बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
“रायगढ़ पर किसी को मेरी कोई कीमत ही नहीं है। एक बार महाराज को, रायगढ़ को और दुनिया को दिखा दूँ कि सम्भाजी राजे किस बला का नाम है।” इस भोले खयाल से केवल ‘करतब दिखाने के मोह’ से, सम्भाजी राजे मुगल छावनी में दाखिल हुए। लेकिन दिलेर खान इसका फायदा उठाने में भला क्यों चूकता? सो, सम्भाजी को लेकर दिलेर ने मराठी राज्य के भूपालगढ़ पर हमला कर दिया। भूपालगढ़ का किलेदार था फिरंगोजी नरसाला। दोनों तरफ मार-काट मची। अनगिनत लड़वैये काल के गाल में समा रहे थे। मराठों का कड़ा प्रतिकार दिलेर के लिए नया नहीं था। लगातार सोलह दिन की (दिनांक 1 से 16 अप्रैल 1679) लड़ाई के बाद भी भूपालगढ़ खान के सामने झुक नहीं रहा था।
लिहाजा अब खान ने अपना पाँसा फेंका। उसने सम्भाजी राजे को ही सेना के आगे खड़ा किया। इसके बाद सम्भाजी ने किले में सन्देशा भेजा, “किला हमारे हवाले करो।” फिरंगोजी अजीब पसोपेश में पड़ गए। अपने युवराज पर गोली चलाए तो कैसे? तोप दागें भी तो कैसे? फिरंगोजी ने किले का दरवाजा खोल दिया और दूसरे दरवाजे से उतरकर वह खुद रायगढ़ चले गए। सम्भाजी राजे के कारण ही दिलेर को भूपालगढ़ मिला (दिनांक 17 अप्रैल 1679)। लेकिन गढ़ में घुसते ही दिलेर ने 700 मराठों के हाथ बेरहमी से तोड़ दिए। सम्भाजी राजे का दिल मसोस उठा। उधर, महाराज ने फिरंगोजी को ही दोष दिया, “तुमने गढ़ दिया ही क्यों? युवराज पर बम गिराते। तोप दागते।”
फिर महाराज ने सभी किलों को हुक्म भेजा, “सम्भाजी किले पर हमला करें तो उन पर बेझिझक बम गिराओ।” दिलेर खान ने सोचा था कि अब मराठों में फूट पड़ेगी। उनके सरदार, किलेदार, सैनिक उसके पक्ष में आ जाएँगे। लेकिन बेचारा बदकिस्मत निकला। एक भी मराठा स्वराज्य छोड़ मुगल छावनी में नहीं आया। सो, जाने क्या सोचकर दिलेर ने बीजापुर पर धावा बोल दिया। तब बीजापुर के आदिलशाह ने महाराज से उसकी रक्षा की विनती की। लिहाजा, महाराज खुद फौज लेकर उसकी मदद करने गए। उन्होंने दिलेर को वहाँ से खदेड़ दिया। लेकिन सम्भाजी से वह सम्पर्क नहीं कर सके। पराभूत दिलेर खान बीजापुर का मोर्चा उठाकर तिकोटे चला गया (दिनांक 14 नवंबर 1679)।
इसके बाद महाराज ने मुगल सल्तनत के जालना शहर को घेर लिया। उसे तबाह किया (सन् 1679 नवंबर 16 के करीब)। महाराज जालना से लूट लेकर वापिस लौटे। तभी उनके पीछे से मुगल सरदार सरदार खान और केसरी सिंह आ गए। महाराज असमंजस में पड़ गए कि इतनी भारी लूट लेकर खिसका कैसे जाए? मुगल फौज थी भी काफी बड़ी। लेकिन बहिर्जी नाईक उन्हें नजदीकी राह से, स्वराज्य के पट्टा किले पर ले आए। महाराज और लूट अक्षत रहे। उधर, दिलेर खान तिकोटे की प्रजा पर अत्याचार करने लगा। कई औरतें तो बाल-बच्चों के साथ कुओं में कूद पड़ीं।
खान बिना वजह रिआया पर जुल्म कर रहा है, यह देख सम्भाजी भड़क उठे। उन्होंने खान को फटकारा, “बन्द करो ये अत्याचार”। लेकिन दिलेर खान की तरफ से सम्भाजी को उद्दंडता भरा जवाब मिला, “मैं जो चाहूँ, वही करूँगा। मुझे टोकने वाले तुम कौन होते हो?” यह सुनकर सम्भाजी चौंक गए। दो शब्दों के सवाल में सम्भाजी समझ गए कि उनकी कीमत वहाँ क्या है। अपना करतब दिखाने युवराज मुगली छावनी में आए थे। लेकिन उनकी कीमत, रुतबा और पुरुषार्थ का मोल कहाँ क्या है? यह एक क्षण में ही मालूम हो गया उन्हें। और एक दिन तो उनकी आँखें पूरी तरह खुल गईं जब औरंगजेब ने गुप्त रीति से दिलेर को हुक्म भेजा कि सम्भाजी को गिरफ्तार कर दिल्ली भेज दो।
