“अगर मैं एक शब्द में श्रीनिवास रामानुजन को समाना चाहूँ तो कहूँगा, ‘भारतीयता’।”

देवांशु झा, देवघर, झारखंड से

यह बड़ी अजीब सी बात है कि साहित्यिक होते हुए भी मैं किसी कवि या लेखक की जीवनगाथा पढ़कर उतना द्रवित कभी न हो सका, जितना श्रीनिवास रामानुजन के बारे में पढ़ते हुए होता रहा। रामानुजन का छोटा सा जीवन शीत की कुहेलिका में डूबे किसी दिव्य सरोवर सा है, जो क्षण-क्षण अपना रूप खोलता है। उसमें अनिर्वच काव्यात्मकता, करुणा, ताप, आह और आनन्द है। उस सरोवर में उतरना तो हम जैसे मनुष्यों के लिए असम्भव ही है- उसकी दिव्यता को छू भर लेना ही हमारे लिए परमाद्भुत रत्न को पाने जैसा है।

उनके जन्म की कहानी, बचपन की विस्मयकारी प्रज्ञा, बहुत छोटी उम्र में उनके द्वारा पूछे गए गूढ़ प्रश्न और धीरे-धीरे गणित में धँसते हुए कुछ विलक्षण सोचना या करना, यह सब अपवादात्मक या प्रतीयमान ही है। रामानुजन की दिव्यता का आभास यों तो छोटी आयु से ही होने लगता है तथापि उनकी अपूर्व प्रतिभा का प्राकट्य 13-14 वर्ष की उम्र में होता है, जब वे लोनी की त्रिकोणमिति की पुस्तक को समाप्त करते हुए उसके कुछ प्रमेयों का विस्तार कर जाते हैं। तब तक वे अनभिज्ञ हैं कि दुनिया उन प्रमेयों पर काम कर चुकी है। उस समय तक तो रामानुजन किसी अनजान गिरिगेह के शून्य में बैठे थे, जहाँ से कुछ प्रकाशित होना या विश्व में गणित पर होने वाले कार्यों को जानना असम्भव था।

रामानुजन की एकाधिक चिट्ठियाँ मेरे मन को विकल करती हैं। जब वे मद्रास में रामास्वामी अय्यर से अरज करते हैं या कैंब्रिज के प्रख्यात गणितज्ञ जीएच हार्डी को अपने प्रमेय भेजते हुए किसी दैवीय विश्वास से भरे हुए दीखते हैं। हार्डी को एक पत्र में तो वे यहाँ तक कहते हैं कि उन्हें अपने मस्तिष्क या बुद्धि को बचाए रखने के लिए फिलहाल भोजन की आवश्यकता है, क्योंकि वह अध-भुखमरी की हालत में जी रहे हैं। उनके द्वारा भेजे गए प्रमेयों पर हार्डी की मुहर उन्हें मद्रास यूनिवर्सिटी या सरकारी छात्रवृत्ति दिलाने में कारगर होगी।

बीसवीं सदी में भारत और विश्व के सम्पूर्ण बौद्धिक पटल पर एक अर्थ में रामानुजन सा मनुष्य दूसरा न हो सका। ऐसा इसलिए कि वे तर्क और अध्यात्म के तत्त्व का जो अंतर्दृष्टिमूलक विपर्यय है- उसे एक साथ साधते हैं। एक ओर उनकी विलक्षण मति है जो प्रतिपल कुछ नवीन और प्रातिभ तेज से सामने वाले को हैरान करती है। दूसरी तरफ़ उनका अध्यात्म है, जो उनकी मेधा को उर्जस्विता प्रदान करता है। बल्कि वह मेधा उसी आध्यात्मिक आभा, अंत:प्रज्ञा से मंडित है। उन्होंने अपने कई प्रमेयों पर बात करते हुए कहा था कि यह देवी नामगिरि ने स्वप्न में आकर बतला दिया था।

