टीम डायरी, 24/6/2021
आज संत कबीरदास जी की जयन्ती है। ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा तिथि। सन् 1398 में कबीरदास जी का जन्म हुआ, ऐसा बताया जाता है। मतलब आज से लगभग 623 बरस पहले। लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद कबीर आज भी प्रासंगिक हैं। दो-दो, चार-चार लाइनों के छन्द और दोहों में वे सब जो कह गए हैं। जीवन के निचोड़ बता गए हैं। कोरोना के इस कालखंड में (वीडियो में कही जा रही) उनकी इस रचना को ही लें। हर शब्द, हर लाइन हथौड़े की तरह हम पार चोट करती है। हमें झिंझोड़ती है। हमारी आँखें खोलने की कोशिश करती है। जीवन का सबसे बड़ा सच दिखाने का प्रयास करती है।
अब ये दीगर है कि हम न तब इसे देखने को तैयार थे, जब कबीर हुए और न अब ही हैं। लेकिन सच तो सच है। सच, हमारे मानने- न मानने से बदलता थोड़े है। इसीलिए कोरोना के इस कालखंड में कबीर की इस रचना को आज उनकी जयन्ती के मौके पर सुना और गुना जा सकता है। वीडियो में डॉक्टर सुजित सिंह की आवाज है। उनका यह वीडियो एक यू-ट्यूब चैनल से #अपनीडिजिटलडायरी ने साभार लिया है। उनके वीडियो के नीचे दी गई टिप्पणियों से इनके बारे में इतना ही पता चलता है कि ये किसी उच्च-शिक्षण संस्थान में शिक्षक हैं।
डॉक्टर सुजित शिक्षक हैं। इसीलिए कबीर की शिक्षाओं को समझ रहे हैं। इतने भावपूर्ण तरीके से अपनी आवाज़ के जरिए समझा भी पा रहे हैं। जो समझे उसे, जो न समझे उसे भी। कबीर भी तो कुछ ऐसे ही निर्लिप्त भाव से अपनी बातें समझा गए हैं।
—
साधो ये मुर्दों का गाँव
पीर मरे, पैगम्बर मरि हें
मरि हें, ज़िन्दा जोगी।
राजा मरि हें, परजा मरि हें
मरि हें बैद और रोगी।।
साधो ये मुर्दों का गाँव
चन्दा मरि है, सूरज मरि है
मरि है धरणी अकाशा।
चौदह भुवन के चौधरी मरि हैं
इन हूॅँ की का आसा।।
साधो ये मुर्दों का गाँव
नौ हूँ मरि हें, दस हूँ मरि हें
मरि हें सहज अठासी।
तैंतीस कोटि देवता मरि हें
बड़ी काल की फाँसी।।
साधो ये मुर्दों का गाँव
नाम, अनाम अनन्त रहत है
दूजा तत्त्व न कोई।
कहे कबीर सुनो भाई साधो।
भटक मरो मत कोई।।
इन लाइनों की गहराई में जाने के लिए कोरोना की दूसरी लहर को याद कर सकते हैं। जब हर तरफ़ मुर्दे ही मुर्दे नज़र आ रहे थे। कोई चार काँधों पर, जिनके प्राण निकल चुके थे। कोई दो टाँगों पर, जिनकी आत्मा साथ छोड़ चुकी थी। वे दम तोड़ते या तोड़ चुके लोगों से भी मुनाफ़ा-वसूली में लगे थे। शायद अब भी लगे हों। अस्पतालों में पीर-पैगम्बर, राजा-रंक, गरीब-अमीर, चिकित्सक-मरीज का कोई भेद नहीं था। किसी की ठसक, किसी का रुतबा, किसी की रईसी, किसी का दबदबा, कुछ काम नहीं आया। आया तो बस अन्त।
इसीलिए तमाम उदाहरणों के बाद कबीर आख़िर में समझाते हैं- जीवन में अगर कुछ काम आता है, हमारे बाद भी बचा रहता है, तो वह है नाम, जो अच्छे कर्मों से मिलता है। इसलिए दो टाँग वाले मुर्दा बनने से हम बच रहें तो बेहतर। इसके लिए रास्ता? वह भी कबीर की आख़िरी लाइन से… इधर-उधर भटकने के बजाय हर जीव में एक इकलौते अनन्त ईश्वर को देखें, देख सकें, तो कम से कम जीवन के उतने क्षणों में तो हम चलते-फिरते मुर्दा ज़िस्म होने से बच ही सकते हैं।