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मृच्छकटिकम्-3 : स्त्री के हृदय में प्रेम नहीं तो उसे नहीं पाया जा सकता

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 20/9/2022

पूजा पूरी करने के बाद ‘चारुदत्त’ फिर से मातृदेवियो को बलि देने जाने के लिए ‘मैत्रेय’ को आदेश देता है। लेकिन ‘मैत्रेय’ के मना कर देने से वह उदास होकर कहता है, “निर्धन व्यक्ति की बात उसके आत्मीय भी नहीं मानते। उपेक्षा करते हैं।”

‘मैत्रेय’ ऐसा सुनकर लज्जित हो ‘रदनिका’ के साथ बलि प्रदान करने के लिए घर से निकलने लगता है। ‘रदनिका’ जैसे ही द्वार खोली है, ‘वसंतसेना’ दीपक बुझाती हुई ‘चारुदत्त’ के घर में प्रवेश कर जाती है। ‘वसंतसेना’ का पीछा करते हुए ‘शकार’ और उसका सेवक भी ‘चारुदत्त’ के घर के पास पहुँच जाता है।

‘शकार’ और उसका सेवक ‘विट’ अंधेरे में ‘चारुदत्त’ के द्वार पर ‘रदनिका’ को पकड़ लेते हैं। इसका ‘मैत्रेय’ विरोध करता है। वह ‘शकार’ की भर्त्सना कर उसे भगा देता है।

‘शकार’ जाने से पहले ‘विट’ से कहता है, ‘वसंतसेना यहीं है। उसे बिना लिए नहीं जाऊँगा।” तब ‘विट’ कहता है, “लेकिन वसंतसेना कहीं चली गई है। आप चलिए यहाँ से क्योंकि स्त्री हृदय से अनुरक्त होने पर ही वश में आती है (हृदये गृह्यते नारी), अगर आपके हृदय में प्रेम नहीं तो उसे नहीं पाया जा सकता।”

‘शकार’ इसके बाद ‘मैत्रेय’ से कहता है, “वसंतसेना को चारुदत्त से प्रेम है। मैं उसका पीछा कर रहा था। वसंतसेना आप के घर छिप गई है। अगर लौटा दिया तो ठीक, नहीं तो न्यायालय में वाद दायर करूँगा।” ऐसा कह कर ‘शकार’ चला जाता है।

इधर ‘वसंतसेना’ को ‘रदनिका’ समझ कर ‘चारुदत्त’ उसे अपने पुत्र ‘रोहसेन’ की सेवा का आदेश देता है। लेकिन ‘वसंतसेना’ के हाथ में चूर्ण द्वारा भेजी चादर पड़ जाती है। उसमें से चमेली के पुष्पों की सुगन्ध होने से वह ‘चारुदत्त’ के बारे में सोचती है कि वे अब भी स्वयं को युवा मानते हैं। इस सोच-विचार के कारण काम करने में देर होती है।

लेकिन ‘चारुदत्त’ इसे अपने आदेश की अवहेलना मानकर दु:खी हो जाता है। वह कहता है, “जब मनुष्य भाग्य से पीड़ित हो दुर्दशा को प्राप्त होता है, तब एक लम्बे समय तक अनुराग करने वाले लोग भी मुँह मोड़ लेते हैं। मित्र भी शत्रु जैसा व्यवहार करने लगते हैं (यदा तु भाग्यक्षयपीडितां दशां नर: कृतान्तोपहितां प्रपद्यते। तदास्य मित्राण्यपि यान्त्यमित्रतां चिरानुरक्तोऽपि विरज्यते।।)।

इसी बीच ‘मैत्रेय’ बताता है, “रदनिका तो यहाँ है। आपका आदेश किसने नहीं माना?”

इस पर चारुदत्त कहता है,  ”अच्छा जब रदनिका वहाँ है, तो ये दूसरी कौन है‌, जो शरदकालीन मेघों से आच्छादित चाॅंदनी सी प्रतीत हो रही है?”

हालाँकि ऐसा कहते ही ‘चारुदत्त’ के निर्मल मन में अन्य स्त्री की प्रशंसा करने से अपराध-बोध भी जागृत हो जाता है। वह कह उठता है, “पर स्त्री को देखना उचित नहीं है” (न युक्ति परकलत्रदर्शनम्)।

तब ‘मैत्रेय’  ने उसे तसल्ली देने की कोशिश करते हुए कहा है, “अरे! आप व्यर्थ ही पर-स्त्री दर्शन की आशङ्का से परेशान हो रहे हो।”

जारी….
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(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर मंगलवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)

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