बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
रायगढ़ पर वेदमूर्ति गागाभट्ट तथा राजोपाध्याय अर्वीकर के मार्गदर्शन में राज्याभिषेक की पूर्व तैयारी शुरू हुई। गागाभट्ट तो बहुत ही कर्मठ थे। राज्याभिषेक के लिए उन्होंने खास तौर से, स्वयं बड़ी मेहनत से संस्कृत में ‘राज्याभिषेकप्रयोग’ नाम की संहिता तैयार की। शास्त्रशुद्ध तरीके से सुवर्ण का, रत्न का जड़ाऊ सिंहासन बनाने का काम रत्नशाला के प्रमुख अधिकारी रामजी दत्तो चित्रे को सौंपा। राजसभा, नक्कारखाना, मीनार, राजप्रासाद, जगदीश्वर का प्रासाद, आदि सुन्दर और भव्य इमारतों का निर्माण कार्य गृह निर्माण खाते के सूबेदार हिरोजी इन्दुलकर को सौंपे गए। और भी कई काम थे, जो कई अलग-अलग पदाधिकारियों को करने को कहे गए। राजकाज के हमेशा के काम करते हुए, सभी अधिकारी राज्याभिषेक की पूर्व तैयारी में भी तन-मन से जुटे हुए थे। महाराष्ट्र का इन्द्रप्रस्थ साकार हो रहा था। जबकि, महाराज स्वराज्य की गृहस्थी में मगन थे। एन बारिश में उन्होंने सातारा का किला जीत लिया (दिनांक 27 जुलाई 1673)। दशहरे के बाद (दिनांक 13 अक्टूबर 1673) पांडवगढ़ ले लिया। इसके बाद महाराज करवार मुहिम से लौट आए।
इसी बीच, प्रचंड तैयारी के साथ बहलोल खान स्वराज में घुसना चाह रहा था। इससे प्रतापराव को यह समझ में आ रहा था कि उनकी गलती कितनी गम्भीर थी। दया के कारण मुक्त किया बैरी बहलोल उलटवार करने पर उतारू हो गया था। माघ का महीना। प्रतापराव गूजर का डेरा गढ़हिंगलाज, माहेगाँव परिसर में था। उसी दौरान शिवरात्रि का दिन। प्रतापराव सिर्फ छह मराठी घुड़सवारों के साथ छावनी से दूर निकल आए थे। तभी उन्हें खबर मिली कि बहलोल खान स्वराज्य में नेरूरी की तरफ से घुस रहा है। सुनकर प्रतापराव आगबबूला हो गए। बारूद के ढेर की तरह भड़क उठे वह। उनका विवेक छूट गया। पास ही हमारी मराठी फौज थी। लेकिन उसे वहीं पर छोड़, ताव में आकर बहलोल को पछाड़ने के लिए उसकी ओर तीर की तरह दौड़ पड़े। उनके पीछे-पीछे उनके छह सवार भी सरपट दौड़े। प्रतापराव के मन में एक ही ख्याल था। बहलोल का खात्मा करना है। नेरूरी के पास, घटप्रभा नदी के उत्तर में बहलोल के हजारों सैनिक खड़े थे। उन पर ये सात बौखलाए हुए चीते टूट पड़े। पर कहाँ वह अपार सेनासागर और कहाँ ये सात ही। लड़ते-लड़ते राव और उनके सभी साथी मारे गए (दिनांक 24 फरवरी 1674)।
वैसे, समूचे दक्खन में ढूँढने पर भी रायगढ़ जैसा बुलन्द पहाड़ी किला नहीं मिलेगा। रायगढ़ महाराजों का गढ़ है। रायगढ़ गढ़ों का महाराज है। अजेय है। अंगरेज टोपीकर तो इसे कहते ही पूरब का जिब्राल्टर थे। इसकी अजेयता के कारण ही महाराज ने इसके सिर पर राजधानी का मुकुट रखा था। इसका पहला नाम था ‘रायरी’। महाराज ने ही इसे नया नाम दिया, ‘रायगढ़’ (सन् 1656 अप्रैल प्रारम्भ)। रायगढ़ कोंकण में है। महाड़ की उत्तर में आठ कोस पर। इसका माथा तलहटी से 950 गज की ऊँचाई पर है। माथे का विस्तार घड़ियाल के आकार का है। पूरब से पश्चिम तक की लम्बाई दो कोस की है। चौड़ाई उस अनुपात में कम है। घड़ियाल की देह को तरह वह कहीं कम चौड़ी है. कहीं ज्यादा। पहाड़ की सभी कगारों पर सीधी चट्टानें हैं। मजाल कि कोई उन पर चढ़ने की हिम्मत जुटाए। किले में प्रवेश के लिए तीन रास्ते हैं। महादरवाजा तो राजमार्ग ही है। बाघ दरवाजा भी है तो शानदार लेकिन वहाँ आने-जाने की राह जाती है 300 हाथ की ऊंचाई पर से। कगार के ऊपर से यहाँ से आवागमन करने के लिए कलेजा चाहिए। बाघ का ही। तीसरी राह है, टकमक कगार के पास की। चोर दरवाजे में से गुजरने वाली। लेकिन यह राह भी इतनी खतरनाक है कि आज तक किसी ने भी सुना नहीं कि फलाँ आदमी के बाप ने, बेटे ने अथवा खुद उसने ही वहाँ से जाने की हिम्मत की है।
