संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 8/5/2021
सामने एक मराठी परिवार था, जिसमें एक बुजुर्ग साथ रहते थे। बाद में मालूम पड़ा कि वे अकेले ही थे। जीवन संग्राम अकेले ही लड़ते रहे और अपना जीवन परिजनों के सुख के लिए समिधा बना दिया। एक कड़कती बरसात की रात में देह छोड़ गए। अगले दिन सुबह जब हम सब लोग भीगते हुए श्मशान पहुँचे। सूखी लकड़ियों पर देह रखी। लेकिन शाम तक वह जल नहीं पाई। आख़िर अधजली देह को छोड़कर आ गए। कहते हैं, जो जीवन में अकेले रह जाते हैं, उन्हें अन्तिम समय में जलाने से अग्नि देव भी मना कर देते हैं।
एक बुजुर्ग हैं। उनके छह बच्चे हैं। पत्नी के निधन को 50 साल हो गए लगभग। सब है- सम्पत्ति, नगदी पर आए दिन बच्चों के पास घूमते रहते हैं, एक बोझ की तरह। एक बूढ़ी महिला को देखता हूँ, जो अपने ही घर मे क़ैद कर दी गई है। उनके कमरे में कुछ रूखे टोस्ट होते हैं, परमल और माह में एकाध बार उन्हें गीले चावल नमक डालकर दे दिए जाते हैं। उनके कमरे में रखा सूखा खाना भी चूहे खा जाते हैं। वह रोज अपने परमात्मा से प्रार्थना करती हैं कि उसे उठा लें पर “निर्दयी ईश्वर उन्हें नहीं उठा रहा।”
घर की छतों पर, अन्धेरे बन्द कमरों में, सीलन भरी छतों के नीचे मच्छरों, कीड़ों और चींटियों की प्रताड़ना सहते असंख्य एकल लोगों को देखता हूँ। वे कभी समाजोपयोगी रहे। हँसते, खेलते, मुस्कुराते और अपनी उपस्थिति से सबको भाव-विभोर कर देने वाले। परन्तु अब वे स्वयं भी अपने को इतना बोझ समझने लगे हैं और चिन्तित रहते हैं कि हफ्तों खाना भी नहीं खाते। कोई यदि मनुहार करके खिला दे तो खाने पर पेट भी बगावत कर देता है और सारा अन्न तुरन्त बाहर फेंक देता है।
यह दृश्य घर-घर से लेकर बड़े बड़े वृद्धाश्रमों में देखता हूँ। मौत के लिए करुणा के आप्त स्वरों की पुकार की लम्बी श्रृंखला है, जो धरती के हर कोने से स्वर्ग नरक तक पंक्तिबद्ध है। लेकिन हर कही सन्नाटों की वृहद गूँज है और कहीं से ज़वाब नहीं आते। एक मातम हर जगह पसरा है। मौत की राह तकती नज़रें बेबस हैं और संसार के ये एकल स्त्री-पुरुष इतनी भीड़ में भी बेहद अकेले हो गए हैं।
कोई-कोई हिम्मत वाले होते हैं, जो हर तरफ से थक-हारकर खुद ही कड़ा दिल करके मौत को आलिंगनबद्ध कर लेते हैं। अपने अकेलेपन से मुक्ति पा जाते हैं। और इस शाश्वत तरीके की पुरजोर वकालत भी करते है, क्योंकि काँपते हाथ-पाँव, कमज़ोर नजरों, लड़खड़ाती जीभ, खत्म हो चुकी घ्राण और श्रव्य शक्ति के साथ स्मृतियों को याद कर-करके बरबस रोने लगते हैं।
उन्हें अपने से बिछड़ कर संसार के दानावल में भस्म हो चुके माँ-बाप याद आते हैं। वे हर दोस्त और उस शख्स को याद करके रोते रहते हैं, जो जीवन के किसी मोड़ पर आया, टकराया, मिला और विशाल भीड़ में खो गया। एकांत में जब वह सब याद आता है तो फिर सोच और शक्ति पर कोई नियंत्रण नही रहता। बेलगाम सी उद्दाम वेग से स्मृतियाँ बेख़ौफ़ होकर रेत सी छूटती हैं और इस यात्रा के अन्त में जो नज़र आता है, छोर पर, वो है सिर्फ मौत।
एकल संसार में चुके हुए लोगों की भीड़ में एक जोड़ हाथ कमज़ोर नजरों के साथ आज और उठ गए हैं। एकांत में कोलाहल और चीत्कार के बीच विलोपित होने को बेचैन एक देह ने आज फिर व्योम में प्रार्थना के स्वरों में बहुत कोमल आवाज़ में पुकारा है कि “हे ईश्वर यदि कहीं हो तो मुझे सच में अपने पास बुला लो। यह अकुलाहट अब सहन-शक्ति के बाहर है।”
इन प्रार्थनाओं के मुखर स्वर मेरे चारों ओर गूँजते हैं और मैं इनमें एकाकार होते जाता हूँ। होठों पर बुदबुदाहट है और आँखें बन्द होती जा रही हैं। आवाज़ें क्षीण हो गई हैं। अपने भीतर मन्द्र सप्तक में अपनी ही बेचैनियों की घरघराहट सुनने की कोशिश में पाँव ठंडे पड़ गए हैं। साँस धौंकनी की तरह तेज हो गई है। पसीने को पूरी देह पर महसूस कर रहा हूँ। लगता है, प्रार्थनाएँ सफल हो गई हैं।
मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता। अभी इस पल में, जो दुर्दैव से आया है, में समाप्त हो जाना चाहता हूँ।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की नौवीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियां यहाँ पढ़ी जा सकती हैं :
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!