‘मानवरूपी दानव’ विकराल हो गया है, इसका विनाश होना ही चाहिए

अनुज राज पाठक, दिल्ली

हम लिखते हैं। किसलिए? क्या होगा लिखने से? लिखने-लिखाने से जो सूचनाएँ प्रसारित होती हैं, उन्हें देख-पढ़कर लोग भूल जाते हैं। कुछ तो पढ़ते ही नहीं। अन्तत: परिणाम यही कि सब जैसा है, वैसे ही चलता रहता है। पिछले सैकड़ों वर्षों से लिखने, लिखाने, पढ़ने, पढ़ाने, भूल जाने, अनदेखा करने का यह क्रम ऐसे ही चलता आ रहा है। और समाज अपनी गति से दिन-ब-दिन संवेदनहीनता की तरफ बढ़ता जा रहा है। 

मैं निराश हूँ। बच्चों, बुजुर्गों की दशा और जवानों की दिशा देखकर। सोचता हूँ कि हम में मनुष्य कहाँ हैं? महिलाएँ अपने शिशुओं अकेला छोड़कर छुटि्टयाँ मानने चली जाती हैं। वे जिन छुट्टियों के समय को जीवन का सबसे सुन्दर पल बताती हैं, उन्हीं पलों में उनके बच्चे भूख-प्यास से तड़प कर मर जाते हैं। ऐसे ही, जवान अपने बुजुर्ग माता-पिता को छोड़कर पैसे कमाने दूर चले जाते हैं। पीछे, उनके माता-पिता असहाय से बिस्तर पर पड़े-पड़े कंकाल हो जाते हैं। 

ऐसे में, हम आख़िर जीवन में कमाना चाहते क्या है? अन्तहीन धन? अनंत सुख? या असीम भोग? वास्तव में हम कुछ भी नहीं कमा रहे होते हैं। सब कुछ छोड़-छाड़ कर हम जो धन कमाते हैं, वह तो जीवित रहने के लिए अस्पतालों में ख़र्च कर देते हैं। बदले में न सुख मिलता है, न रिश्ते बचते हैं और न धन का उपभोग करने लायक शरीर बचता है। फिर क्यों सभी मूल्यों, संवेदनाओं, भावनाओं की शर्त पर धन कमाना? विचार करने योग्य है। 

अभी ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, जब दुनिया को कोरोना जैसी जानलेवा महामारी ने अपनी चपेट में लिया था। हर इंसान मौत को साक्षात सामने देखकर अपने-अपने घरों में महीनों तक दुबक कर बैठा रहा। तब इस डरे-सहमे मनुष्य को देखकर प्रकृति ने उत्सव मनाया था। उस उत्सव को देखकर एक पल के लिए यह भी लगा जैसे मानवरूपी कोई दानव कुछ समय के लिए कहीं जा छिपा हो और प्रकृति ने इससे थोड़ी चैन की साँस ली हो। 

लेकिन कोरोना का प्रकोप कम क्या हुआ कि इंसानी प्रकोप फिर बढ़ चला। तनिक से सुखों के लिए मानवीय रिश्तों से लेकर प्रकृति तक का शोषण फिर शुरू। इस सबके बीच संवेदनशीलता का ढोंग ऊपर से। उदाहरण के लिए अभी कुछ दिन पहले ही ‘पृथ्वी दिवस’ मना लिया। हर साल मनता है। लेकिन उससे हाेता क्या है? बदला क्या? कुछ भी नहीं। सब जैसा है, वैसा ही चल रहा है। इंसान इस पृथ्वी को जख्म पर जख्म दिए जा रहा है। 

अपनी गतिविधियों को सीमा में बाँध लेने का फ़ायदे उसने देखे। देखा कि पृथ्वी, प्रकृति और पर्यावरण को कैसे-कितने लाभ हुए। इंसान चाहता तो वहाँ से सीख लेकर अपनी गतिविधियों को दायरे में समेटने का सिलसिला आगे भी जारी रख सकता था। पृथ्वी को, प्रकृति को, पर्यावरण को साँस लेने की गुजाइश दे सकता था। लेकिन वास्तव में उसे उसके फायदे की पड़ी ही कहाँ है। अपने फायदों का भर ध्यान रहता है हर वक्त। 

यह सब देखकर कभी-कभी लगता है कि लगातार संवेदनाशून्य होती जा रही मानव जाति को अब नष्ट हो ही जाना चाहिए। मानव रूपी दानव विकराल हो गया है। इसका विनाश हो ही जाना चाहिए। 
—— 
(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)

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