सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 16/11/2021

तैत्तिरीय उनिषद् में एक प्रसंग है। ऋषि भृगु और उनके पिता का। ऋषि भृगु अपने पिता वरुण के पास जाते हैं और पूछते हैं, परमात्मा कैसा है? वरुण कुछ विचारमग्न होकर पुत्र को देखने लगते हैं। और भृगु उस परमात्मा को पाने की उत्कट अभिलाषा व्यक्त कर देते हैं।

वरुण स्वयं विद्वान महात्मा व्यक्ति थे। वह सोचते हैं कि भृगु को किस तरह समझाया जाए कि बात इसके समझ में आ जाए। वे भृगु से कहने लगते हैं, “अन्न, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन, वाणी ये सब परमात्मा की उपलब्धि के द्वार हैं।” भृगु ऐसा सुनकर विचार करने लगते हैं और कहते हैं, “हाँ मैंने जान लिया कि अन्न ही ब्रह्म है।” वरुण उसे फिर से विचार करने को कहते हैं।

भृगु एक-एक कर सभी के बारे में यही बात दोहराते हैं कि “हाँ मैंने जान लिया”। वरुण हर बार भृगु को केवल और विचार करने को कहते हैं। भृगु धीरे-धीरे समझ जाते हैं कि अन्न भी परमात्मा है। प्राण भी परमात्मा है। समस्त जगत परमात्मा है। मैं स्वयं परमात्मा हूँ। क्योंकि “सम्पूर्ण भोग वस्तुएँ, इनको भोगने वाला जीवात्मा और परमेश्वर भी मुझसे अभिन्न है। अत: वह भी मैं ही हूँ।”

वरुण भृगु की किसी बात को मना नहीं करते। भृगु जिसे भी ब्रह्म के रूप में मानते हैं, उसे बस यह विचार करने को कहते हैं कि “क्या तुम्हारा यह विचार अंतिम है? क्या जो जाना वह अंतिम सत्य है? जिस चीज़ की खोज की, क्या इसके बाद किसी अन्य चीज़ को खोजना नहीं पड़ेगा? क्या तुम्हारा मन अपने प्रश्नों को पा चुका है? अब कुछ जानना शेष नहीं रहा?”

बस यहीं सभी प्रश्न शांत हो जाते हैं। समस्त विश्व एक हो जाता है। सब, हम सब में और सब, हम में हो जाते हैं। किसी से कोई विरोध रहा ही कहाँ? फिर बचा क्या? बचा केवल सत्य। केवल ब्रह्म।

यही सत्य भगवान महावीर बताते हैं कि आपकी दृष्टि सही हो सकती है, लेकिन फिर से विचार कीजिए। विचार कीजिए कि क्या जो जाना, वह अंतिम सत्य है? जो कहा, वह अंतिम है? क्या इसके बाद कुछ शेष रह गया?

जब भी हम विविध पक्षों पर विचार करते हैं, तब पक्षपात समाप्त हो जाता है। जैन धर्म के विषय में किसी ने दो पंक्तियों में कहा हैः

“स्यादवादो वर्त्तते यास्मिन पक्षपातो न विद्यते।

 नास्त्यन्यपीड़न किंचित् जैन धर्म उच्चते।।”

अर्थात जिसमें स्यातवाद का सिद्धांत है, किसी प्रकार का पक्षपात नहीं है, किसी को पीड़ा न हो, ऐसा सिद्धांत जिसमें है, उसे जैन धर्म कहते हैं।

स्यातवाद, अनेकांतवाद, अहिंसा और अपरिग्रह ये जैन धर्म के चार स्तम्भ है। विचार में अनेकांत, वाणी में स्यातवाद, आचरण में अहिंसा और जीवन में अपरिग्रह ये जैन धर्म धर्म के आध्यात्मिक चार स्तम्भ हैं।

जैन धर्म के, जैन दर्शन के इन स्तम्भों के विषय में क्रमश: आगे बात करेंगे। तब तक आप भी विचार करना शुरू कर दीजिए कि आपके साथ आज दिनभर में ऐसी कौनसी घटनाएँ घटीं, जिनके बारे में आप सोचना चाहेंगे कि क्या यही अंतिम सत्य है? और कमेंट बॉक्स में शेयर कीजिए अपनी बातें।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 36वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां… 
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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