निकेश जैन, इन्दौर मध्य प्रदेश
अभी 70 या 90 घंटों की बात तो भूल जाइए। मैंने हफ़्ते में 100 घंटे भी काम किया है। वह भी लगाताार 6 महीने तक। मगर उसका ‘हासिल’ क्या? रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) को नियंत्रित रखने की दवाइयाँ, ज़िन्दगीभर के लिए! मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ। मेरे मामले में यह हुआ है। हालाँकि यह इक़लौता ‘हासिल’ नहीं था।
साल 2007 की बात है। मैं एओएल (अमेरिका ऑनलाइन) में प्रबन्धक हुआ करता था। मुझे पर्यटन से जुड़े वेबपोर्टल को प्रबन्धित करना था। उस पोर्टल को पूरी तरह बदले जाने की ज़रूरत थी। उसे नए सिरे से यूँ बनाया जाना था कि स्थान दिग्दर्शिका (डेस्टिनेशन गाइड) की तरह वह लोगों के काम आ सके।
इस बाबत मैंने अनुमान लगाया कि पूरे काम में 18 महीने लग जाएँगे। यह बात मैंने जब अपने शीर्ष नेतृत्त्व को बताई तो उन्होंने कहा कि इस काम को पूरा करने के लिए हमारे पास अधिकतम 6 महीने ही हैं। मैंने तब साफ मना कर दिया कि इतने समय में यह काम नहीं हो सकता। तब मेरे भारतीय ‘बॉस’ ने दबाव बनाया कि नहीं, काम तो करना ही होगा। और निर्धारित 6 महीने की समय-सीमा के भीतर ही करना होगा।
मैं आज यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि उस वक़्त मेरे भारतीय ‘बॉस’ निश्चित रूप से अमेरिकी प्रबन्धकों की हुक़्म उदूली कर रहे थे। ख़ैर, अपने सामने कोई चारा न देखकर आख़िरकार मैं और मेरी 13 सदस्यीय टीम जुट गई उस काम को पूरा करने में। उस प्रक्रिया के दौरान हम सबका काम सुबह 9.00 बजे शुरू होता था और देर रात 2.00 बजे तक चलता रहता था। सप्ताहान्त और छुट्टी के दिनों में भी यही क्रम।
हमने अन्तत: निर्धारित 6 महीने में ही उस काम को पूरा कर लिया। मगर इस सब में मेरा ही नहीं, टीम के अन्य सदस्यों का स्वास्थ्य भी ख़राब हुआ। हम में से कई लोगों को जीवनभर के लिए अब किसी न किसी बीमारी की दवाई लेनी पड़ रही है। साथ ही, तब हमारे आपसी सम्बन्ध ख़राब हुए, वह नुक़सान अलग। क्या हमें इससे फ़ायदा भी हुआ होगा? तो इसका ज़वाब भी ‘नहीं’ ही है। हमें पैसों का भी लाभ नहीं हुआ।
फिर आख़िर हमने यह सब क्यों किया? ज़वाब पहले ही दिया जा चुका है। हमारे सामने कोई चारा नहीं था। हमारे भारत के ‘बॉस’ अमेरिकियों प्रबन्धकों के आदेश मान रहे थे। हम सब जानते थे कि अगर यह काम हम लोगों ने नहीं किया तो कोई और करेगा। तो बेहतर है कि हम ही कर दें। वैसे, मैं ऐसी मेहनत और चुनौतियों के पूरी तरह ख़िलाफ़ भी नहीं हूँ। मैं हमेशा से कठोर परिश्रम करने वाला पेशेवर रहा हूँ।
लेकिन यहाँ अपने अनुभव से मैं अब कह सकता हूँ कि हमें अपने आप को ऐसी परिस्थिति में झोंकने से पहले ख़ुद से एक सवाल पूछना चाहिए कि बदले में मुझे क्या मिलेगा? ज़वाब के लिए मैं अपना एक अनुभव और बताता हूँ। मैंने एक नई-नवेली कम्पनी (स्टार्ट-अप) में हर सप्ताह 70 घंटे के हिसाब से भी काम किया है। बदले में उससे मुझे काफी वित्तीय लाभ हुआ, क्योंकि मैं उस कम्पनी में साझेदार था। मुझे ही नहीं, कम्पनी से जुड़े सभी लोगों को वित्तीय लाभ हुआ क्योंकि सबकी ऐसी ही मेहनत से कम्पनी के शेयरों की कीमतें बढ़ गईं।
तो अब सप्ताह में 100 घंटे की गई सालों पहले की उस मेहनत का दूसरा ‘हासिल’ ज़िन्दगीभर का एक सबक – अपनी लड़ाई को समझदारी से चुनिए। हर लड़ाई 100 फ़ीसद लड़ने के लिए नहीं होती।
#90HoursWorkWeek
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निकेश का मूल लेख
Forget 70 hours OR 90 hours, I have worked ~100 hours a week and that too consecutively for 6 months!
What did I get in return – a BP pill for life 😉 !
I am not kidding – this is what exactly happened.
Year 2007, I was a first time manager at Aol (America Online) joined to mange their travel portal. Product wanted to rehaul the entire portal and convert it to a destination guide.
I estimated the entire effort and said it would take around 18 months! They said we have just 6 months! I said, can’t be done but the pressure came from Indian leadership (which I am sure was just following their US bosses orders).
My 13 member team worked day and night – my day would start at 9am and would end at 2am – every day including weekends and holidays.
We managed to deliver but in the process destroyed our health and in some cases relationships!
Was it worth it? I don’t think so. We didn’t get any monetary benefits.
Why did we do it? There was no choice left – Our Indian leadership would just follow the orders from their US counterparts. Everyone knew if they didn’t do it someone else would.
I am not against such efforts. I am a hardworking professional and I don’t shy away from my commitments. But I would suggest ask one question – what’s in it for me?
I did a similar effort (close to 70 hours) for a startup. This time I was a stakeholder and we all benefitted financially for that effort because our stock value skyrocketed 💰 💵 💲
So pick your battles smartly – not every battle is worth fighting.😎
Thoughts?
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(निकेश जैन, कॉरपोरेट प्रशिक्षण के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी- एड्यूरिगो टेक्नोलॉजी के सह-संस्थापक हैं। उनकी अनुमति से उनका यह लेख अपेक्षित संशोधनों और भाषायी बदलावों के साथ #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। मूल रूप से अंग्रेजी में उन्होंने इसे लिंक्डइन पर लिखा है।)
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