टीम डायरी
तमिलनाडु की ‘तमिल सरकार’ अज़ीब सियासी खेल में उलझ गई है। हाँ, ‘तमिल सरकार’, क्योंकि तमिलनाडु की मौज़ूदा सरकार पूरे प्रदेश का प्रतिनिधित्त्व नहीं करती। वह सिर्फ़ उनकी बात करती है, जो सिर्फ़ तमिल बोलते हैं या फिर भारत को ग़ुलाम बनाने वाले अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी। उसे पूरे देश में और यहाँ तक कि तमिलनाडु में भी तेजी से स्वीकार्यता बढ़ा रही हिन्दी भाषा से दिक़्क़त है। तो ऐसी सरकार को ‘तमिल सरकार’ न कहा जाए तो क्या कहा जाए? हालाँकि इस ‘तमिल सरकार’ को उसकी हिन्दी विरोधी नीति-राजनीति के कारण अपने ही प्रदेश में विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसीलिए यह भी लिखा कि वह ‘अज़ीब सियासी खेल’ में उलझ गई है।
अभी एक दिन पहले की बात है। तमिलनाडु की ‘तमिल सरकार’ के मुखिया ने सफाई दी और बताया, “हमने (राज्य) बजट का नया लोगो जारी किया है। इसमें हमने रुपए के प्रतीक चिह्न को हिन्दी के ‘₹’ की जगह तमिल का ‘ரூ’ कर दिया। यह बताने के लिए कि हम तमिल भाषा के प्रति कितने प्रतिबद्ध हैं। बस, इतनी सी बात है। लेकिन जिन लोगों को तमिल पसन्द नहीं, उन्होंने इसे बड़ी ख़बर बना दिया।” जबकि ‘तमिल सरकार’ के मुखिया यानि मुख्यमंत्री को, वास्तव में हिन्दी के बढ़ते प्रभाव से दिक़्क़त है। इसीलिए वे उसके सियासी विरोध को हवा देकर राज्य में अपनी राजनीति चमका रहे हैं। इस तरह अगले विधानसभा चुनाव में जीतकर सत्ता में लौटने की राह बना रहे हैं।
वरना सच्चाई तो यह है कि देश का दक्षिणी हिस्सा हो या पूर्वी, पूर्वोत्तर का भाग हों या पूर्वी, हर जगह स्वाभाविक रूप से लोग हिन्दी को स्वीकार कर रहे हैं। हिन्दी कहीं, किसी पर थोपी नहीं जा रही। बल्कि लोग सहज रूप से यह मान रहें हैं कि हिन्दी सहित अन्य भाषाएँ सीखने से उन्हें उनके काम, उनके व्यवसाय में, उनकी नौकरी आदि में लाभ ही मिलेगा। उनका दायरा, उनकी ख़ुद की स्वीकार्यता बढ़ेगी। इसीलिए तो मणिरत्नम, प्रियदर्शन, एटली जैसे कई मशहूर तमिल फिल्मकार हिन्दी में फिल्मेंं बनाते हैं। अपनी तमिल फिल्मों की हिन्दी में डबिंग कराते हैं। देश में उन फिल्मों का प्रदर्शन कर ख़ूब कमाई करते हैं। एआर रहमान जैसे तमिल संगीतकार हिन्दी गीतों की धुनें रचते हैं।
रजनीकान्त और कमल हासन जैसे तमिल फिल्म उद्योग के अभिनेता भी हिन्दी फिल्मों में काम कर के या फिर तमिल फिल्मों को हिन्दी में डब कराने के बाद पूरे देश में प्रदर्शित कर के ही देशव्यापी स्वीकार्यता पाते हैं। तमिलनाडु से ही संचालित ज़ोहो जैसी सूचना-तकनीक जगत की बड़ी कम्पनी के मालिक श्रीधर वेम्बू तो साफ़ कहते हैं कि उन्होंने “ख़ुद हिन्दी सीखी है। हिन्दी सीखने से उन्हें पूरे देश में अपना संवाद बढ़ाने में मदद मिली है। कम्पनी का काम सहज हुआ है। मुनाफ़ भी बढ़ा है।” वे तो अपील भी करते हैं, “राजनीति की अनदेखी करें, आइए हिन्दी सीखें। तमिल इंजीनियरों और उद्यमियों को तेज बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था में हिन्दी सीखने से लाभ ही होगा।”
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गूगल की मालिक कम्पनी ‘अल्फाबेट’ के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुन्दर पिचाई भी तमिल भाषी हैं। तमिलनाडु में पैदा हुए हैं। वहीं उनकी स्कूल की पढ़ाई हुई। उसी दौरान उन्होंने सहज भाव से हिन्दी सीखी और उन्हें उसका पूरा लाभ भी हो रहा है। सूचना-तकनीक क्षेत्र की दिग्गज कम्पनी ‘इन्फोसिस’ की मालकिन सुधा मूर्ति भी हिन्दी सहित सात-आठ अन्य भाषाएँ जानती हैं। उन्होंने देशभर में अपने काम को सहज बनाने के लिए सभी को हिन्दी सहित अन्य भाषाएँ सीखने की सलाह भी दी हैं। ऐसे तमाम ख़ास-ओ-आम लोग हैं, जिन्होंने हिन्दी से लाभ लिया है और ले रहे हैं। इसीलिए वे सब इसी आधार पर ‘तमिल सरकार’ की संकुचित भाषायी-सियासत का खुला विरोध कर रहे हैं।
आन्ध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और दक्षिण भारतीय फिल्मों के अभिनेता रहे पवन कल्याण ने तो सीधे ‘तमिल सरकार’ से सवाल ही पूछ लिया, “मुझे समझ नहीं आता कि तमिलनाडु के कुछ नेता हिन्दी के विरोध में क्यों हैं। तमिल फिल्मों को हिन्दी में डब कर के मोटी कमाई करने से उन्हें दिक़्क़त नहीं। हिन्दी फिल्म उद्योग ‘बॉलीवुड’ से भी उन्हें पैसा चाहिए। उससे परेशानी नहीं है। मगर हिन्दी को स्वीकार करने से दिक़्क़त है! यह कैसा तर्क है?”
यह कैसा तर्क है? यह सवाल ‘तमिल सरकार’ को आगे बहुत परेशान करने वाला है, सच मानिए। क्योंकि हो सकता है, कुछ दिनों बाद तमिलनाडु की जनता भी उससे यही सवाल पूछने लगे!