लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 15/5/2021

एक संतरा सामने है, एक सेवफ़ल, एक बड़ा सा पपीता, एक कीवी, कुछ बेर रखे हैं। मैं सोचता हूँ कि आज भोजन न करूँ। इन चीज़ों से अपनी क्षुधा मिटाऊँ। आम का मौसम नहीं है। इसलिए थाली से आम गायब है। केले बाजार में बहुतायत में है पर मुझे पसंद नहीं। उनकी तासीर मेरे जिस्म से मेल नही खाती। अमरूद मौसम में बहुत खाए और अब जामुन का इन्तज़ार है।

संतरा छीलता हूँ तो उसके छिलकों से जो रस निकलता है, उससे आँखों में पानी आ जाता है। फिर भी छीलता हूँ। आहिस्ते से हर फाँक के रेशे निकालता हूँ। हर फाँक को खोलकर बीज बाहर निकालता हूँ। फिर मुँह मे रखकर उसका रस चूसता हूँ। कुछ फाँक बगैर बीज के निकलती हैं पर उनमें रस उतना ही होता है, जैसे अन्य में। मन विचलित होता है। जो सामने है उसे पाकर सन्तुष्ट नहीं। आम और जामुन का इन्तज़ार है। अमरूद और बाकी जो उपयोग कर लिया उसकी भी सन्तुष्टि नहीं है। क्या ये जीवनानुभव किसी और समझ के परे है, जो नजरिया विकसित करते हैं। पता नहीं, पर इच्छाओं का कोई ठौर नहीं। 

पपीता काटता हूँ तो पूरी सावधानी के बाद भी कहीं-कहीं छिलका रह जाता है, जो कसैले स्वाद के रूप में आता है, जब चबाता हूँ तो। कभी ढेर बीज निकलते हैं। कभी बिल्कुल नहीं। पीला ज़र्द होने के बाद भी मिठास नहीं होती या फीके स्वाद से भरा होता है अक्सर। कभी इतना मीठा कि लगता है, बस सब कुछ ऐसे ही बना रहे जीवन के आरोह-अवरोहों में। 

सेवफल का अपना सबब है। बीज तो लगभग सबमें हैं पर जो गूदा है उसका, वह हरेक के भीतर जुदा-जुदा है। जब मैंने छिलके के रंगों को भी देखा तो सहसा यकीन नहीं हुआ कि हम सेवफल का सामान्यीकरण कर लाल सेब कह देते हैं, जो कि सर्वथा अनुचित है। लाल और क्रीम रंगों में गुँथा यह छिलका इतनी विभिन्नताएँ लिए हुए है कि हम लाल कह ही नहीं सकते।

बेर तो ख़ैर बहुत ही उपेक्षित से फल हैं, जिनका मोल भीड़ में ही आँका जाता है। एकांत में कांटों के बीच सूनी सड़कों पर बगैर पानी और देखरेख के खड़ी झाड़ियाँ कितनी ढिठाई से खड़ी रहती हैं। पर फ़ल आने पर उसमें काँटों की परवाह किए बगैर कोमल और मेहनतकश अंगुलियाँ घुस जाती हैं और तोड़ लाती हैं, खट्टे मीठे अनुभवों का संसार। 

अपने कमरे के बरक्स यह सब सोचता हूँ तो लगता है, क्षुधा ने कहाँ से कहाँ लाकर छोड़ दिया। जब माँ थी, तो कभी भूखा रहा हूँ याद नहीं पड़ता। अपने ब्रेन ट्यूमर के ऑपरेशन के समय रात को भी पूछा था उसने, “खाना खा लिया।” मन नहीं था पर कभी झूठ नहीं बोला था माँ से। वो समझ गई। उस अस्पताल के कैन्टीन से सैंडविच मँगवाया और खिलाया। जब तक पूरा नहीं खा लिया, देखती रही। चार घंटे बाद उसका दुष्कर ऑपरेशन होना था और शायद वही मेरे जीवन का आख़िरी भोजन था। न माँ रही और न मैं खाने लायक रहा। सन्ताप, अवसाद और तनाव ने शरीर को मधुमेह का स्थाई घर बना दिया।

अब ये फल, कड़वे काढ़े, दवाईयाँ, पक्षी भोजन और परहेज ही जीवन का पर्याय है। पर अपने एकांत में बहुत गहन चिन्तन-मनन करता हूँ। संयम, अनुशासन और अपने आपसे जूझते हुए शरीर को ऊर्जा देने वाले भोजन के बारे में सोचता हूँ। प्रायः भूख से अपने को प्रताड़ना देता हूँ। कबीर कहते हैं, “क्या तन माँजता रे, एक दिन माटी में मिल जाना…” 

इस सबमें एकांत बहुत जँचता है मुझे। लगता है कि यह एक चरम अवस्था है, सोच-विचार और दृढ़ संकल्पों की। पर इसी काया में मोक्ष मिलने की बात, द्वैत-अद्वैत, सगुणी-निर्गुणी, आस्तिक-नास्तिक के द्वन्द्वों में फँसा खिलन्दड़ जीवन अब इस सबसे बुरी तरह ऊब गया है। वीतरागी बनकर यहाँ से निकलकर अपनी गाढ़ी नीले रंग में डूबी दीवार में समा जाना चाहता हूँ।

हिम्मत बहुत बटोर ली है। अन्तर्मुखी संसार में किसी का भी प्रवेश वर्जित है। शब्द-आडंबरों से दूर होकर, सब तिक्त कर विलोपित होने की हिम्मत आ गई है। लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है। साँसों की धुरी पर स्पन्दित होता जीवन दो बाँस के डंडों में बँधी रस्सी पर अटका है। अब गिरे कि तब। 

और फिर…. जैसे पाँख गिरे तरुवर के …..

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 10वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली  कड़ियाँ  ये रहीं : 

नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…

आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…

सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे

छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो 

पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!

चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा

तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!

दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…

पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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