Indian-Languages

अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस : आज समय की जरूरत है कि शिक्षा मातृभाषा में दी जाए

नवेन्दु वाजपेयी और विकास वशिष्‍ठ, मुंबई से

अंतरराष्‍ट्रीय मातृभाषा दिवस। दुनिया को यह अनूठा दिन बांग्लादेश की देन है। जबकि भाषाई विविधता बांग्लादेश के बजाय भारत और अफ्रीकी देशों में कहीं ज्यादा है। फिर भी हमें शुक्रगुजार होना चाहिए बांग्लादेश का, जिसने दुनिया को भाषाई विविधता का पाठ पढ़ाया और इसका उत्सव मनाना सिखाया। हमें शुक्रगुजार होना चाहिए उस छोटे-से मुल्क का, जिसने भाषा की अहमियत को समझा और इसके हक में अपनी लड़ाई लड़ी। आज के दिन तमाम भाषाओं के बीच बंटवारे की लकीर को मिटाकर हमें अपनी-अपनी मातृभाषा के महत्त्व को समझना चाहिए। याद कीजिए वे दिन जब नीम के पेड़ के नीचे टाट-पट्टी पर बैठाकर ही हमें बारहखड़ी से लेकर अपवर्तन, परावर्तन और रेडियोधर्मिता की अवधारणाएं समझा दी जाती थीं।

अभी एक दिन पहले ही 1934 का हिन्दी का एक बड़ा अख़बार देख रहा था। इसके पहले पन्‍ने पर ख़बर थी, “कृत्रिम रेडियोधर्मिता की खोज”। आज के अख़बार रेडियोएक्टिविटी लिखने लगे हैं। रेडियोधर्मिता कहीं लुप्त हो गई है और इसी तरह लुप्त होती जा रही है, हम भारतीयों की भाषाई विविधता और इसकी उत्सवधर्मिता। वजह हमने ‘अपनी भाषा में’ और ‘अपनी भाषा को’ पढ़ना छोड़ दिया है। यह छोड़ने की भी वजहें गिनाई जा रही हैं। नितांत आर्थिक वजहें। कहा जा रहा है कि हमारी भाषाएं हमें कौनसी नौकरियां दिलाएंगी। ऐसा कहने वालों को अपनी सोच का दायरा थोड़ा बढ़ाना चाहिए। यदि आप भी इससे इत्तिफाक रखते हैं तो कुछ सवालों के जवाब दीजिए। खुद को। क्या आप फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोल लेते हैं? क्या आप अंग्रेज़ी पढ़ और लिख भी लेते हैं? क्या आप अपना काम अंग्रेज़ी या किसी दूसरी भाषा में करते हैं? आपकी मातृभाषा क्या है? आप सपने किस भाषा में देखते हैं?

यदि आप सपने अपनी मातृभाषा में देखते हैं, तो यकीन मानिएगा उन्हें पूरा करने में भी आपकी मातृभाषा ही मददगार साबित होगी। और फिर आप अपने सपने पूरे होने की खुशी भी अपनी मातृभाषा में ही जाहिर कर पाएंगे। भाषा केवल नौकरी पाने का माध्यम नहीं है। यदि ऐसा होता तो पिछले दिनों अमरीका में बेरोजगारी दर बढ़कर सात प्रतिशत तक न पहुंच गई होती। आपको याद होगा, भारत के पूर्व राष्‍ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी कहा था, “मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बन सका क्योंकि मैंने गणित एवं विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की थी।“

आज यूनेस्को को भी समझ आ गया है कि बहुभाषिक शिक्षण क्यों जरूरी है। तभी तो यूनेस्को ने इस बार अंतरराष्‍ट्रीय मातृभाषा दिवस की थीम रखी है, “बहुभाषी शिक्षण – शिक्षा में रूपांतरकारी बदलावों के लिए एक जरूरत।“ अब सवाल उठता है कि बहुभाषिकता क्या है। क्या एक से ज्यादा भाषाएं बोलना, जानना बहुभाषिकता है या फिर किसी समाज में एक से ज्यादा भाषाएं बोलने वालों का होना बहुभाषिकता है? बहुभाषिक शिक्षण के मामले में यूनेस्को ने बहुभाषिकता में तीन भाषाओं को शामिल किया है- पहली, मातृभाषा; दूसरी, क्षेत्रीय भाषा; और तीसरी, कोई एक अंतरराष्‍ट्रीय भाषा।

बहुभाषिकता का मतलब है, हमारी रोजाना की ज़िंदगी में एक से अधिक भाषाओं का उपयोग। यदि आप बहुभाषी समाज से आते हैं, तो यह सुनने में आपको अजीब नहीं लगेगा। जैसे भारतीय नौ सेना में देश के अलग-अलग हिस्सों से अधिकारी आते हैं। सब अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले होते हैं। वे सब धीरे-धीरे एक-दूसरे की भाषा से परिचित होने लगते हैं। यह उतना ही सामान्य है, जितना आप अपने गांव की देशज बोली भी जानते हैं, हिन्दी, मराठी, तमिल, भोजपुरी आदि भी जानते हैं और अंग्रेज़ी भी। 

