“बापू, अब तो मुझे आत्मग्लानि होने लगी है। ख़ुद पर ही शर्म आने लगी है।”

ए. जयजीत, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 5/8/2021

अरसा हो गया। इतने वर्षों से बापू को एक ही पोजिशन में बैठे हुए देखते-देखते। झुके हुए से कंधे। बंद आँखें। भावविहीन चेहरा। कहने की जरूरत नहीं, उम्मीदविहीन भी। चेहरा भावविहीन तो उसी दिन से हो गया था, जिस दिन देश को दो टुकड़ों में बाँटने का निर्णय लिया गया था। निर्णय ग़ैरों ने लिया था। उस पर कोई रंज नहीं था। पर मोहर तो अपने ही लोगों ने लगाई थी। इतनी जल्दी थी आज़ाद होने की, बापू के विचारों से आजाद होने की? 

संसद अपने ही प्रांगण में लगी गाँधी प्रतिमा को देखकर कुछ यूँ ही सोच रही है। संसद को वैसे भी अब कुछ काम तो है नहीं। पक्ष-विपक्ष के सभी माननीय हंगामे में व्यस्त हैं तो संसद क्या करे? कुछ तो करे! तो इन दिनों वह वैचारिक चिन्तन में लगी है। वैसे भी जब आदमी निठल्ला हो जाता है तो चिन्तन में लग जाता है। और संसद को तो निठल्ला बना दिया गया है। 

तो संसद का चिन्तन जारी है। सोच रही है कि सालों पहले जब बापू को यहाँ बिठाया गया था, तब भी क्या ये ऐसे ही थे? क्या ये प्रतिमा तब भी इतनी ही गुमसुम-सी उदास थी? कंधे ऐसे ही झुके हुए थे? चेहरे पर इतनी ही वीरानगी थी?

“याद क्यों नहीं आ रहा?” संसद खुद पर भिन्ना रही है। अब क्या करें, वह भी बूढ़ी हो चली है। फिर ऊपर से अल्जाइमर का रोग अलग हो चला। भूलने का रोग। कई पुरानी बातें याद ही नहीं रहतीं। सन् 1947 से लेकर अब तक न जाने कितने वादे किए, उनमें से कितने पूरे हुए, कितने अधूरे रहे, कुछ याद नहीं। 

हमेशा की तरह संसद आज फिर बेचैन है। जब भी संसद सत्र चलता है, तब वह ऐसे ही बेचैन हो जाया करती है। दुखी भी।

तो दो दुखी आत्माएँ। एक इस तरफ़, दूसरी उस तरफ़। एक ही नियति को प्राप्त। दुखी आत्माएँ अगर आपस में बात कर लें तो मन हल्का हो जाता है, यही सोचकर संसद ने बापू को धीरे से पुकारा, “बापू, ओ बापू।” 

पर बापू कहाँ सुनने वाले। संसद से उठने वाले अन्तहीन शोर-शराबे, हंगामे, गाालियों, प्रतिगालियों को वे सुन न सकें। माइक फेंकने से लेकर कागज़ फाड़ने जैसी करतूतें नज़र न आ सकें, इसलिए उन्होंने सालों पहले से ही अपने कान और आँखें बन्द कर रखी हैं।

बापू ने जो सबक अपने तीन बन्दरों को सिखाया था, उनमें से दो का पालन वे ख़ुद बड़े नियम से करते हैं, “बुरा न सुनो, बुरा न देखो।” कहना तो 1947 के बाद तभी से बन्द कर दिया था, जब उनकी बातों का बुरा माना जाने लगा था।

संसद को शायद मालूम है ये बात। तो उसने धीरे से बापू की प्रतिमा को झिंझोड़ा। बापू को भी मालूम है कि उन्हें स्पर्श करने का साहस कौन कर सकता है। संसद ही। काजल की कोठरी में रहकर कालिख़ से कोई नहीं बच सका है, लेकिन माननीयों के साथ रहने के बावजूद संसद स्वयं में पवित्र है। यह छोटी उपलब्धि नहीं है।

तो बापू ने आंख बन्द किए ही पूछा, “बताओ, आज कैसे याद किया?” सालों बाद वे बोले, मगर इतना धीमे कि जिसे केवल संसद ही सुन सके। 

