समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था में ऐसी ढाँचागत त्रुटियाँ हैं, जिसके चलते वह समाज को नैतिक और सदाचारपरक मूल्य आधारित समर्थन प्रणाली देने में अक्षम है। इसीलिए रूढ़ हो चुकी व्याख्याओं का आमूलचूल पुनर्मूल्यांकन अपरिहार्य है। यदि यह नहीं होता तो समझिए कि हम एक बड़े साभ्यातिक खतरे के भँवर में जाने की तैयारी में हैं। हमारा राजनीतिक नेतृत्त्व इसे कितना करेगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि वो जनतांत्रिक नैतिकता और सदाचार को स्वयं कितने अनुपात में स्वीकार करने के लिए उत्सुक है!
लोकतंत्र में राष्ट्र, जनपद, गाँव और कुटुम्ब-कुल का नियमन न्याय व्यवस्था करती है। आधुनिक काल में यह व्यवस्था संविधान के तहत की जाती है। संविधान के तीन अंग हैं – विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका। इनमें से, यह मानना होगा कि जनआकांक्षाओं का खरा प्रतिनिधत्त्व विधायिका ही करती है। यही उसकी शक्ति का स्रोत भी है। शायद इसी स्रोत के बलबूते वह न्यायपालिका से टकराती भी है।
यह भूमिका इसलिए क्योंकि इन दिनों अदालत और सरकारों के बीच अधिकार क्षेत्र, संवैधानिक भाव की व्याख्या और समग्र राष्ट्र चिन्तन की दिशा को लेकर खींचतान चल रही है। इनमें से अधिकांश मामलों में हम पाएँगे कि एक ओर जनआकांक्षाओं की हिलोरों का दबाव झेल रही विधायिका है, तो दूसरी ओर उपनिवेशी या किन्हीं वैश्विक मूल्यों के हितों के अनुरूप यथास्थिति की पक्षधर बुर्जुआ मूल्यों वाली न्यायपालिका।
संविधान आदर्शत: नागरिकों का अपना साभ्यतिक और सांस्कृतिक परिवेश के नीति, मूल्य और उनके संरक्षण और संवर्धन के लिए आवश्यक विधि-निषेध का संकलन होता है। लेकिन जैसे हर आदर्श वस्तु यथार्थ नहीं होती, उसी तरह भारतीय उपमहाद्वीपीय, अफ्रीकी, पूर्वी एशिया के गुलाम रहे देशों में विभिन्न अंग-उपांगों के साथ संविधान उपनिवेशोत्तर संरचना ही है। इस कथन से दो निष्कर्ष हैं – पहला कि इन देशों के उपनिवेश-पूर्व काल के पारम्परिक नीति दर्शन और मूल्यों का अस्तित्त्व कायम है। दूसरा- इनके संविधान द्वारा संजोए मूल्य औपनिवेशिकता से प्रभावित है।
नागरिकों के स्थानीय पारम्परिक नीति-दर्शन और मूल्य वास्तव में समुदाय के साभ्यतिक ऐतिहासिक अनुभवों का सार होते हैं। इनमें भूगोल, चेतन-अचेतन प्रकृति, जयवायु, पर्यावरण से लेकर आहार-विहार, सदाचार-नीति सम्बन्धी विधि-निषेध, संस्कृति और अध्यात्म से जुड़े अनुभव संकलित होते हैं। यही न्याय व्यवस्था का आधार होता है, जो कुटुम्ब से राष्ट्र तक नागरिकों के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के अंत:करण चतुष्टय द्वारा स्वयं के लिए स्वीकृत अनुशासन है।
ऐसी हर स्थानीय व्यवस्था चाहे वह जितनी अच्छी, मजबूत, खराब या कमजोर हो, उपनिवेशी सत्ता के उद्देश्य में बाधक होती है। उपनिवेशोत्तर चरित्र वाले संविधान में मजहबी परम्पराओं के हुक्मनामों और उससे पैदा वैश्विककृत मूल्यों के आधार पर बनी न्याय और कार्यपालिका आती है, जो अधिकतम बुद्धि या तर्क के स्तर पर दबंगई से स्थापित की होती है। अधूरी और कृत्रिम होती है। अपने अंग और उपांग के साथ स्थानीय परम्परा के प्रति एक नैसर्गिक द्वेष और दाम्भिक श्रेष्ठता का भाव रखती है। जबकि गैर-अब्राहिमी उपनिवेश रहे देशों में कार्यपालिका और न्यायपालिका नैतिकता को लेकर हमेशा निरपेक्ष भूमिका लेती है।
कारण स्पष्ट है कि नैतिकता स्थानीय धर्म-संस्कृति से जुड़ी हाेती है और उपस्थित उपनिवेशवाद एक अब्राहिमी दर्शन का परिणाम है। अत: इन देशों में यह अजीब किन्तु सत्य स्थिति बनती है, जहाँ न्याय का नैतिकता से कोई सरोकार नहीं होता। उपनिवेशी न्याय व्यवस्था अपने आकाओं के लूट तंत्र को बनाए रखने के माध्यम से अधिक कुछ नहीं रहा। आज भी वह अपनी भूमिका पर कायम है। गाहे-बगाहे यदि अदालतें नैतिकता को उद्धृत करती हैं तो उनकी नैतिकता किसी वैश्विक या विदेशी परिवेश से उठाकर स्थानीय मुद्दों पर आरोपित होती हैं। कई बार तो वह किसी मायिक प्रगतिशीलता, तार्किकता या आधुनिकता के असम्बद्ध प्रलाप जैसी प्रतीत होती है।
जब हम देश के कुछ बहुत भावनात्मक मुद्दों की समीक्षा करते हैं तो हमेशा उनके मूल में संवैधानिक कानूनों की साभ्यतिक मूल्यों के प्रति एक असंवेदनशीलता मिलती है। संविधान नैतिकता के कर्त्तव्य और विवेक आधारित निर्णय के पहलू को नहीं समझता। वह किसी कमांडमेंट की तलाश में रहता है जो वस्तुत: अधिकार की बात करता है, जो परमसत्ता या जगत के अन्य के साथ एक किस्म के सौदेबाजी पर आधारित है। इसे सनातन धर्म और उसकी नैतिकता का मूल कृतज्ञता को भारतीय मानस गाय के माध्यम से समझता है। फिर भी अंग्रेजीदां बैरिस्टरों और उपनिवेशवाद से जुड़े संविधान सभा के तमाम सदस्यों को गौरक्षा पर इतनी लम्बी बहसों के बाद बाध्य होकर गौवध निषेध को संविधान में स्थान देना पड़ा। यह दीगर बात है कि शीर्ष अदालतों ने बाद में अपने चरित्र के अनुसार ऐसे तमाम निर्णय लिए जिससे गौरक्षा, गौसंरक्षण और संवर्धन ही बेमानी हो गया।
यदि आज हमारे मन्दिरों, रसोईघरों में चर्बी मिले घी का निर्बाध प्रयोग हो रहा है। निरीह गाय आदि पशुओं के वध से प्राप्त मांसादि पदार्थ से बने साबुन, शैंपू, लिप्स्टिक या दवाएँ ग्राहक को बिना जानकारी के बेची जाना जायज है। तो इसमें गैरकानूनी कुछ नहीं है। लेकिन आप अपनी नैतिकता के साथ कैसे बचते हैं, यह आपका निजी प्रश्न जरूर है। क्या यह समझना आश्चर्य की बात नहीं कि शराब तो छोड़िए, चाय, बीड़ी तक से हिकारत करने वाले देश की नई पीढ़ी जिस तेजी से शराब, सिगरेट, ड्रग्स में डूबती जा रहा है! तो इसके लिए जमीन किसने तैयार की है?
नैतिकता से नीचे उतरें और समान न्याय की ही बात करें तो शीर्षस्थ अदालतें न्याय की जगह सामाजिक न्याय की पक्षधर हो जाती हैं। वस्तुत: यह सारा आयोजन संविधान के उस उपनिवेशी पहलू को मजबूत करने के लिए हाेता है, जिससे अदालतें खुद ताकत पाती हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि हिन्दुबहुल देश में ही जब हिन्दू पक्ष अन्य मजहबों के समान अपने धर्मस्थलों के निर्बाध प्रबन्धन के लिए अदालतों के दरवाजे खटखटाता है, तो उसे एक अपमानजनक टका सा जवाब देकर टरका दिया जाता है।
सनातन धर्म के समूल निर्मूलन की वकालत करने वाले मंत्री पर कार्रवाई के लिए जब कोई नागरिक कोर्ट जाता है और आरोपी मंत्री के मामले को हेट स्पीच के आरोपी हिन्दू साधु के केस के साथ सुनवाई करने की याचना करता है तो अदालत बिना ठोस कारण दिए पतली गली अख्तियार कर लेती है। सड़ांध गहरे तक है। निठारी हत्याकांड मामले में भारतवासियों ने जो न्याय देखा, उससे किसी को अचम्भा हुआ हो ऐसा नहीं लगता। बाटला हाउस एनकाउंटर, गोदरा नरसंहार, कमदुनी दुष्कर्म, जैसे मानवीय संवेदनाओं को झझकोर देने वाले चर्चित मामलों में भी शीर्ष अदालतें अपराधियों के प्रति जिस अतिमानवी मसीही क्षमा-करुणा प्रदर्शन करती है वह किसी भी गैरतमन्द नागरिक के विश्वास को धूल की तरह उड़ाने के लिए पर्याप्त है।
सत्ताप्रिय संवैधानिक संस्थाएँ उन सुधारों के खिलाफ भी खड़ी हो जाती हैं जो उनकी जवाबदेही तय करती हैं। इजराइल में ज्यूडिशियल रिफाॅर्म्स के खिलाफ अदालतों का रूख हो या भारत में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति एजेंसी विरुद्ध कॉलेजियम सिस्टम का मामला कोई अपनी सत्ता पर अंकुश नहीं चाहता। देश में अदालतें एक बन्द प्रणाली की तरह काम करती है। यहाँ कई बार निर्णय न्यायपालिका के कर्मचारी और वकील के बीच तकनीकी पेचिदगियों की नूराकुश्ती में तय हो जाते हैं। आम नागरिक के सामान्य बुद्धि के दुर्बोध होते हैं।
न्याय व्यवस्था से जुड़े लोगों के गठजोड़ का ही परिणाम है कि अदालती भ्रष्टाचार और उस पर निर्णायक कार्रवाई के पक्ष में इस पेशे से जुड़े लोग गलती से भी कहीं लिखते नहीं दिखते। अदालती व्यवस्था एक उद्योग की तरह काम करती दिखती है, जिसका समाज और लोगों की न्याय प्राप्ति के प्रति कोई जवाबदेही नहीं। लम्बित मामलों का बढ़ते रहना इसके लिए अमृत के समान होता है। न्याय के आस की अन्धी गलियों में साल-दर-साल, महीने-दर-महीने दिन-पर- दिन और पल-दर-पल आशा-निराशा के थपेड़े सहते बहुसंख्य भारतीय नागरिक अभिशप्त जीवन जीने को विवश हैं।
आज अदालती व्यवस्था और नागरिकों के लिए नैतिक और सुलभ न्याय प्राप्ति में जो विसंगतिकरण सामने आता है वह एक धातक व्याधि का परिचायक है, जो देश को दीमक की तरह खोखला कर रही है। नैतिकतापरक और लोकतांत्रिक मूल्यों के मानदंड पर कमजोर न्याय व्यवस्था देश में दबंग उपनिवेशी नैरेटिव की सबसे बड़ी पैरोकार बनने को बाध्य है। औपनिवेशिक काल से न्याय व्यवस्था के कारिन्दे जन साधारण से अलग-थलग रहते आए हैं। इसके पीछे न्यायपालिका से जुड़े लोगों का समाज में निष्पक्ष और अन्य प्रभावों से बचे रहने का तर्क रहा। किन्तु आज वह आम समाज से दूर रह कर किस महान नैतिकता का संदेश दे रहे हैं?
स्वतंत्रता के बाद जूरी सिस्टम से पल्ला झाड़कर अदालतों ने जिस तरह से अपनी शक्तियों को बढ़ाया है और सत्तामद में चूर सरकारों ने इसकी उपेक्षा की है वह दर्शनीय है। अदालतों में तत्काल जूरी व्यवस्था लागू करने के अलावा अब कोई विकल्प नहीं है। न्याय व्यवस्था अपनी ताकत और कमजोरियों के साथ अपरिहार्य रूप से शासन की जिम्मेदारी और परमाधिकार है। निरपेक्ष निष्पक्षता स्थानीय परिवेश के प्रति अनुत्तरदायी निरंकुशता का सबब है और यह भ्रान्ति जितनी जल्दी तोड़ी जाएगी, उतना श्रेयस्कर होगा।
इस दिशा में सबसे पहला और महत्त्वपूर्ण कदम होगा – न्यायिक व्यवस्था का सरलीकरण और लोकतांत्रिकरण। छोटे-मोटे अपराधों और सामजिक कुरीतियों के लिए समाज पंचायतों को भूमिका देने और आम आदमी के लिए नि:शुल्क, कार्यकुशल और प्रभावी न्याय व्यवस्था स्थापित करना जरूरी है। 99 अपराधी भले छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए – इस तरह की छद्म द्वंद्ववादी बौद्धिक जुगाली की जगह तथ्यात्मक व्यवहारिकता का दृष्टिकोण स्थापित किया जाना चाहिए। अन्याय पीड़ित नागरिक एक राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा कलंक है। जब तक अदालतों के निर्णय में समाज की सहभागिता नहीं बढ़ती, अदालतों की गैरजवाबदेही और समाज के हितों के प्रति उदासीनता को दूर नहीं किया जा सकता।
संभवत: दुनिया में ऐसा कोई विषय नहीं है जिसे पर हमारी शीर्ष अदालतें साधिकार दखल नहीं रखतीं ! चिन्ता का बड़ा विषय यह है कि निरंकुश और आत्ममुग्ध न्याय व्यवस्था निर्णयों में जिस तरह के लोकलुभावन और सामाजिक कल्याण के सब्जबाग की नुमाईश कर रही है, वह डरावना है। समानता के नाम पर बिना कर्त्तव्य या कर्म के या व्यवहारिक समझ के हर व्यक्ति के लिए समान वस्तु, स्थिति के अधिकार की पैरोकारी करती हैं। सीमित नैतिक और आर्थिक-सामाजिक सोच के साथ वे नागरिकों को दुनिया की बेहतरीन सुविधाओं और उपभोगों की बातें करते हैं। यह ऐसा नशा है जिसके आकर्षण से कम ही बच सकते हैं।
इसके लिए विरल शक्तिशाली चरित्र की आवश्यकता है। अदालतें नागरिकों के अधिकार, कर्त्तव्य, स्वत्व की समझ और मूलभूत चरित्र में मनोवैज्ञानिक स्तर पर बदलाव ला रही हैं। वहीं विधायिका वोटबैंक के लिए और कार्यपालिका सत्तातंत्र को खुश रखकर अपना उल्लू सीधा करने में लगी रहती है। अनैतिकता, अकर्मण्यता, समानता के भोगवाद के रास्ते हम अपने विनाश की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। आगे यह बात कहां तक जाएगी इसकी कोई सीमा नहीं। एक समाज और देश के प्रति जवाबदेह और नैतिकता से प्रतिबद्ध न्याय व्यवस्था हमारा अधिकार है। इसी में हमारे वास्तविक अभ्युदय की संभावना छिपी है। राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व के राजनीतिक पक्ष से आगे जाकर नैतिकता के तकाजे पर इसका निदान विधायिका को करना ही होगा जो राष्ट्र के लिए सर्वप्रथम जवाबदेह है।
—–
(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ भी लिखा लिया करते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।)