समीर शिवाजी राव पाटिल, भोपाल, मध्य प्रदेश
इजरायल में हमास के घातक नरसंहार से दुनिया स्तब्ध है। यहूदियों के त्यौहार ‘सुक्कोत’ के दिन हमला। एक संगीत कार्यक्रम के दौरान बेगुनाह, अनजान लोगों का कत्लेआम। महिलाओं के साथ दुष्कर्म। मृतक महिला की लाश पर नारा लगा कर जश्न मनाता हुजूम। इस सबकी तस्वीरें लम्बे समय तक मानवीय चेतना पर अंकित रहेंंगी। हालाँकि मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देने वाले चित्रों, चलचित्रों और कहानियों में सच की वह तस्वीर धुंधली हो जाती है, जो विश्व परिदृश्य पर बड़े और विनाशकारी संकेत का आगाज कर रही है। और वह सच है, इस्लाम और ईसाई जगत का एक-दूसरे के खिलाफ निर्णायक युद्ध की ओर तेजी से बढ़ना।
घटनाक्रम की गम्भीरता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यूरोपीय और अमेरिकी मीडिया जहाँ ‘हमास’ के लड़ाकों द्वारा किए गए खून-खराबे की बेहद विचलित कर देने वाली रिपोर्ट दिखा रहा है। इस घटनाक्रम के कारण और परिणामों पर खबरें कर रहा है। वहीं, अरब जगत की सहानुभूति फलिस्तिनियों के पक्ष में स्पष्ट दिखाई दे रही है। पश्चिमी देशों की नीति ‘हमास’ और ‘हिजबुल्ला’ जैसे आतंकी संगठनों पर फोकस रखकर इस्लामी जगत के भेद को भुनाने की है। वहीं, अरब देशों में इस मामले को लेकर असमंजस है।
मामला ज्यादा पेचीदा इसलिए भी है क्योंकि इस्लाम और ईसाई जगत के आसन्न युद्ध की जड़ें इन दोनों की मजहबी और सभ्यताई सोच में निहित हैं। एकान्तिक सत्य के दावे और उपनिवेशी इतिहास की नाइंसाफियों की अनगिनत दास्तानों से गुजरी आधुनिक पश्चिमी मानव सभ्यता के पास कोई जवाब नहीं है। गौरतलब कि ईसाईयत व इस्लामियत ने रक्तसम्बन्धी कबीलाई बनावट, परमतत्त्व (जिहोवा) से अनुबन्ध, एकान्तिकता, प्रकृति और जीव से सम्बन्ध जैसे मूलभूत विचार यहूदी परम्परा से लिए हैं। फिर उसका लौकिकीकरण किया है। तिस पर यह अजब संयोग है कि यह दोनों मजहब अब यहूदी कौम (जो इजराइल में रहती है) के मुद्दे पर ही पत्ते खोलने के लिए मजबूर हैं। और इससे जो तस्वीर सामने आई, वह सभ्यताओं के संघर्ष के सिद्धान्त की पुष्टि कर रही है। इसमें भी दिलचस्प ये कि पश्चिम में सभ्यताओं के ऐसे संघर्ष के सिद्धान्त की ओर ध्यान खींचने वाले विचारक सैम्युअल हंटिंगटन भी यहूदी ही थे।
तो अब आगे क्या?
ऐसे में सवाल हो सकता है कि अब इजराइल में शुरू हुई लड़ाई का भविष्य क्या हो सकता है? इसका एक जवाब ये है कि ‘हमास’ और ‘हिजबुल्ला’ जैसे संगठनों के खिलाफ इजराइल हर सीमा से परे जाकर कार्रवाई करने के लिए बाध्य रहेगा। यह दिख भी रहा है। इसका कारण ये कि यह परिस्थिति उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न है। वहीं, इस्लामी जगत के लिए यह परीक्षा का मौका होगा। इस मुद्दे पर अवाम जितनी अधिक आन्दोलित होगी, अरब की राजसत्ताएँ उतनी कमजोर होंगी। या वे इजराइल के खिलाफ सीधे उतरने के लिए बाध्य होंगी।
गाजा पट्टी की नाकाबन्दी, लेबनान, मिस्र और ईरान की ओर से की गई हरकतें और उनके खिलाफ इजराइली कार्रवाई यूरोप और दुनिया भर के मुसलमानों को उद्वेलित किए बिना रहेगी, यह सम्भव नहीं लगता। वहीं, अमेरिका ने युद्धपोत भेजकर तमाम पड़ोसी देशों को अपने रूख का संकेत कर दिया है। उसके समर्थक देशों का रुख भी इस मामले में उसके जैसा ही है। यानी यह संघर्ष अगर इस्लाम और ईसाई जगत को एक-दूसरे के खिलाफ निर्णायक युद्ध की ओर चला जाए, तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। यही नहीं, भारत जैसे गैरइस्लामी देशों में कोई भूमिगत इस्लामी संगठन मौके का फायदा उठाकर धृष्टतापूर्ण हरकत कर दे तो भी अचरज नहीं होना चाहिए।
और इस सबका इससे भी चिन्ताजनक पहलू यह कि विश्व-अर्थव्यवस्था अधिक अस्थिरता की हालत में पहुँच जाए। अमेरिकी डॉलर और कमजोर हो जाए। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद से पस्त पेट्रोलियम सैक्टर अधिक अस्थिर हो जाए। और ऐसे कारणों की आड़ में अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान विकासशील देशों के सामने अप्रत्याशित आर्थिक व्यवधान खड़े कर दें, तो इसे भी नामुमकिन नहीं समझा जाना चाहिए। यानी कम शब्दों में कहें तो दुनिया युद्ध और अस्थिरता के एक नए संक्रमण काल में प्रवेश करने को लगभग तैयार नजर आ रही है।
—–
(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ भी लिखा लिया करते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।)