अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 13/4/2021
पिछली तीन कड़ियाें में चार्वाक दर्शन के बारे में थोड़ा कुछ जानने-समझने की कोशिश की। जबकि उससे पहले दो कड़ियों में इन प्रश्नों पर विचार किया कि भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी? और परम ब्रह्म को जानने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? आज इसी दूसरे प्रश्न से सिलसिला आगे बढ़ाते हैं।
स्वयं को जानना मतलब आत्म का साक्षात्कार करना। आत्म के साक्षात्कार के बाद परमात्म के मार्ग का अन्वेषण। लेकिन प्रश्न ये है कि सबसे पहले तो स्वयं को जानना ही कैसे हो? जानने का उपाय क्या है? जब यह प्रश्न आता है तो भारतीय मनीषा कहती है कि ज्ञान का आदि या मुख्य स्रोत “वेद” है। उस वेद को जानें। उसकी बातें मानें। ज्ञान मिल जाएगा। दरअसल, ‘वेद’ शब्द का अर्थ ही है “ज्ञान”। वेद स्वयं ज्ञानभूत है। जब वेद के वचन जानने लगेंगे तो ज्ञान मिल जाएगा। आत्म के साक्षात्कार का क्रम भी शुरू हो जाएगा।
वैसे यहाँ सवाल हो सकता है – ऐसा क्यों कि वेद समस्त ज्ञान का स्रोत है? तो इसका उत्तर ये है कि वेद को ईश्वरीय वाणी माना जाता है। इसके विषय में कहा गया है कि वेद अपौरुषेय हैं। इन वेदों को किसी मनुष्य ने नहीं लिखा है। ये केवल देखे गए हैं। वह भी सामान्य व्यक्तियों द्वारा नहीं, अपितु ऋषियों के द्वारा वेद मंत्रों का साक्षात्कार किया गया है। और ये ऋषि कौन हैं? ऋषि, जो तपोनिष्ठ, सत्यनिष्ठ। जो ज्ञान और संसार में पारंगत। जिसकी मेधा, जिसका ज्ञान वेद मंत्रों का साक्षात्कार करने में सक्षम हो चुका हो, वह ऋषि।
लिहाज़ा अब यह भी देखने की जरूरत है कि मंत्र क्या है? मंत्र वह है जिसके मनन से, चिन्तन से एवं ध्यान करने मात्र से संसार के समस्त दुःखों से रक्षा होती है। मुक्ति मिलती है और परम निर्मल आनन्द की प्राप्ति होती है।
मंत्र एक तरह का पवित्र पाठ भी है। एक नियंत्रित, निश्चित एवं व्यवस्थित उच्चारण क्रम है, जो असीम ऊर्जा का धारण और संचार करता है। वेद के एक भाग को भी मंत्र कहा जाता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की एक संज्ञा मंत्र भी है।
तो इस तरह ज्ञान यानि आत्म से परमात्म को प्राप्त करने का यह एक तरह का सूत्र है। इन सूत्रों को ऋषियों ने सुलझाया। फिर उन्होंने प्राप्त ज्ञान को लिपिबद्ध किया। ताकि प्राणिमात्र का कल्याण हो सके।
इस सूत्र को हम भी आजमा सकते हैं। क्योंकि अन्तत: हम सभी को मुक्ति चाहिए। मोक्ष चाहिए। जीवन-मरण के चक्र से छुटकारा चाहिए। और फिर यही समस्त दर्शनों का भी तो लक्ष्य है। आत्म से परमात्म तक की यात्रा। स्वयं को ईश्वर में समर्पित कर देना। उनमें ही विलीन कर देना।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की छठवीं कड़ी है।)
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