यह बात भी दीगर है कि रामानुजन कई बार अर्द्धरात्रि में नींद से उठकर गणित के प्रमेय लिखने लगते थे। गणित जैसे गूढ़ विषय पर आधुनिक विश्व में ऐसा कोई दूसरा धुरंधर नहीं दीखता जो अपने प्रमेयों को ‘कुलदेवी का प्रसाद’ कहता रहा हो। जर्मनी के रीमान एक और महान गणितज्ञ थे जो आध्यात्मिक प्रभा से दीप्त थे। रामानुजन कहा करते थे, “यदि कोई गणितीय समीकरण या सूत्र किसी भगवत विचार से मुझे नहीं भर देता तो वह मेरे लिए निरर्थक है।”

रामानुजन और उऩकी माता का जीवन आध्यात्मिक चिन्तन से अन्तर्गुंफित है। माना जाता है कि रामानुजन की माता ने एक स्वप्न देखा था कि उनका पुत्र यूरोपीय लोगों से घिरा हुआ है और देवी नामगिरि उन्हें आदेश दे रही हैं कि वह अपने पुत्र की यूरोप यात्रा में बाधा न बनें। एक कथा यह भी है कि रामानुजन अपनी कुलदेवी के मन्दिर में तीन रातों तक सोते रहे। दो दिनों तक तो कुछ नहीं हुआ। तीसरी रात को वे नींद से जागे और उन्होंने नारायण अय्यर को यह कहकर जगाया कि देवी ने उन्हें विदेश जाने का आदेश दिया है।

रामानुजन की माता बहुत महत्वाकांक्षिणी थीं। उन्होंने अपने पुत्र के गणित प्रेम को उनकी जीवन सहचरी पर प्रश्रय दिया। पत्नी, जानकी अम्माल रामानुजन के लिए कुछ विशेष न कर सकीं। विवाह के बाद के कुछ वर्षों तक जीवनधर्म के प्रति वह वीतरागी ही रहे। बाद में इंग्लैंड प्रवास के कारण पत्नी से दूर ही हो गए। जब बीमार होकर भारत लौटे तो कुछ महीनों तक पत्नी के साथ रहे। तब जानकी अम्माल ने उनकी बहुत सेवा की। उन दिनों में वे विह्वल होकर कहते थे कि अगर तुम मेरे साथ रही होतीं तो मैं बीमार न हुआ होता!

इंग्लैंड में उनके साथ काम करते हुए प्रख्यात गणितज्ञ प्रोफेसर हार्डी ने कहा था, “सबसे आश्चर्यचकित करने वाली बात उसकी वह अन्तर्दृष्टि है जो सूत्रों और अनन्त श्रेणियों के रूपान्तरण आदि में दिखती है। मैं आज तक उसके समान किसी व्यक्ति से नहीं मिला और मैं उसकी तुलना आयलर तथा जैकोबी से ही कर सकता हूँ।‘’

महान गणितज्ञ लिटलवुड भी उन्हें जैकोबी मानते थे ।

प्रोफेसर हार्डी ने अन्यत्र लिखा है, “उसके ज्ञान की कमी भी उतनी ही विस्मय कर देने वाली थी जितनी कि उसके विचार की गहनता। वह एक ऐसा व्यक्ति था जो उस स्तर के मॉड्यूलर समीकरण पर कार्य कर सकता था या कॉम्प्लेक्स गुणा कर सकता था जिसके बारे में किसी ने सुना तक न हो। निरन्तर लंगड़ीभिन्न पर उसका इतना अधिकार था जितना विश्व में कदाचित किसी भी गणितज्ञ को नहीं था। उसने स्वयं ज़ीटा फंक्शऩ के समीकरण का पता लगा लिया था। उसने कभी डबल पीरी आइडिक फंक्शन या कॉची थ्योरम का नाम भी नहीं सुना था परन्तु एनैलीटिकल नंबर थ्योरी की विशाल राशियों से से वह खेलता रहता था।’’

