विकास, दिल्ली से 10/5/2021
दिल्ली। साल 2021, मई का महीना, 10 तारीख। बीती रात बारिश हुई है। इसे बारिश कहना गलत होगा। बादलों ने धधकती दिल्ली के कलेजे पर थोड़ा पानी डालकर उन्हें ठंडा करने की कोशिश की है शायद। अख़बारों में मौसम, मानसून की ख़बरें एक या दो कॉलम में दिख जाती हैं। अभी सवेरे हवा चल रही है। हवा में ठंडक है। लेकिन ये हवा पहली बार कुछ अलग-सी महसूस हो रही है। गोया इसमें कोई चीत्कार समाया हो।
चीत्कार पर नकारात्मकता का ठप्पा है। आजकल हर कहीं से नकारात्मक समाचार मिल रहे हैं। बावजूद इसके हर कोई सकारात्मक रहने की हिदायत दे रहा है। यह फैशन-सा हो गया है। नकारात्मक न सोचें। नकारात्मक वातारवरण न फैलाएँ। अख़बार भी सकारात्मकता के पीछे भाग रहे हैं। ख़ुद को दुनिया का ‘सबसे बड़ा’ बताने वाला एक दैनिक तो हर सप्ताह पॉज़िटिव विशेष ही निकालता है। यानी ख़ासतौर उस दिन सब सकारात्मक। मानो उस रोज कहीं कुछ नकारात्मक घटता ही न हो। लेकिन हम संभवतः यह भूल गए हैं कि नकारात्मकता को स्वीकार किए बिना हम सकारात्मक वातावरण कैसे बना पाएँगे?
आज यदि इस हवा में मुझे चीत्कार सुनाई देती है, यह मुझे काट खाने को दौड़ रही है, तो इसमें इसका कुसूर नहीं है। कुसूर मेरा है। चीत्कार, असल में मेरे भीतर है। दबी हुई। यह हवा उस चीत्कार को तो बस ध्वनि दे रही है। सामने किसी घर से हवा से हिल उठीं जिंगल बेल्स के बजने का स्वर सुनाई दे रहा है। यह स्वर जैसे कह रहा है कि इस घर में क्या अब कोई भी नहीं है? यह स्वर मुझे डरा रहा है।
हो सकता है कि यह मनोदशा केवल मेरी न हो। क्योंकि इस महामारी ने केवल मुझसे मेरे अपनों को नहीं छीना है। सारे देश में यही हालात हैं। दुनियाभर में यही हालात हैं। मेरे कानों में रह-रहकर कुछ आवाज़ें गूँज उठती हैं। मैं नींद से हड़बड़ाकर उठ बैठता हूँ। एक किताब उठाता हूँ। पाँच-सात पन्ने पढ़ता हूँ और उसे रख देता हूँ। फिर कोई दूसरी किताब उठाता हूँ। दो-चार पन्ने पढ़कर उसे भी रख देता हूँ। मन टिकता नहीं है। बेचैनी बढ़ती जाती है।
फ़ोन में कुछ देखने की कोशिश करता हूँ। वह भी नहीं देख पाता हूँ। आखिरकार सब बन्द कर, घोर अन्धकार का आलिंगन कर, एक करवट पर लेट जाता हूँ। करवट इस तरह लेता हूँ कि सूर्योदय की पहली रश्मि के साथ ही उस अन्धकार को सूर्य के उस गोले में फेंक दूँ।
सूर्योदय से पहले ही आँख खुल जाती है। मैं सूरज की राह देख रहा हूँ और पहली रश्मि के साथ अपने भीतर दफ़्न अन्धकार को भाला बनाकर सूरज की ओर फेंक देता हूँ। सामने सूरज मुस्कुराते हुए उस अन्धकार को खा जाता है। मैं काल का ग्रास बनने से बचा हुआ हूँ। अन्धकार को सूरज का ग्रास बनाकर।
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(विकास #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्य हैं। दिल्ली में एक निजी कंपनी में काम करते हैं। लिखना-पढ़ना ही इनका पेशा है।)