यमराज के गाल की चिकोटो भी कोई काटता है भला? कोई जान भी देना चाहे, तो भी मारे डर के यहाँ से लौट जाए।
किले पर कई देवी-देवता अक्षय-दीप के उजाले में, फूल-अगरबत्ती की सुगन्ध में प्रसन्न थे। जगदीश्वर, वाडेश्वर, भवानी और शिकाईदेवी, यही कुछ देवी-देवता थे वहाँ। पहाड़ पर पानी की विपुलता थी। गंगासागर, कोलम्ब तालाब, काला हौज, हाथी तालाब, हनुमान टंकी, वारा टंकी वगैरा जलाशय पानी से लबालब भरे रहते। काँच की तरह स्वच्छ और मिश्री की तरह मीठा पानी था यहाँ का। रायगढ़ की पूरब में खड़ा है लिंगाना किला। उसकी परली तरफ है तोरनगढ़ और राजगढ़। रायगढ़ का, महाराज का राजमहल और सुन्दर मीनार ही रायगढ़ का मुकुट है। गंगासागर में इसकी शानदार परछाई तैरती रहती है। रायगढ़ ही महाराज को राजगढ़ से ज्यादा सुरक्षित और सुविधाजनक मालूम हुआ। सो, अपने घर-परिवार, कारखानों एवं अधिकारियों की कचहरियाँ वह रायगढ़ ले आए। हालाँकि सिंहगढ़, सिन्धुदुर्ग, प्रतापगढ़, राजगढ़ वगैरा 20 महत्त्वपूर्ण किलों को मजबूत करने के लिए भी महाराज ने बड़ी रकम मंजूर की थी।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ
46- शिवाजी ‘महाराज’ : राज्याभिषिक्त हों, सिंहानस्थ हों शिवबा
45- शिवाजी ‘महाराज’ : शिव-समर्थ भेंट हो गई, दो शिव-सागर एकरूप हुए
44- शिवाजी ‘महाराज’ : दुःख से अकुलाकर महाराज बोले, ‘गढ़ आया, सिंह चला गया’
43- शिवाजी ‘महाराज’ : राजगढ़ में बैठे महाराज उछल पड़े, “मेरे सिंहों ने कोंढाणा जीत लिया”
42- शिवाजी ‘महाराज’ : तान्हाजीराव मालुसरे बोल उठे, “महाराज, कोंढाणा किले को में जीत लूँगा”
41- शिवाजी ‘महाराज’ : औरंगजेब की जुल्म-जबर्दस्ती खबरें आ रही थीं, महाराज बैचैन थे
40- शिवाजी ‘महाराज’ : जंजीरा का ‘अजेय’ किला मुस्लिम शासकों के कब्जे में कैसे आया?
39- शिवाजी ‘महाराज’ : चकमा शिवाजी राजे ने दिया और उसका बदला बादशाह नेताजी से लिया
38- शिवाजी ‘महाराज’ : कड़े पहरों को लाँघकर महाराज बाहर निकले, शेर मुक्त हो गया
37- शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”
36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
35- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठे थके नहीं थे, तो फिर शिवाजी ने पुरन्दर की सन्धि क्यों की?
34- शिवाजी ‘महाराज’ : मरते दम तक लड़े मुरार बाजी और जाते-जाते मिसाल कायम कर गए
33- शिवाजी ‘महाराज’ : जब ‘शक्तिशाली’ पुरन्दरगढ़ पर चढ़ आए ‘अजेय’ मिर्जा राजा
32- शिवाजी ‘महाराज’ : सिन्धुदुर्ग यानी आदिलशाही और फिरंगियों को शिवाजी की सीधी चुनौती
31- शिवाजी महाराज : जब शिवाजी ने अपनी आऊसाहब को स्वर्ण से तौल दिया
30-शिवाजी महाराज : “माँसाहब, मत जाइए। आप मेरी खातिर यह निश्चय छोड़ दीजिए”
29- शिवाजी महाराज : आखिर क्यों शिवाजी की सेना ने तीन दिन तक सूरत में लूट मचाई?
28- शिवाजी महाराज : जब शाइस्ता खान की उँगलियाँ कटीं, पर जान बची और लाखों पाए
27- शिवाजी महाराज : “उखाड़ दो टाल इनके और बन्द करो इन्हें किले में!”