सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 17/8/2021

यादें बड़ी कमाल की चीजें होती हैं। हम अपनी यादों में पूरे संसार को समेटे रहते हैं। ये यादें अच्छी, बुरी, दुख देने वाली और प्रसन्नता देने वाली हो सकती हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि हम अपनी यादों में अपने दु:खद संस्मरणों को ज़्यादा समेटे रहते हैं। यही कारण है हम अपने अतीत से सीखते कम हैं। उसका स्मरण ज्यादा करते हैं। उन यादों से सीख कर आगे नहीं बढ़ते। उन्हें याद कर अवसाद में पहुँच जाते हैं। कहीं-कभी कट्टर हो जाते हैं। हिंसक भी हो उठते हैं। इसका ताज़ातरीन उदाहरण तालिबान है। न जाने कौन सी स्मृतियाँ हैं, जो इस संगठन को मानवीय रूप में बने रहने से रोकती हैं? कुछ है, उसके अतीत में, जिसने उसे बेहद  कट्टर और हिंसक संगठन बना दिया है। इतना कि इस संगठन के लिए इसके कथनों को न मानने वाला जीवन का अधिकारी नहीं रहता? सिर्फ़ उसके मत का अनुयायी ही जीवन का अधिकारी दिखता है? 

अतीत की किन्हीं ख़राब स्मृतियों से चिपका यह संगठन ‘तालिबान’ वर्तमान में सिर्फ़ और सिर्फ़ विध्वंस का माध्यम बना हुआ है। भविष्य की दृष्टि उसके पास बची नहीं है। इसलिए सृजन करने में लगभग अक्षम हो चुका है। इतना अक्षम कि वह अच्छे-ख़ासे इंसानों को उनके बचपन से पकड़कर अपने अनुयायी आतंकियों में तब्दील कर उन्हें पतन की राह में धकेल देता है। यही तमाम कारण हैं कि इसके सदस्यों को अब कोई इंसान के तौर पर पहचानता भी नहीं। बल्कि आतंकी मानता है। ऐसे आतंकी जिनके पास न श्रीराम हैं, जो सद् मार्ग दिखा सकें। ऐसे राम, जिनका नाम जपते ही हिंसक डाकू सन्त (महर्षि वाल्मीकि) बन जाए। इस संगठन के पास न श्री कृष्ण हैं, जो केवल धर्म रक्षा, मानव संरक्षा हेतु अस्त्र-शस्त्र धारण करना सिखा सकें। और पूरे विश्व को मानवीय गरिमा का पाठ पढ़ाने वाले बुद्ध (मूर्तियों) को तो यह संगठन कब का ज़मींदोज़ कर चुका है।  

यहीं से हमें बुद्ध फिर याद आते हैं, जो कहते हैं कि हमारी स्मृति सम्यक हो। तात्पर्य है, “काया, वेदना, चित्त और मन के धर्मों की ठीक स्थितियों और उनके मलिन, क्षण-विध्वंसी होने का सदा स्मरण रखना चाहिए।”

जब सब कुछ क्षण मात्र में ध्वस्त हो जाएगा तो क्यों इतनी मोह माया? क्यों मन को मलिन करना? जब अगले क्षण का पता नहीं तो क्यों नहीं इस जीवन के प्रतिक्षण को बेहतरी में लगाना? सम्यक स्मृति का यही आशय है।

कहते हैं, ‘जैसा मन, वैसा मानुष’ यानि जिस तरह का मन होगा, वैसा मनुष्य का व्यक्तित्त्व बनता चला जाएगा।

हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है, “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः”। अर्थात्- अर्थात् मन ही है, जो व्यक्ति को बन्धन और मोक्ष की तरफ ले जाता है।

लेकिन मन को साधना इतना आसान भी कहाँ हैं। गीता में अर्जुन जैसा योद्धा पूछ रहा है, “चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्” यानि-  “हे कृष्ण! बहुत बलवान है ये मन, इसे कैसे नियंत्रित करें?”

तब श्री भगवान् कहते हैं, “असंशयं महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ (गीता, 6/35) । अर्थात्- “हे महाबाहो! निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला होता है। परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है।”

बुद्ध भी तो यही कह रहे हैं अपनी स्मृति को सम्यक रखिए अर्थात सदैव यह स्मरण रखिए की आप को करना क्या है? कैसे करना है? कब करना है? क्यों करना है? और इससे भी ख़ास कि क्या नहीं करना है? जब हम अपने प्रत्येक कार्य पर दृष्टि रखेंगे, तो धीरे-धीरे अभ्यास होगा। मन, चित्त सध गया तो हम अगली अवस्था में पहुँचने लगेंगे। धीरे-धीरे मानव हो चलेंगे। मोक्ष पथ पर बढ़ चलेंगे। और ये मोक्ष क्या है?

अलग-अलग महात्माओं ने मोक्ष को परिभाषित किया है। लेकिन मुझे लगता है मोक्ष और कुछ नहीं केवल मानव हो जाना है, बुद्ध हो जाना है, श्री राम हो जाना है, श्री कृष्ण हो जाना है। अपना सर्वस्व मानव हित हेतु अर्पण कर देना मोक्ष है। जीवन ईश्वर के चरणों में समर्पित करना मोक्ष है। मानवता की सेवा मोक्ष है।

चलिए कोशिश करें कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें। तालिबान नहीं, श्री कृष्ण हो सकें।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 24वीं कड़ी है।)
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16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला?

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