ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
कुछ मर्दों के सीने में न, जैसे कोई किरच होती है। इससे उनका दिल ऐसे ठंडा हो जाता है, जैसे बर्फ का लौंदा। लेकिन तारा ने जब नकुल से प्यार किया, तो खुद से एक वादा किया था कि अपने प्यार की गर्मी से उसके दिल में जमी बर्फ को पिघला देगी। और एक समय था, जब वह आँख बंद कर उस पर भरोसा कर लिया करता था। उसका तरीका बहुत आम था। इससे नकुल के सीने में छिपी लालसा तेज हो जाती थी। वह सीधी लेट जाया करती थी। अपने ऊपर नकुल को पूरी तरह स्वीकार कर लेने के लिए। यह देख नकुल को भी उस पर प्यार आ जाता। वह उसके ऊपर आता और फिर चरम पर पहुँचने के बाद निढाल होकर उसकी छाती से चिपक जाता। लेकिन तारा, वह फिर पलटकर पेट के बल लेट जाती। मानो नकुल को दोबारा बुला रही हो। नकुल भी खुद को रोकता नहीं। तेज ज्वार में दोनों फिर एकाकार हो जाते थे। वैसे, एक समय था जब तारा बच्ची थी। तब नकुल को उसके नाजुक अंगों को छूने से भी डर लगता था। वह भी कहती थी कि उसे दर्द होता है। पहले पहल बहुत तेज होता था। भयंकर किस्म का। लेकिन बाद में एकदम उल्टा हो गया। दर्द जब उसके लिए असहनीय हो गया, तो जैसे खत्म ही हो गया। अब तारा को दर्द से उठी अपनी कराहों में भी आनंद आने लगा था। नकुल के शरीर की पूरी ताकत वह अब अपने में खींच लिया करती थी।
“मज़ा आया तुम्हें?”
“तुमने तो ऐसे किया सब कुछ कि मुझे लगा जैसे मैं कोई वाहियात औरत हूँ”, उसने बड़ी सरलता से नकुल को जवाब दिया। उसकी भूरी आँखें तपती जमीन की तरह गर्मी छोड़ रही थीं। वह सीधे उसकी आँखों में आँखें डालकर बात कर रही थी। बिना लाग-लपेट के।
“तो इसीलिए तुमने अपनी नापसंदगी ऐसे निराले अंदाज में जाहिर की”, नकुल अपने कंधों पर उसके नाखूनों की खरोंच के निशान दिखाते हुए कहा।
“धत्”, तारा अब शरमा गई। फिर कुछ सँभलकर बोली, “नहीं.. नहीं! मेरा मतलब था कि मुझे कभी ऐसा महसूस मत कराना कि जैसे मैं कोई बेहूदी औरत हूँ।”
“माफ करना अगर मेरे कारण तुम्हे ऐसा महसूस हुआ हो तो”, नकुल की आवाज में विनती के साथ क्षमा-याचना का भाव भी था। इससे तारा का गुस्सा एकदम ठंडा हो गया।
वे दोनों आपस के विरोधी नहीं थे कि एक-दूसरे के साथ नोच-खसोट करें। उनकी जिंदगी तो पहले ही काफी मुश्किलों से भरी हुई थी।
“क्या कोई और बात तुम्हें परेशान कर रही है? तुम बता क्यों नहीं देते?”
“दिन भर तुम कहाँ थी?”, पूछते हुए नकुल की आवाज और देखने का लहजा दोनों ही बदल गया।
“तीसरी बार तुम मुझसे यह सवाल कर रहे हो नकुल। मैंनें तुम्हें कितनी बार कहा है कि मैं अपने भाई से मिलने गई थी। रोध मौत के मुँह में जाते-जाते बचा है। सिर्फ अंबा की वजह से आज वह जिंदा है। वह तुम्हारे बारे में पूछ रहा था। सोलोन की मौत के बाद से तुम अब तक उन लोगों से मिलने नहीं गए हो। मास्टर बाकर भी वहाँ थे। वे कह रहे थे कि उन्हें और लोगों की जरूरत है।”
“तुम खामखाँ मास्टर बाकर की जरूरत की परवा कर रही हो।”
“और तुम बेवजह उन लोगों की हँसी उड़ाते लग रहे हो। जबकि उन्होंने हमेशा हमारा भला ही किया है। हमारे साथ अच्छी तरह पेश आए हैं।”
“मुझे कोई परवा नहीं है तनु बाकर की। उससे कोई लेना-देना नहीं है मुझे। उसके या उन सनकियों के संगठन के बारे में भी मुझे अब कोई बात नहीं करनी।” उसने इतनी तेज आवाज में कहा कि तारा एकदम चौंक गई। ऊपर की तरफ देखने लगी वह।
“अरे, उसने सिर्फ इतना कहा है कि उनको और लोगों की जरूरत है। तुम्हें बगावत का रास्ता छोड़ देने का ख़याल मन से निकाल देना चाहिए।”
“उनको मेरे जैसे लोगों की जरूरत नहीं है। उनके पास है न वो लड़की”, नकुल की आवाज अव्यक्त भावनाओं की तीव्रता से काँप रही थी।
“क्या मतलब है इससे? और अगर तुम लड़ोगे नहीं तो करोगे क्या?”
“हम दूर चले जाएँगे कहीं। मैदानों की तरफ। वहाँ कामकाज कर लेंगे कोई। इस बेमतलब की लड़ाई से से दूर अपनी नई जिंदगी शुरू करेंगे। अब मैं हाथ में हथियार लेकर ऐसे और नहीं सो सकता।”
नकुल की बात सुनकर वह अनायास ही सिहर गई। लगातार संघर्ष की विभीषिका से उसका मन ऊब गया था। लेकिन सच्चाई यह थी कि उसे शहर से भी नफरत थी। एक बार वहाँ गया था वह। लेकिन अपने मिजाज के बिलकुल उल्टा पाया उसने शहर को। कंक्रीट का अंतहीन सा जंगल था। चारों तरफ गंदगी। बजबजाती नालियाँ, कूडे-करकट से भरे रास्ते-फुटपाथ।
“अपने लोगों को छोड़ दें? नहीं, कभी नहीं। ये ख्याल भी अपने दिमाग से निकाल दो।”
“क्यों नहीं? भगवान ने भी तो हमें यूँ छोड़ दिया है न?”
“अरे, ऐसा मत कहो।”
“हबीशियों के कोई भगवान-वगवान नहीं होते। मूरख ही उन्हें मानते हैं। उन पर भरोसा रखते हैं।”
“देखो, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। इसीलिए तुम ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो। खैर छोड़ो! ये बताओ, क्या तुम उस खास जलसे में चल रहे हो? वे दल का नया मुखिया चुनने वाले हैं।”
“वह बेवकूफाना जलसा है। गुमराह सनकी लोगों का।” वह इस वक्त ऐसे आदमी की तरह बोल रहा था जिसे लगता था कि उसकी जिंदगी पथरीली दीवारों के बीच कहीं फँस कर रह गई है।
“क्या कुछ भी अनाप-शनाप बोल रहे हो?”
“तुम्हीं तो सच सुनना चाहती थी न, कि नहीं? तो सुनो, मैडबुल के आदमियों से वे कभी नहीं जीत पाएँगे। हम कुछ नहीं कर सकते। हमारी हैसियत उन मुर्गियों की तरह है जो कटने के लिए बस, अपनी बारी आने का इंतजार कर रही हैं। सुअरों की तरह हम मार दिए जाने वाले हैं।”
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली कड़ियाँ
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