“बापू बहुत दिनों से बेचैन थी। सोचा आपसे बात करके मन को कुछ हल्का करूँ।” 

बापू मन में मुस्कुराए। बस, इसलिए कि बात ही कुछ ऐसी कर दी थी संसद ने।

“एक बेचैन आत्मा से बात करके तुम्हें क्या चैन मिलेगा?” बापू ने फिर धीरे से पूछा।

“आपने तो मुँह, आँख, कान बन्द कर लिए। लेकिन मैं क्या करूं? अपने मुँह, आँख, कान बन्द कर लूँ, तब भी संसद में उठने वाले तूफानी हंगामे से काँप उठती हूँ। क्या करूँ मैं?” संसद ने सवाल किया।

“अगर इसका जवाब मेरे पास होता तो मैं ख़ुद यहाँ यूँ न बैठा रहता, मूर्ति बनकर।” बापू ने क्षोभ से कहा। 

“पर बापू, इनमें से कई आपके पुराने अनुयायी हैं। कई नए भक्त भी बने हैं। आए दिन आपका नाम लेकर कसमें खाते हैं। मैं जानती हूँ, सब झूठी कसमें हैं। फिर भी उन्हें एक बार तो अपनी कसम याद दिलवाइए। क्या पता, उसी से उनकी अन्तरात्माएँ जाग उठें।”  संसद ने बड़ी ही मासूमियत के साथ यह बात कही।

“इतनी भोली भी मत बनो। माननीयों को सबसे ज़्यादा करीब से तो तुम्हीं ने देखा है। फिर भी ऐसी तर्कहीन बात। असत्य के साथ नित नए-नए प्रयोग करने वाले ये लोग मेरी बात सुनेंगे? इन्होंने तो अपने ही तीन बन्दर र लिए हैं- अच्छा मत सुनो, अच्छा मत देखो, अच्छा मत कहो।” 

“बापू, अब तो मुझे आत्मग्लानि होने लगी है। ख़ुद पर ही शर्म आने लगी है।” 

“ये तो सदा से रीत चली आ रही है?” 

“कैसी रीत बापू?” 

“जब घर के बच्चे बेशर्मी पर उतर आते हैं तो शर्म से गढ़ने का काम उस घर की दीवारों के ज़िम्मे ही आ जाता है। यही ज़िम्मा तुम निभा रही हो। पर तुम ख़ुद को दोष मत दो।” 

“पर आप भी ख़ुद को ही दोष देते हैं? मैं सालों से देख रही हूँ कि 15 अगस्त आते ही आपका चेहरा और भी पार्थिव जैसा हो जाता है। ऐसा लगता है मानो, पुराने दिन याद करके आपके मन में वितृष्णा-सी भर आई हो।” 

“अब मैं कुछ कहूँगा तो तुम कहोगी कि फिर वही घिसी-पिटी बात कह दी।” 

“कह दो बापू। अब हमारे पास कहने के सिवाय बचा ही क्या है। कह दो, मन हल्का हो जाएगा।” 

“बस, यही कि अगस्त पास आते ही जी घबराने लगता है। आज़ादी की जो लड़ाई लड़ी थी, वह व्यर्थ लगने लगती है…”; कहते कहते बापू का गला थोड़ा भर्राने लगा।

कुछ देर मौन। फिर खुद को सँभालते हुए बोले, “तुम कहाँ बैठ गई फ़ालतू बातें लेकर, जाओ तुम यहाँ से।” 

वे कुछ और फ़ालतू बात कर सकें, इससे पहले ही संसद को कुछ आहट सुनाई दी। संसद ने तुरन्त बापू को अलर्ट किया, “बापू सावधान! कुछ माननीय हाथों में तख़्ती लिए, नारे लगाते हुए आपकी शरण में आ रहे हैं। लगता है कुछ घंटे आपके साथ ही बैठेंगे।” 

और बापू फिर पहले वाली मुद्रा में आ गए।

संसद के सामने तो फिलहाल कोई रास्ता नहीं है, अपनी किस्मत को कोसने के सिवाय…
——
(ए. जयजीत देश के चर्चित ख़बरी व्यंग्यकार हैं। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी के आग्रह पर ख़ास तौर पर अपने व्यंग्य लेख डायरी के पाठकों के उपलब्ध कराने पर सहमति दी है। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इसके लिए पूरी डायरी टीम उनकी आभारी है।)

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