multitasker

एक वक़्त में कई काम करना अच्छा ही होता है, ऐसा मानना सही नहीं

टीम डायरी

एक वक़्त में कई काम करना अच्छी बात है, ऐसा बहुत से लोग सोचते हैं। कई लोग तो करते भी हैं। कान में मोबाइल लगा होता है, किसी से बात कर रहे होते हैं और मोटरसाइकिल या कार भी चलाते जाते हैं। जबकि वाहन चलाने के दौरान ही चार-पाँच प्रकार की चीजों का एक साथ तारतम्य बिठाना होता है। स्टियरिंग, गियर, क्लच, एक्सलरेटर आदि। फिर भी मोबाइल इस सबके बीच अतिरिक्त रूप से जुड़ जाता है। या कहें कि जोड़ लिया जाता है। इसी तरह से घर में गृहणियाँ भी, आम तौर पर, एक वक़्त में एक से अधिक काम करते देखी जा सकती हैं। बच्चों में भी यह आदत, उनके बड़ों से होते हुए अपने आप ही आ जाती है। दफ़्तरों में भी कुछेक लोग ऐसे मिल ही जाते हैं।

नए दौर की ज़बान में इस क़िस्म के लोगों को ‘मल्टीटास्कर’ कहा जाता है। और इस कौशल को विशिष्ट विधा माना जाता है। ऐसा करने वाले ख़ुद को अधिक स्मार्ट समझते हैं। बाकी लोगों के सामने इस रूप में ख़ुद को पेश कर के गौरवान्वित महसूस करते हैं। देखने वाले, जानने वाले उनकी इस विधा से चौंकते हैं। कुछ हद तक प्रभावित होते हैं। लेकिन अगर ये कहा जाए कि मल्टीटास्किंग की यह विधा न अधिक चौंकाऊ है और न प्रभावी ही, तो क्या सहजता से यह बात मान ली जाएगी? शायद नहीं। हालाँकि फिर भी यह एक सच्चाई है। कुछ नए-पुराने अध्ययन साबित करते हैं कि मल्टीटास्किंग हमारे लिए फ़ायदेमंद कम और नुक़सानदेह अधिक है।

अमेरिका के कैलीफोर्निया में स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी है। वहाँ हुआ एक अध्ययन बताता है कि एक वक़्त में एक से ज़्यादा काम करने से सबसे अधिक नुक़सान दिमाग़ को होता है। क्योंकि दिमाग एक वक़्त में एक या अधिक से अधिक से दो कामों पर ध्यान केन्द्रित कर सकता है। ठीक तरह से उन्हें कर सकता है, शरीर के दूसरे हिस्सों से करा सकता है। यानी इसका मतलब ये भी है कि अगर जबर्दस्ती दिमाग को एक वक़्त पर एक से अधिक कामों में लगाया गया तो कोई भी काम ठीक से नहीं हो पाएगा। कहीं भी पूरा ध्यान नहीं लगेगा। पूरा नतीज़ा नहीं निकलेगा। कहीं-कहीं कुछ गड़बड़ियाँ भी हो जाएँगी, जिनकी वज़ह से सबके सामने शर्मिन्दगी उठानी पड़ सकती है।

इतना ही नहीं, अध्ययन बताते हैं कि एक वक़्त पर एक से ज़्यादा काम करने से बुद्धिमत्ता का स्तर धीरे-धीरे कम होता जाता है। उत्पादकता भी कम होती है। इसके नतीज़े में थकान, तनाव, आदि के रूप में दिमाग़ को जो नुक़सान होता है, वह तो है ही, नौकरी, काम-धंधे से भी हाथ धोने की नौबत भी आ जाती है। सड़कों पर तो दुर्घटनाएँ भी हो जाती हैं। लिहाज़ा, विचार कीजिएगा। मसला ‘रोचक-सोचक’ ही नहीं, बेहद अहम भी है। और फिर बुज़ुर्ग लोग भी हमें यही बता-समझा कर गए हैं न, ‘एक ही साधै सब सधै, सब साधै जब जाय’। हो सके, तो बुज़ुर्गों की कही मानने की भी कोशिश कीजिएगा।

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *