महिला दिवस : ये ‘दिवस’ मनाने की परम्परा क्यों अविकसित मानसिकता की परिचायक है?

अनुज राज पाठक, दिल्ली

अपनी जड़ों से कटा समाज असंगत और अविकसित होता है। भारतीय समाज इसी तरह का उदाहरण है। उसके पास अपना इतिहास है, लेकिन उससे सीखने की उसमें क्षमता नहीं है। उसके पास अपनी बौद्धिक सम्पदा है, लेकिन उसे वह उपेक्षित करता है। उसके पास अपना समृद्ध समाजिक स्वरूप रहा है, लेकिन उसे वह हमेशा नकारता रहा है। इन सबका कारण है, सदियों की प्रताड़ना।

यह प्रताड़ना ही है, जिसमें भारतीय समाज के बौद्धिक विकास को अवरुद्ध ही नहीं किया अपितु समाज की सोचने समझने की क्षमता को ही खंडित कर दिया। इसके फलस्वरूप हम समाज में ‘व्यक्ति की सशक्तता की जगह’ अलग-अलग समूहों के सशक्तिकरण की चर्चा करने लगे। यह ऐसा ही है, जैसे सम्पूर्ण शरीर के विकास की जगह किसी एक अंग या कुछ अंगों के सशक्तिकरण पर ध्यान देना। ऐसा शरीर विकसित न होकर विकृत ही होता है।

आज ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ है। दूसरों की देखा-देखी हमने भी ऐसे अनगिनत दिवस मनाने की परम्परा अपना ली है। जबकि यह परम्पराएँ एक अविकसित मानसिकता का ही परिचायक हैं। हमें सम्पूर्ण समाज के विकास की आवश्यकता पर ध्यान देना चाहिए। सोचना चाहिए कि महिला सशक्तिकरण के नाम पर कहीं हम समाज के अन्य अंगों के विकास के रास्ते अवरुद्ध तो नहीं कर रहे? इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

एक नारा मुझे किसी समय बहुत अच्छा लगता था, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’। लेकिन आज लगता है, इससे बेटों को उच्छृंखल छोड़ने में मदद मिली और बेटियों को कमतर बताकर उनको बेटों जैसा बनने के लिए प्रेरित किया। आज बेटियाँ पढ़ने-लिखने के साथ साथ मर्यादा छोड़ लड़कों जैसी उच्छृंखल होती दिखाई देने लगी हैं।

इस  तरह बचाने-पढ़ाने की जगह समुचित विकास पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इससे दोनों का अपने-अपने स्वभाव अनुकूल, प्रकृति अनुकूल समुचित विकास हो सकता। तब दोनों ही समाज में अपनी-अपनी आवश्यकता के साथ साथ अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को सम्यक रूप से समझ सकते। यह सम्यक समझ ही सम्यक समाज के विकास की नींव होती। तब समाज स्वत: ही पूर्णरूपेण सशक्त होता। ऐसे समाज में किसी को किसे से बचाने की आवश्यकता ही नहीं रहती।

हम कहीं न कहीं किसी को नुकसान पहुँचाते हैं। तभी उसको सही करने का विचार पैदा होता है। लेकिन अगर हम किसी को नुकसान न पहुँचाकर उसके लिए स्वतंत्र रूप से विकसित होने का वातावरण तैयार कर दें तो चीजें स्वयं बेहतर होगी। अन्यथा यह ऐसा ही होगा पहले जहर का उत्पादन कर वितरित करना, फिर यह कहना कि जहर से जीवन नष्ट होता है। इसलिए इसे न खाएँ।

हमें बेहतर समाज की संरचना करनी है, तो किसी भी अति को छोड़ना पड़ेगा। समाज में सभी के यथायोग्य विकास का वातावरण निर्मित करना होगा। किसी का सशक्तिकरण किसी का अशक्तिकरण हो सकता है। इससे सदैव असन्तुलन पैदा होता रहेगा। ऐसा समाज विकास नहीं, सदैव संघर्षरत रहता है। 

————— 

(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)

सोशल मीडिया पर शेयर करें
From Visitor

Share
Published by
From Visitor

Recent Posts

पिता… पिता ही जीवन का सबसे बड़ा संबल हैं

पिता... पिता ही जीवन का सबसे बड़ा संबल हैं। वे कभी न क्षीण होने वाला… Read More

1 day ago

Happy Father’s Day : A gratitude to the father’s dedication

“Behind every success every lesson learn and every challenges over comes their often lies the… Read More

1 day ago

टेस्ट क्रिकेट चैम्पियन दक्षिण अफ्रीका : सफलता उसी को मिलती है, जो प्रतीक्षा कर सकता है

दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट टीम ने शनिवार, 14 जून को इतिहास रच दिया। उसने पाँच दिनी… Read More

2 days ago

अहमदाबाद विमान हादसा : कारण तकनीकी था, मानवीय भूल थी, या आतंकी साज़िश?

अहमदाबाद से लन्दन जा रहा एयर इण्डिया का विमान गुरुवार, 12 जून को दुर्घटनाग्रस्त हो… Read More

4 days ago

क्या घर पर रहते हुए भी पेशेवर तरीक़े से दफ़्तर के काम हो सकते हैं, उदाहरण देखिए!

क्या आपकी टीम अपने घर से दफ़्तर का काम करते हुए भी अच्छे नतीज़े दे… Read More

5 days ago

पहले से बड़ा और विध्वंसक होने वाला है ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ का अगला चरण! कैसे?

बीते महीने की यही 10 तारीख़ थी, जब भारतीय सेना के ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के दौरान… Read More

6 days ago