अनुजराज पाठक, 24/5/2022
सभ्यताएँ मानवीय समाज चाहती हैं। फिर भले ही वो भारतीय सभ्यता हो या फिर दुनिया की कोई और। सभ्यता शब्द में ही मानवीयता निहित है। और इस मानवीयता का चित्रण हर सभ्यता के तत्कालीन रचनाकारों ने किया है। भारतीय नाट्यकारों ने अपने नाटकों के माध्यम से भारतीय सभ्यता का चित्रण किया है।
ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के नाटककार को देखें। ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ नाटक में नाटककार नायिका के प्रेम विवाह का वर्णन करता है। यह न केवल स्त्री स्वातंत्र्य का प्रतीक है, बल्कि उस समाज की प्रगतिशीलता का भी साक्षात् उदाहरण है। भारतीय नाटकों में ऐसे अनेक उदाहरण दिखाई दे जाते हैं, जो समाज में व्याप्त सद्भाव-सौहार्द के बारे में बताते हैं। अपनी उदात्त शैली के कारण अन्य संस्कृतियों को आकर्षित करते हैं। इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा द्वीपों और कंबोडिया आदि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में भारतीय नाट्य परम्परा का अपूर्व योगदान रहा है। ईसापूर्व सनातन और बौद्ध आचार्यों ने यहाँ की संस्कृतियों पर रचनात्मक प्रभाव डाला है। आज भी इन देशों में नाट्यमंचन पर भरत मुनि के नाट्यशास्त्र का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
‘विश्व संस्कृति में भारतीय नाट्य परम्परा के योगदान’ के बारे में यह कहना था प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी का, जो केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति रहे हैं। ख़ुद भी ख्यात नाट्यशास्त्री हैं। वे हाल ही में नई दिल्ली के एक गैर-सरकारी संगठन ‘भारतप्रज्ञाप्रतिष्ठानम्’ द्वारा आयोजित एक ‘राष्ट्रीय संगोष्ठी’ बोल रहे थे। इसमें मुख्य वक्ता के रूप में शामिल हुए प्रो. त्रिपाठी ने इस पर हैरानी जताई कि आज भी “भारत के किसी विश्वविद्यालय में भरतमुनि का नाट्यशास्त्र पूरा नहीं पढ़ाया जाता।” उनकी हैरानी का यह विषय वाक़ई विचारणीय रहा।
इस दौरान महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, रोहतक के कुलपति प्रो. राजबीर सिंह संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे। इसमें हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के अनेक शिक्षाविदों ने भी मौज़ूद रहे। उन्होंने भी ‘विश्व संस्कृति में भारतीय नाट्य परम्परा के योगदान’ विषय पर विचार रखे।