शिक्षण में बहुभाषिकता के महत्त्व को समझते हुए यूनेस्को मातृभाषा आधारित बहुभाषी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए और इसके फायदों से दुनिया को जागरूक करने के लिए लंबे समय से काम करता रहा है। यूनेस्को ने हाल ही में एक और अध्ययन किया है। इससे पहले भी कई अध्ययनों में यह साबित होता रहा है कि स्कूली शिक्षा यदि अपनी भाषा यानी मातृभाषा में हो तो और इसके साथ कोई एक भाषा और पढ़ाई जाए तो बच्चे की घर से स्कूल और फिर स्कूल से विश्‍वविद्यालय तक की समझ न सिर्फ आसान हो जाती है, बल्कि वह सहज बोध का धनी होता है। वह अपनी संस्कृति को समझता है और अपने आप को दुनिया के सामने कहीं ज्यादा आत्मविश्‍वास के साथ पेश कर पाता है। अपने मन के गहन भावों की अभिव्यक्ति कहीं अधिक खूबसूरती से कर पाता है। अधिक रचनात्मक होता है।

अपनी भाषाई विरासत को, भाषाई मूल्यों और भाषाई विविधता को समझना उसके लिए आसान हो जाता है और हम एक सुंदर, सुदृढ़ समाज की ओर बढ़ते हैं। बहुभाषिकता सामाजिक सौहार्द को बढ़ाती है, मिल-जुलकर रहना सिखाती है। लेकिन यह दुनिया का दुर्भाग्य है कि आज 40 प्रतिशत से ज्यादा बच्चों को उस भाषा में शिक्षा नहीं मिलती, जिसे वे बोलते-समझते हैं। लेकिन शोध यह भी बताते हैं कि प्राथमिक स्कूल तक की अपनी शिक्षा मातृभाषा में पूरी करने वाले बच्चे, बाद में उन बच्चों की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक समझ रखते हैं, जिन्होंने ऐसी भाषा में अपनी प्राथमिक शिक्षा ली, जो वे न तो जानते थे और न उनके घर में बोली जाती थी। यानी मातृभाषा के अलावा दूसरी किसी भाषा में अपनी प्राथमिक शिक्षा लेने वाले बच्चों का बोध अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा लेन वालों से कम रहा। इतना ही नहीं, अपनी मातृभाषा में पढ़ने वाले बच्चे सामाजिक रूप से भी कुशल साबित हुए। 

भारत सरकार की नई शिक्षा नीति में संभवतः इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्राथमिक स्कूली शिक्षा अपनी मातृभाषा में कराने की सिफारिश की गई है। लेकिन मातृभाषा माध्यम में शिक्षा देने वाले स्कूल आज भारत में कितने हैं। इस मामले में, मोज़ाम्बिक़ ने उल्लेखनीय काम किया है। इस छोटे से अफ्रीकी देश ने अपनी भाषा के महत्त्व को समझा है और मातृभाषा में पढ़ाने वाले स्कूलों की संख्या 25 प्रतिशत तक बढ़ाई है। इसके लिए बाकायदा शिक्षकों को अलग से प्रशिक्षण दिया जा रहा है। और इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे दूसरे स्कूली बच्चों की तुलना में गणित जैसे विषयों तक में 15 प्रतिशत बेहतर कर रहे हैं। 350 द्वीपों का देश फिजी इस मामले में उल्लेखनीय काम कर रहा है। बच्चे वहां आठवीं तक अनिवार्य रूप से तीन भाषाएं पढ़ रहे हैं- फिजियन, हिन्दी और अंग्रेज़ी। इन छोटे-छोटे देशों से हमें सीखना चाहिए। हमें सीखना चाहिए फिलीपींस से, जो दुनिया का एकमात्र देश है, जिसने अपने सरकारी स्कूलों में मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम रखा है। हम अपने घर में, अपने काम करने की जगह पर, किसी मंच से अपनी भाषा को बोलने से न कतराएं। अपने बच्चों को अपनी मां की भाषा सिखाएं। क्योंकि उसमें बड़ी शक्ति है। 

विख्यात भाषाविद और एक्टिविस्ट गणेश एन. देवी के मुताबिक आज भारत अपनी 220 भाषाएं खो चुका है और 2050 तक देश से 150 भाषाएं और लुप्त हो जाएंगी। आज बहुभाषिकता समय की जरूरत है। यदि हमें उस लोकोक्ति को जीवंत बनाए रखना है, जिसे हम बचपन से पढ़ते, सुनते और लिखते हैं कि विविधता में ही एकता है, तो इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। क्योंकि अपनी भाषा को खो देना, अपनी मां को, अपनी जातीयता को, अपनी अस्मिता को खो देना है। इस विविधता और अपने सांस्कृतिक रंगों को बचाए रखने के लिए अपनी भाषाओं को बचाए रखना जरूरी है। 
——– 
(नवेन्दु वाजपेयी और विकास वशिष्ठ इंडिया एक्ज़िम से भाषा विशेषज्ञ के रूप में जुड़े हुए हैं। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी को यह लेख ई-मेल के जरिए भेजा है।)

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *