Prachi Nigam

योग्यतम रही इस बच्ची की ज़रा सी असुन्दरता क्या इसका बड़ा दोष है, जो…?

अनुज राज पाठक, दिल्ली

यहाँ तस्वीर में दिखने वाली बच्ची का नाम प्राची निगम है। आज, शनिवार 20 अप्रैल को उत्तर प्रदेश बोर्ड की 10वीं की परीक्षा के घोषित नतीज़ों में इसने अव्वल स्थान पाया है। कुल 600 में से 591 नम्बर पाए हैं। ऐसे में होना तो ये चाहिए था कि हर तबके से इसे बधाइयाँ मिलतीं। उज्ज्वल भविष्य के लिए शुभकामनाएँ दी जातीं। एक स्तर पर ऐसा हो भी रहा होगा, लेकिन कुत्सित दिमाग़ वाला एक तबका ऐसा है, जो योग्यतम सिद्ध हो चुकी इस बच्ची की ज़रा सी असुन्दरता को इसके बड़े दोष की तरह दिखाने, बताने की कोशिश कर रहा है। उसका मज़ाक बना रहा है। और विचित्र बात यह कि ये असामाजिक कृत्य तथाकथित सामाजिक माध्यम (सोशल मीडिया) पर हो रहा है। 

यह देखकर मुझे एक कहानी याद आ रही है। हमारे देश की ऋषि परम्परा में एक महर्षि हुए हैं अष्टावक्र। वे एक बार किसी निमित्त से राजा जनक की सभा में मिथिला पहुँचे। वह सभा विद्वानों से भरी हुई थी। महर्षि स्वयं भी महाविद्वान, लेकिन उनका शरीर आठ जगह से टेढ़ा-मेढ़ा था। इसीलिए तो वे अष्टावक्र कहलाते थे। तो वे जैसे-तैसे अपनी देह को सँभालते हुए उस राजसभा के बीच में जा खड़े हुए। हालाँकि इससे पहले कि वे राजा से सम्भाषण शुरू करते, सभासदों ने उनकी देहयष्टि (देह की बनावट) देखकर उन पर हँसना शुरू कर दिया। 

परन्तु यह क्या? सभासदों को हँसते हुए देख महर्षि अष्टावक्र भी जोर से हँसने लगे। यह देख राजा सहित सभी सभासद असमंजस में पड़ गए। सभा में शांति छा गई। किन्तु महर्षि अब भी हँस रहे थे। तब राजा जनक अपने सिंहासन से उठे और महर्षि के पास पहुँच गए। उन्हें प्रणाम किया और बोले, “ऋषिवर! आपके हँसने का कारण विदित नहीं हुआ। कृपया समाधान करें?” उत्तर में महर्षि बोले, “क्या आप इन सभासदों के हँसने का कारण जानते हैं?” इस पर राजा कुछ कहते, उससे पहले एक सभासद बोल पड़े, “हमें तो आपकी वक्रकाया देखकर हँसी आ गई।” तब अष्टावक्र बोले, “राजन्! मैंने सुना था कि आपके दरबार में विद्वान और संवेदनशील लोग मंत्रिपरिषद के सदस्य हैं। परन्तु यहाँ आकर मुझे भान हुआ कि आपने तो अज्ञानियों का समूह जुटा रखा है। इसलिए मुझे हँसी आई।” 

राजा बोले, “मैं कुछ समझा नहीं महर्षि?” तो अष्टावक्र ने कहा, राजन्! मैं इन्हें अज्ञानी न कहूँ तो क्या बोलूँ? कारण कि इनकी दृष्टि में मेरी देहयष्टि ही सब कुछ है, मेरे ज्ञान, मेरी आत्मिक शुद्धता का कोई मोल नहीं। यही नहीं, इन सबको यह भी नहीं पता कि मेरी जिस देहयष्टि पर ये हँस रहे हैं, उस मिट्‌टी के पात्र को भी उसी कुम्हार ने बनाया है, जिसने इनकी काया रची है। तो क्या ये उस कुम्हार के कौशल, उसकी योग्यता, उसके निर्णय का परिहास भी नहीं कर रहे हैं? ऐसे अज्ञानियों पर हँसने के अलावा मेरे सामने और विकल्प ही क्या रह जाता है?” इसके बाद कहीं जाकर राजा और उनके सभासदों को अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने महर्षि से क्षमा माँगी। 

दरअस्ल, हम आज से नहीं अपितु सदियों से ऐसे ही विद्रूप समाज में रह रहे हैं। इस सामाजिक विद्रूपता को ख़त्म करने के मक़सद से ही सम्भवत: हमारे आराध्य देवी-देवताओं को असामान्य मानवीय कायाओं में दिखाने की परिकल्पना की गई होगी। किसी के बहुत से हाथ, किसी के एक से अधिक सिर, किसी के सूँड तो किसी के पूँछ। किन्तु यहाँ भी देखिए कि हमने भय, निष्ठा, प्रेम, भक्ति जैसे भावों के कारण देवी-देवताओं की असामान्य मानवीय देहयष्टियों को तो स्वीकारा, लेकिन उनके अलावा किसी और को वैसे देखकर हमेशा मज़ाक बनाया! 

कारण जानते हैं? वास्तव में इसका एकमात्र कारण यह है कि हम महज अधकचरी मानवजाति के स्तर तक ही विकास कर सके हैं। हम इंसानों में तमाम तरह की कुंठाओं का भी यही एक कारण है। एक बार किसी ने आचार्य रजनीश से ऐसे ही सन्दर्भ में सवाल किया था कि अधिकांश लोग हमेशा कुंठाग्रस्त क्यों रहते हैं? तब ‘ओशो’ ने सटीक उत्तर दिया था, “वास्तव में मानव ईश्वर की एक ऐसी कृति है, जो बनना तो चाहता है दैव लेकिन बन नहीं पाता। तब वह कुंठाग्रस्त होकर अपने से निम्न योनि (पशु, राक्षस आदि) वालों जैसे कृत्य करने लगता है।” 

प्राची के मामले में सोशल मीडिया पर जो हो रहा है, वह ऐसा ही निम्न कृत्य है। ऐसा कृत्य करने वाले कुंठाग्रस्त लोग मानव समाज में लाइलाज़ बीमारी की तरह हमेशा से रहे हैं। आगे भी रहेंगे। लेकिन इसके बावज़ूद इस क़िस्म के सभी लोगों को मैं बस एक श्लोक याद दिलाना चाहूँगा…

“केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्।।”

अर्थात् : कंगन मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ाते, न ही चन्द्रमा की तरह चमकते हार। सुगन्धित जल से स्नान, देह पर सुगन्धित उबटन लगाने से भी मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ती और न ही फूलों से सजे बाल ही मनुष्य की शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत और सुसज्जित वाणी ही मनुष्य की शोभा बढ़ाती है। 

#SocialMediaTrolling, #UPboardresult, #Trolling
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)

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