर सरकार 10 हजार करोड़ रुपए जुटाने की तैयारी में है। यह एक ऐसा उदाहरण है जिसमें विडम्बनाएँ छुपाए नहीं छिपती। अखंड-भारत, गौ-रक्षा, मन्दिर स्वतंत्रता, हिन्दू कोड बिल के लिए प्रतिबद्धता दिखाने वाली और फिर राम मन्दिर आन्दोलन से सत्ता हासिल करने वाली पार्टी की इस स्थिति को प्राप्त हो सकती है, तो फिर दूसरों के बारे में कहा ही क्या जा सकता है? उनके बारे में जितना न कहा जाए उतना ठीक। उनके कर्म उन्हें समय के साथ ऐसी गति पर पहुँचा सकते हैं, जहाँ उनका वैचारिक नहीं, न्यायिक विधान से निरोध करना होगा।

इस परिवर्तन के समय में हिन्दुत्व से सत्ता को प्राप्त करने वाले दल को विशेष सजग रहने की आवश्यकता है। बहुत सम्भव है आधुनिकता और विकास के साथ विश्वगुरु बनने का सपनाें से आत्ममुग्ध सनातन धर्म का नेतृत्व करने में सफल हुए दल और उनके बहुसंख्य समर्थकों को अभी कुछ असहज न भी लगे। किन्तु संकेत तो स्पष्ट हैं। लम्बी गुलामी से आत्म-सम्मान, गौरव और यथार्थ रचनात्मकता खो चुके जनमानस को दीवाली पर करोड़ों के दीपक जलाने का विश्व रिकॉर्ड, काशी, मथुरा, उज्जयिनी जैसे तीर्थ स्थल और कुम्भ मेले जैसे आयोजनों के पर्यटनीकरण कर उसके ढोल नगाड़े पीटकर ही सही, एक सतही सुख की प्राप्ति तो होती ही है। धर्मनिन्दकों को इससे जा दु:ख होता है उसे देखकर धर्मवादियों को सहज शान्ति की अनुभूति भी होती ही है। लेकिन प्रश्न यह है कि यह उपलब्धि कितनी ठोस है? यह किन मूल्यों पर हैं? कितनी सम्यक् हैं, कितनी टिकाऊ हैं?

विशाल रोड शो, बड़े पंच सितारा आयोजन, लेजर-शो वाले प्रचार-प्रसार से तात्कालिक लाभ ही हो सकते हैं। हिन्दुत्व के इस नेतृत्व को यह ध्यान में रखना अत्यावश्यक है कि यह सफलता क्षणभंगुर है, यदि इसका विधायी प्रयोग न हो तो! जिस विकास के जिस अर्थ-प्रधान और काम प्रेरित प्रतिमानों के पीछे आँखें बन्द कर बेतहाशा दौड़ता लगता है। धर्म और मोक्ष से विरहित इस तंत्र में कम से कम भारतीय संस्कृति और सभ्यता के कोई हित तो सिद्ध होते नहीं दिखते। इसकी दूसरी तार्किक परिणति यह भी है कि धन और सत्ता के महत्वकांक्षाओं के चलते आज हिन्दुत्व पक्ष के दलों के कार्यकर्ताओं के बीच मार-काट, भीषण कूटनीति, चालें, वक्र और कुदृष्टि नजर आना शुरू हो गई है। इससे यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि हिन्दुत्व औपनिवेशिक विचार से मुक्त नहीं हो पाया है। यहाँ सत्ता और धन ही लक्ष्य बनते जा रहे हैं और सनातन संस्कृति और सभ्यता के पुनर्जीवन और संरक्षण की दिशा में कोई ठोस और विधायी सार्वजनिक प्रयासाें के चिह्न नहीं दिखते। अब सनातन धर्म और विज्ञान की वृहद परम्परा के बावजूद यह हम क्यों नहीं कर पा रहे हैं? या यह कहें कि इसे कैसे किया जा सकता है – यह आज सबसे प्रासंगिक प्रश्न है।

• सर्वप्रथम यह ध्यान में रखना होगा कि काल वैचारिक बदलावों से विश्व में बड़े परिवर्तनाें के संकेत मिल रहे हैं, वह निश्चित ही हमें भी अपने पुराने कलेवर को बदलने का स्वर्णिम अवसर है। ऐसी सन्धि शताब्दी-सहस्राब्दियों में ही कभी आती है। इसलिए भारतीय सांस्कृतिक पुनरोत्थान के लिए कई जाने-अनजाने स्रोतों से अनपेक्षित सहयोग मिलेगा। यहाँ सबसे अधिक खतरा इस बात का है कि हमारा नेतृत्व इन अनुकूलताओं को क्षुद्र या संकीर्ण लक्ष्यों में या अहन्तापूर्ण हवाई किले बनाने में बर्बाद कर कर दें। इसके लिए नागरिकों को सजग और क्रियाशील बनना होगा। ऐसी नागरिकता को विकसित करने के लिए नागरिकों को श्रौत परम्परा के नीति मूल्य और जीवनचर्या को पुनर्जीवित करना होगा। सरकार की नीतियाँ उसके अनुरूप बनानी होंगी। 

• इसके लिए अपेक्षित है कि सनातन धर्म और मूल्यों को जीने वाले और प्रतिबद्ध व्यक्तियों की सत्ता में भागीदारी हो। ऐसे आचरण वाले नेताओं के आसपास जिस नीति-मूल्य आधारित तंत्र का विकास होगा वही धर्मतंत्र की यथार्थ बल होगा।

• विकास नीति हमारे मूल्यों के अनुसार नागरिकों की जरूरत, उपलब्धताओं के अनुरूप होनी चाहिए। ऐसा अन्धाधुन्ध विकास जो पर्यावरणीय विनाश की कीमत पर जीडीपी बढ़ाता है और वास्तविक और टिकाऊ समृद्धि के स्रोतों को खत्म करता है, वह धर्मविरोधी है। उदाहरण के लिए यदि हम अपने देश में आवश्यकताओं की वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाना हो तो सर्वप्रथम पाश्चात्य औद्योगिक-रासायनिक कृषि से मुक्त होना पड़ेगा। दूसरा हमें हमारी पारम्परिक कृषि के लक्ष्य को भोगवादी उपत्पादकता से हटाकर पारिस्थितिकीय सन्तुलन आधारित कृषि, जल, वन और उससे सम्बद्ध उत्पादन की ओर जाना होगा। इसे सभ्यता और जीव सुरक्षा के रूप में भी देखना होगा जो हमारी धार्मिक संस्कृति की विशिष्ट दृष्टि है। हमें उस अधार्मिक उपभोगवादी एशियाई उत्पादकता से भी बचना होगा जो चीन, जपान आदि देशों में पनप रही है।

• इसके बाद आवश्यकता जनमानस को हमारे मूल्यों पर आधारित नैतिक-वैचारिक और आध्यात्मिक चिन्तन का परिवेश देने की होगी। यूरोप, मध्य-एशिया, अमेरिका और सारी दुनिया में जो स्थितियाँ बन रही हैं उससे पश्चिमी श्वेत ईसाई मूल्य प्रधान वैश्विकता दरक रही है। यह हमें अपने मूल्यों को पुन:स्थापित करने का मौका है। इसके लिए सरकार को धार्मिक जीवनचर्या जीने और समझने वाले विद्वानों को सरकारी निर्णय प्रक्रिया में लाना होगा। इसी प्रकार सरकार की यह जवाबदेही है कि वह आत्मविश्वास से कदम उठाए और सनातन परम्परा के संस्थान, संगठनों को सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त कर दें। मन्दिर, मठ, यात्रा-पर्व-मेले के आयोजनों के सरकार की भूमिका सिर्फ सुविधाप्रदाता की होनी चाहिए, प्रशासक की नहीं। 

• यह सर्वसाधारण तथ्य है कि न्यायिक व्यवस्था त्वरित, प्रभावी और सुलभ न्याय देने वाली होनी चाहिए। समाज के सुचारू संचालन के लिए नैसर्गिक युक्ति और तर्कसंगत न्यायिक व्यवस्था का महत्व सर्वाधिक है। न्याय जो जनता जनार्दन उसके जन-जीवन, संस्कृति का पोषक हो। यहां जद्दोजहद कई विरोधाभासी और भ्रान्त विचारधाराओं, प्रभावशाली समूहों के बीच देश की न्याय को सुलभ कराने की है। ऊपरी अदालत के आका अपने चरित्र, आचरण और विचारों में अधिकारित्व के एक असाधारण भाव का प्रदर्शन करते दिखते हैं। बुद्धिमत्ता और बेलगाम ताकत से आत्ममुग्ध ऊपरी अदालतों ने जनहित याचिकाओं के रास्ते से कार्यपालिका और विधायिका के फैसले लेना शुरू कर दिया है। वे कानून के ऐसे स्वयंभू संवैधानिक भाष्यकार बनने की होड़ में रहते हैं, जिनका आम नागरिकों के हित, भावना, लोक परंपरा से कोई लेना देना नहीं।

• इसके लिए जनहित,जनभावना और लोक परंपराओं के मायनों को जड़ों से तोड़-मरोड़ कर, समग्रता से विच्छिन्न कर आयातित, लोकलुभावने नए जुमलों का इस्तेमाल करते हैं। इसे नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाने की जिम्मेदारी सरकार की है। न्यायिक व्यवस्था को जनतांत्रिक बनाने के लिए इसका विऔपनिवेशीकरण आवश्यक है। सर्वोच्च अदालत जब धर्म को जीवन जीने की पद्धति और व्यक्ति के निजी परिक्षेत्र का विषय बताती है तो वह धर्म एक ऐसा पक्ष ही देखती है जो औपनिवेशिकता के नैतिक मूल्य, सौन्दर्यबोध, रसानुभूति और संवेदनाओं को बचाए रखना चाहती है। इनके समूचे बदलाव के लिए मन्थन की आवश्यकता पैदा हो रही है। इसके लिए जितनी अधिक तैयारियाँ शीघ्रता से होगी, यह रुपान्तरण उतना ही सहज और प्राकृतिक होगा।

• औपनिवेशिक सत्ता ने इतिहास और सामाजिक अध्ययन विषयों में दुष्प्रचार से सांस्कृतिक नीति मूल्यों और पहचान को ही गलत साबित करता है। इस नैरेटिव में विदेशी आक्रांता विचारधारा को न केवल स्थानीय लोगों के समान बताया है। उनके धत् कर्मों पर पर्दा डाल कर और पीड़ित पक्ष को ही कमजोर और अपराधी सिद्ध कर औपनिवेशी विचारवालों को विशेषाधिकार की बात करता है। हमारे अदालती फैसलें इसका इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह विचारधारा लोकतांत्रिक जनभावना का भी सम्मान नहीं करती और इसलिए इसका क्षय होना तय है। भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण वैश्विक विऔपनिवेशीकरण का आगाज करेगा।

• शासन व्यवस्था एक जीवंत प्रक्रिया रहती है, संविधान एक देश-काल-परिस्थिति में बनी एक घटना होती है। ऐसे में संविधान प्रदत्त साधन और उसके दायरे में जन अपेक्षाओं के अनुरूप सुधार लाना आसान नहीं होता। शासक की जवाबदेही और जिम्मेदारी उस नागरिक के प्रति है जो संस्कृति और सभ्यता का प्रतिनिधि होता है। संविधान और गणतंत्र तो बनते बिगड़ते रहे हैं, आते जाते रहेंगे। हमें यह नहीं भूला होगा कि संविधान एक अब्राहिमी औपनिवेशिक प्रभावों में विकसित घटना है। यदि हम सांस्कृतिक मूल्य और साभ्यतिक चरित्र पर बढ़ना चाहते हैं तो यथार्थ में विऔपनिवेशीकरण करना होगा। इसके द्वारा दिखाई गई विशेष सुविधाएँ, भोगवाद और फरेबी समझौतावादी नैतिकता का लालच छोड़ना होगा। तभी हम सभ्यता और संस्कृति के आधार पर अपना नागरिक चरित्र का निर्माण कर पाएँगे।

• यह समझने की बात है कि औपनिवेशिक संस्कृतियों का सबसे बड़ा शक्ति का स्रोत उनकी दूसरे उपनिवेशवादियों में दुरभिसन्धि रही है। वर्तमान को देखने पर हम पाते हैं कि औपनिवेशिक संस्कृतियों में एक आपसी संघर्ष के युग का सूत्रपात हो चुका है, जिसके चलते व्यौपनिवेशीकरण की संभावनाएँ प्रबल हो गई है। भारतीयता मूल्यों से चलने वाली सरकार को न केवल पूरे प्रयास कर किसी औपनिवेशिक सत्ता से जुड़कर कुछ तुच्छ लाभों से बचना होगा।