यह खबर लगते ही युवराज रातों-रात छावनी से भाग निकले (दिनांक 20 नवंबर 1679)। बीजापुर जाकर ही दम लिया उन्होंने। वहाँ 10 दिन रहे। इसके बाद सम्भाजी राजी-खुशी पन्हाला पहुँचे (दिनांक 2 दिसंबर 1679)। इसी समय महाराज पट्टागढ़ से राजगढ़ आए थे। किस्मत अच्छी थी, सम्भाजी इसीलिए औरंगजेब और दिलेर की चंगुल से बच गए। महाराज को उनकी खैरियत की खबर मिली। उनके लौटने की उन्हें खुशी भी हुई। लेकिन पहले जब वह आगरा से छूटकर मथुरा होते हुए रायगढ़ पहुँचे थे तब की और इस बार की महाराज की खुशी में काफी फर्क था।
इस खुशी में उदासी का पुट था। आखिर महाराज खुद पन्हाला के लिए निकले (दिसंबर आखिर 1671)। वहाँ सम्भाजी राजे महाराज के सामने आए। पश्चात्ताप से उनकी गर्दन नीचे झुक गई थी। बोलते भी क्या वह? ठोकर खाकर जो वापिस लौटे थे। आँधी-तूफान से स्वराज बच गया। लेकिन सम्भाजी राजे के जीवन पर हमेशा के लिए दाग लग गया। स्वराज्य की बाल्यावस्था, अपने शरीर की घटती ताकत और शत्रु के बढ़ते बल को देख, महाराज चिन्तित थे। वह सम्भाजी से इतना ही बोले, “युवराज, भगवान की कृपा से ही आप वापिस लौटे हैं। ऐसी गलती दोबारा न कीजिए।” “जी बाबासाहब ऐसा ही होगा।” सम्भाजी राजे जवाब में सिर्फ इतना ही बोल सके।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ
56- शिवाजी ‘महाराज’ : क्या युवराज सम्भाजी राजे सचमुच ही ‘स्वराज्यद्रोही गद्दार’ थे?
55- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी ने जब गोलकोंडा के बादशाह से हाथ मिलाया, गले मिले
54- शिवाजी ‘महाराज’ : परधर्मो भयावहः, स्वधर्मे निधनं श्रेयः…अपने धर्म में मृत्यु श्रेष्ठ है
53- शिवाजी ‘महाराज’ : तभी वह क्षण आया, घटिकापात्र डूब गया, जिजाऊ साहब चल बसीं
52- शिवाजी ‘महाराज’ : अग्नि को मुट्ठी में भींचा जा सकता है, तो ही शिवाजी को जीता जा सकता है
51- शिवाजी ‘महाराज’ : राजा भए शिव छत्रपति, झुक गई गर्वीली गर्दन
50- शिवाजी ‘महाराज’ : सिंहासनाधीश्वर, क्षत्रियकुलावतंस महाराज शिवछत्रपति
49- शिवाजी ‘महाराज’ : पहले की शादियाँ जनेऊ संस्कार से पहले की थीं, अतः वे नामंजूर हो गईं
48- शिवाजी ‘महाराज’ : रायगढ़ सज-धज कर शिवराज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहा था
47-शिवाजी ‘महाराज’ : महाराष्ट्र का इन्द्रप्रस्थ साकार हो रहा था, महाराज स्वराज्य में मगन थे
46- शिवाजी ‘महाराज’ : राज्याभिषिक्त हों, सिंहानस्थ हों शिवबा
45- शिवाजी ‘महाराज’ : शिव-समर्थ भेंट हो गई, दो शिव-सागर एकरूप हुए
44- शिवाजी ‘महाराज’ : दुःख से अकुलाकर महाराज बोले, ‘गढ़ आया, सिंह चला गया’
43- शिवाजी ‘महाराज’ : राजगढ़ में बैठे महाराज उछल पड़े, “मेरे सिंहों ने कोंढाणा जीत लिया”
42- शिवाजी ‘महाराज’ : तान्हाजीराव मालुसरे बोल उठे, “महाराज, कोंढाणा किले को में जीत लूँगा”
41- शिवाजी ‘महाराज’ : औरंगजेब की जुल्म-जबर्दस्ती खबरें आ रही थीं, महाराज बैचैन थे
40- शिवाजी ‘महाराज’ : जंजीरा का ‘अजेय’ किला मुस्लिम शासकों के कब्जे में कैसे आया?
39- शिवाजी ‘महाराज’ : चकमा शिवाजी राजे ने दिया और उसका बदला बादशाह नेताजी से लिया
38- शिवाजी ‘महाराज’ : कड़े पहरों को लाँघकर महाराज बाहर निकले, शेर मुक्त हो गया
37- शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”