प्रोफेसर हार्डी ने अन्यत्र कहा था कि उन्हें खुद को, महान गणितज्ञ लिट्लवुड और रामानुजन को आँकना हो तो वे खुद को 100 में से 25, लिट्लवुड को 35 और रामानुजन को 100 में से 100 अंक देंगे। महान दार्शनिक बर्टरेंड रसल हंस कर मजाक करते थे कि हार्डी और लिट्लवुड को लगता है कि उन्होंने 25 पाउंड के खर्च में भारत से किसी नए न्यूटन को खोज लिया है।

भारत लौट आने के बाद अपनी असाध्य रुग्णता के दिनों में उन्होंने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया । उन्होंने हार्डी को लिखे अपने पत्र में मॉकथीटा फंक्शन का जिक्र किया है। अमेरिकी गणितज्ञ प्रोफेसर जॉर्ज एंड्रूज़ रामानुजन के कार्यों पर शोध करने वाले अधिकारी गणितज्ञ माने जाते हैं। उन्होंने रामानुजन के इस सूत्र पर विचार करते हुए 50 वर्ष के बाद लिखा था, ‘’इनको समझना किसी अच्छे गणितज्ञ तक के लिए कठिन है। एक वर्ग के पाँच सूत्रों में से पहला मैंने 15 मिनट में सिद्ध कर लिया था, परन्तु दूसरे को सिद्ध करने में एक घंटा लगा। चौथा दूसरे से निकल आया और तीसरे तथा पाँचवें को सिद्ध करने में मुझे तीन महीने लगे।“

आज दुनिया के सभी महान गणितज्ञ इस बात से सहमत हैं कि आधुनिक विश्व की नैसर्गिक प्रतिभाओं में रामानुजन की तुलना सम्भवत: किसी और से हो ही नहीं सकती। जैकोबी, गॉस और आयलर को छोड़कर। रामानुजन का पूरा जीवन ही इस बात का शाश्वत प्रमाण है कि अध्यात्म से सिंचित भारतीय मेधा और चिन्तन परम्परा साक्षात ईश्वरीय संकेतों से चालित होती है। सिर्फ 32 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। लेकिन जब वे विदा हुए तो पश्चिम का रंगभेदी दर्प ध्वस्त हो चुका था। रामानुजन पहले भारतीय थे, जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया था कि प्रतिभा रंग का मोहताज नहीं होती। एक साधारण कद काठी के काले मद्रासी ब्राह्मण ने बिना किसी विदेशी शिक्षा या पारम्परिक पठन-पाठन के पश्चिमी गोरी चमड़ी के श्रेष्ठता-बोध को तोड़ डाला था।

उनकी मृत्यु के बाद रामचंद्र राव ने लिखा था, “उसका नाम भारत को यश देता है और उसका जीवनवृत्त प्रचलित विदेशी शिक्षा प्रणाली की कटु निंदा का द्योतक है। उसका नाम उस व्यक्ति के लिए ऐसा स्तंभ है जो भारतीय अतीत के बौद्धिक सामर्थ्य से अनभिज्ञ है। जब दो महाद्वीप उनके खोजे गणित के नए सूत्र प्रकाशित कर रहे थे, तब भी रामानुजन वही बालोचित, दयालु और सरल व्यक्ति बना रहा, जिसको न ढंग के कपड़े पहनने का ध्यान था, न ही औपचारिकता की परवाह। इससे उनके कक्ष में मिलने आने वाले आश्चर्य के साथ कह उठते थे कि क्या यही वह हैं.. यदि मैं एक शब्द में रामानुजन को समाना चाहूँ तो कहूँगा, ‘भारतीयता’।” 
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(महान् गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन की जयंती (22 दिसम्बर) पर यह लेख देवांशु झा जी ने फेसबुक पर लिखा है। इसे उनकी अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। झारखंड के निवासी देवांशु जी ऐसे तमाम सम-सामयिक मसलों पर नियमित रूप से लिखते रहते हैं।) 

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