सांकेतिक तस्वीर
टीम डायरी
आज रविवार, 18 मई के एक प्रमुख अख़बार में ‘रोचक-सोचक’ सा समाचार प्रकाशित हुआ। इसमें बताया गया कि अभी 7 से 10 मई के दौरान जब भारत ने पाकिस्तान में स्थित आतंकी ठिकानों के ख़िलाफ़ ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के तहत सैन्य कार्रवाई की और फिर युद्ध जैसी परिस्थिति बनी, तब दर्शकोंं ने समाचार चैनलों से दूरी बना रखी थी। यह बात बार्क (ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल)- इण्डिया के हवाले से बताई गई। यह संस्था टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों पर नज़र रखती है। साप्ताहिक आधार पर इस बाबत आँकड़े जारी करती है कि कब, किस टेलीविज़न चैनल का, कौन सा कार्यक्रम, कितने दर्शकों ने देखा। इस संस्था द्वारा जारी आँकड़े इतने महत्त्वपूर्ण होते हैं कि उनके आधार पर व्यावसायिक विज्ञापनों की दरों में समय-समय पर बदलाव होता है।
ख़ैर, तो अभी बार्क इण्डिया के द्वारा जारी किए गए आँकड़ों का ज़िक्र ख़ास तौर पर इसलिए ताकि पता लगे कि देश की आम जनता को मूर्ख समझने या बनाने की कोशिश कोई भी करे, वह सफल नहीं हो सकता। फिर चाहे वह बड़े नेता होंं, सरकार या समाचार माध्यम। बार्क इण्डिया के ताज़ा आँकड़ों से यह बात और स्पष्ट होती है। संस्था के अनुसार, जब ऑपरेशन सिन्दूर और उसके बाद के दिनों में भारत-पाकिस्तान के बीच सैन्य झड़पें चल रही थीं, उस वक़्त भी लोग समाचार चैनलों के प्रति उदासीन बने हुए थे। वे दूसरे किन्हीं माध्यमों से समाचार तो ले रहे थे मगर टेलीविज़न पर क्रिकेट की इण्डियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के पुराने मैच देख रहे थे या कुछ और।
आँकड़ों पर ग़ौर कीजिए, जो बताते हैं कि ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के ठीक अगले दिन आठ मई को जब दोनों देशों के बीच सैन्य झड़पें शुरू हो चुकी थीं, तब खेल के सिर्फ एक चैनल पर ही प्रति मिनट औसत दर्शक संख्या 9,345 थी। जबकि समाचार चैनलों की कुल जमा प्रति मिनट औसत दर्शक संख्या 4,864 थी। याद रखने लायक है कि उस वक़्त धर्मशाला में आईपीएल का मैच चल रहा था, जो दोनों देशों के सैन्य संघर्ष के कारण बीच में रद्द करना पड़ा था। हालाँकि समाचार चैनलों की दुर्गति में कोई रद्द-ओ-बदल नहीं हुआ। वह आगे भी जारी रही, बल्कि स्थिति और ख़राब ही होती गई। यानि कि दर्शक संख्या बढ़ने के बजाय घटती ही गई। यहाँ तक कि छह मई की शाम को भी एक समाचार चैनल पर प्रसारित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यक्रम तक को दर्शकों का पूरा प्रतिसाद नहीं मिला।
ऐसे में सवाल उठना लाज़िम है कि आख़िर समाचार चैनलों के प्रति दर्शकों की ऐसी बेरुख़ी क्यों? तो इसका सीधा ज़वाब भी समाचार चैनलों पर मौज़ूद है, देखा जा सकता है। उनमें हर दिन शाम और रात के वक़्त होने वाली बहसों को ग़लती से कोई एक बार भी देख ले, तो वह दोबारा फिर लंबे अरसे तक समाचार चैनल खोलने की हिम्मत नहीं कर पाएगा। इस क़दर नौटंकी और प्रहसन जैसी स्थिति उन बहसों में होती है कि कहा नहीं जा सकता। चीखना-चिल्लाना, लड़ाई-झगड़ा, गाली-ग़लौच से लेकर मार-पीट तक, क्या नहीं होता उन बहसों में। और ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ या ‘भारत-पाकिस्तान सैन्य संघर्ष’ जैसे मौक़ों पर तो समझिए धरती-आसमान ही उलट-पुलट हो जाता है वहाँ।
उस दौरान किसी ने धोख़े से एकाध बार भी कोई समाचार चैनल खोला होगा तो उसे अच्छी तरह याद होगा कि कैसे उस पर युद्ध के बिगुल बज रहे थे। हर सेकेण्ड में झूठी-सच्ची ख़बरों की ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ के भोंपू बज रहे थे। समाचार प्रस्तोता लगभग नाचते, उछलते-कूदते हुए बता रहे थे कि भारत की सेना पाकिस्तान के भीतर छह-सात किलोमीटर तक घुस गई है। अभी-अभी कराची बन्दरगाह तबाह कर दिया गया है। पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष ने इस्तीफ़ा दे दिया है। अमुक अफ़सर को पाकिस्तान का नया सेना प्रमुख बनाया गया है। बलूचिस्तान अब पाकिस्तान से आज़ाद होने वाला है। पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर पर भारत का अधिकार होने ही वाला है, आदि, आदि।
प्रहसन का आलम यह था कि सूचनाओं की सत्यता की परख करने का तो किसी को ख़्याल तक नहीं था। यह भी ध्यान नहीं था कि उनकी नौटंकी का उस पड़ोसी देश तक में मज़ाक बन रहा था, जिसकी कमर भारतीय सेना की कार्रवाई से टूटी जा रही थी। समाचार चैनलों के प्रस्तोता, संपादक, मालिक, सब इस जगहँसाई से बेख़बर थे। उन्हें शायद उस वक़्त लगता रहा होगा कि जनता तो मूर्ख है। उसे इसी तरह लुभाया जा सकता है। लेकिन यह उनकी ग़लतफ़हमी थी। बार्क इण्डिया के ताज़ा आँकड़ों से यह बात साबित हुई है। वैसे, भारतीयों की एक बात माननी पड़ेगी कि जब भी किसी को उनके बारे में कोई ग़लतफ़हमी होती है, वे उसे झट से दुरुस्त कर देते हैं। फिर चाहे समाचार चैनल हों, देश की सबसे पुरानी पार्टी हो, या वर्तमान में भारत की सत्ता सँभाल रहा दल!
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