• इस औपनिवेशिक सत्ताओं की ताकत असंगठित समाजों पर संगठित और सामूहिक स्तर पर हिंसाचार की है। सरकार का कर्तव्य होगा कि वह ऐसे सामूहिक हिंसा के बल पर ब्लैकमेल करने वालों का खात्मा करे और उनके प्रतिपक्ष में खड़े धार्मिक समाज-परम्पराओं के आत्मरक्षारत लोगाें को अधिकार और जिम्मेदारी से पुष्ट करें। धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। औपनिवेशिक परिवेश वाले लोकतंत्रों में धर्मनिरिपेक्षता एक राजनीतिक मजबूरी है। 

• सरकार का कार्य आज ऐसे धार्मिक व्यक्ति, संस्थान, परम्पराओं को असाधारण उपायों से पुष्ट कर उनके योगदान को राष्ट्र निर्माण में नियोजित करने का है जो धर्मतंत्र को जागृत करे। धार्मिक नीति मूल्यों का जागरण विऔपनिवेशीकरण के बाद उत्पन्न होने वाले रिक्त स्थान को भरने के लिए यह आवश्यक होगा। उदाहरण के लिए देखें किस तरह धीरे-धीरे धार्मिक आचरण युक्त समावेशी संस्कृति का विस्तार अपने आप हो रहा है। ताकत, विध्वंस और संकीर्ण पाखंड़ी मतों जिस स्तर पर बेनकाब हो रहे हैं उसके चलते एक अन्दरुनी क्रान्ति घटित हो रही है। यूरोप,अमेरिका ही नहीं पूर्वी बंगाल और पश्चिमी पंजाब-सिन्ध क्षेत्र से भी पढ़े-लिख सुसंस्कृत मनुष्य अपनी मूल संस्कृति के वास्तविक गुणों की ओर आकृष्ट हो रहे हैं। लेकिन इन हिंसाचारी महजबों को छोड़कर धर्म का आश्रय लेने के व्यक्तियों को धार्मिक समाज में कोई संरक्षण नहीं। पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल में बहुसंख्यक समाज से और भारत में अल्पसंख्यक समाज से धर्म की ओर आकृष्ट होने वाले मनुष्यों की सहायता के लिए कोई मत, संस्था उपलब्ध नहीं है। वे एक्स-मुस्लिम, फ्रीथिंकर जैसी पहचान या गुमनाम रहते हैं। सनातन धर्म के वर्णाश्रमान्तर्गत जातियों के स्तर पर इनकी घर वापसी के लिए कार्य-योजना बनाने की आवश्यकता है।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि वैयक्तिक स्तर पर हर सनातनी धर्म आश्रित भाग्यशाली जनों की और राजकीय नेतृत्व की यह जवाबदेही है कि वे अपना हर कार्य सनातन धर्मतंत्र के संवर्धन के लिए करें। और अगर वे ऐसा करते हैं, तो उनका दिशा-निर्देशन हमारे वैदिक श्रौत परम्परा का ज्ञान ही करेगा। यह हम जितनी प्रामाणिकता से कर पाएँगे, उतनी ही सहजता से हम धर्म के अवतरण को होता देखेंगे। 

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(नोट : सनातन धर्म, संस्कृति और परम्परा पर समीर ने हाल ही में अपनी पहली श्रृंखला पूरी की है। सात कड़ियों वाली उस श्रृंखला के बाद यह उस सिलसिले को कुछ और आगे ले जाने की कोशिश है। #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना के समय से ही जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।) 

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श्रृंखला की पिछड़ी कड़ियाँ 

7 – अधर्मसापेक्षता आत्मघाती है, रक्षा वैदिक यज्ञ संस्कृति से होगी
6 – क्या वेद और यज्ञ-विज्ञान का अभाव ही वर्तमान में धर्म की सोचनीय दशा का कारण है?
5 – नास्तिक मत आखिर कितने सनातनी?
4 – वैदिक यज्ञ परम्परा में पशु यज्ञ का वास्तविक स्वरूप कैसा है?
3 – सनातन वैदिक धर्म में श्रौत परम्परा अपरिहार्य क्यों है?
2 – सनातन धर्म क्या है?
1 – सम्पदायों के भीड़तंत्र में आख़िर सनातन कहाँ है? 

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