नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश
आज जन्माष्टमी है। रस्मअदायगी के तौर पर मीडिया-सोशल मीडिया में श्रीकृष्ण के जीवन से मूल मंत्र लेकर सबको बाँटे जा रहे हैं। आम बोल-चाल की भाषा में कहें तो भरपूर ज्ञान बाँटा जा रहा है। इसमें एक ज्ञान ‘कर्मयोग’ का है। श्रीकृष्ण से बड़ा ‘कर्मयोगी’ इस सृष्टि में न कोई हुआ, न होगा। उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में बिना किसी परिणाम की परवा किए बस अपना काम किया। कौन क्या कहता है, क्या सोचता है, उनके किए से उन्हें व्यक्तिगत तौर पर लाभ होगा या हानि, ये सब नहीं सोचा। बस, एक ध्येय रखा कि उनके हर काम से जनकल्याण होना चाहिए।
दिलचस्प है कि इस क़िस्म के ज्ञान को हर साल बाँटते समय अक्सर लोग अपने से अलग दूसरों को शिक्षा दिया करते हैं। तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में कहा है न, “पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।” कुछ-कुछ वैसे ही। हमेशा की रीत रही है। अब भी चलती आ रही है। आगे भी चलते रहेगी। दूसरों को उपदेश देना आसान होता है। खुद उन्हें अपने आचार-व्यवहार में ढालने वाले लोग गिनती के भी नहीं होते। अलबत्ता, थोड़े-बहुत ही सही, होते तो फिर भी हैं। और उन्हीं थोड़े-बहुत में एक नाम है- सिलचर, असम के डॉक्टर आर रवि कन्नन। वे ‘कछार कैंसर अस्पताल एवं शोध केन्द्र’ (सीसीएचआरसी) के निदेशक हैं। और श्रीकृष्ण के ‘कर्मयोग के साधक’।
डॉक्टर कन्नन कैंसर रोग ठीक करने के लिए किए जाने वाले ऑपरेशन के विशेषज्ञ हैं। यानि वह रोग जिसके नाम पर ही डराकर दूसरे तमाम डॉक्टर और अस्पताल, मरीज तथा उनके परिजनों से लाखों रुपए वसूल लिया करते हैं। यह रकम 15-20 या 50 लाख तक भी हो सकती है। स्थिति पर निर्भर करता है। लेकिन डॉक्टर कन्नन के केन्द्र में महज एक लाख रुपए के आस-पास के खर्च में हर तरह के कैंसर का इलाज हो जाता है। वह भी ऑपरेशन सहित। कोई आज से नहीं, बीते 15-16 सालों से यह सिलसिला ऐसा ही चल रहा है। डॉक्टर कन्नन के ‘कर्मयोग की साधना’ साल 2007 में शुरू हुई। विशेषज्ञ के तौर पर पढ़ाई पूरी करने के बाद सिलचर में उस समय जब इन्होंने काम शुरू किया, तो न इनके पास बहुत सारा पैसा था, न इन तक इलाज़ की आस में आने वाले मरीज़ों की जेब में ही।
सीसीएचआरसी की वेबसाइट है। उसके ‘अबाउट अस’ सैक्शन में जाने पर ‘हू वी आर’ के नाम से शीर्षक मिलता है। यानि ‘हम कौन हैं’। इसमें परिचय देते हुए संस्थान बताता है, “अस्पताल को एक गैरसरकारी संस्था- कछार कैंसर अस्पताल सोसायटी चलाती है। बिना लाभकारी उद्देश्यों से। यहाँ आने वाले 80 फ़ीसद मरीज़ आज भी श्रमिक होते हैं। खेतों और चाय के बाग़ानों में काम करने वाले। इनमें से 75 फ़ीसदी मरीज़ों का इलाज़ ‘मुफ़्त जैसा’ होता है। यानि उनसे लिए जाने वाले पैसे न के बराबर होते हैं। उनके इलाज़ का ख़र्च अस्पताल उठाता है। और बाकी जिनसे पैसा लिया जाता, वहाँ भी ध्यान रखा जाता है कि ख़र्च मरीज़ की देय-क्षमता के भीतर हो। इसके लिए जहाँ से हो सके, ख़र्च घटाया जाता है। जैसे- सभी मरीज़ समान रूप से सामान्य कमरों में रखे जाते हैं। निजी कमरे हैं ही नहीं।
अस्पताल में काम करने वालों को वेतन भी कम दिया जाता है। दवाईयाँ, बहुत ज़रूरी होने पर ही ब्रांडेड क़िस्म की दी जाती हैं। नहीं तो सामान्य सस्ती दवाओं, जिन्हें जैनरिक कहा जाता है, उन्हीं से काम चलाया जाता है। इलाज़ में काम आने वाले उपकरण, आदि बड़ी कम्पनियों/कारोबारी समूहों में सामाजिक उत्तरदायित्त्व के लिए रखी गई रक़म की मदद से लिए गए हैं। लिए जाते हैं। मूलभूत ढाँचा और सुविधाएँ भी ऐसे ही इन्तिज़ामात् से जुटाई जाती हैं। कर्ज़ वग़ैरा नहीं लिया जाता। क्योंकि फिर उसे चुकाने का बोझ अस्पताल या मरीज़ों को अपने कन्धों पर उठाना पड़ता। तो, इस तरह यह सिलसिला बीते डेढ़ दशक से चल आ रहा है। इस यात्रा में डॉक्टर कन्नन शुरुआत में अकेले थे। आज उनके साथ 20 से ज़्यादा चिकित्सकों सहित 450 ‘कर्मयोगियों’ की टीम दिन-रात सेवाकार्य करती है।
डॉक्टर कन्नन अब अपना कारवाँ पूर्वोत्तर के विभिन्न हिस्सों में ले जाने की तैयारी कर रहे हैं। ग्रामीण और क़स्बाई स्तर के छोटे अस्पतालों की शक़्ल में। ताकि लोगों को उनके घर के नजदीक कैंसर का इलाज मिल सके। इसमें सरकारें उनकी मददग़ार होती हैं। दुनिया उनके ‘कर्मयोग’ को सलाम करती है। देश के शीर्ष पुरस्कारों में से ‘पद्मश्री’ उन्हें मिल चुका है। अब 2023 का ‘रेमन मैग्सेसे पुरस्कार’ देने की घोषणा हो चुकी है।
और आज जब #अपनीडिजिटलडायरी के पन्नों पर उनकी कहानी दर्ज़ करते हुए उन्हें ‘श्रीकृष्ण के कर्मयोग का साधक’ बताया जा रहा है, तो यह भी उनके सम्मानों की श्रृंखला में एक कड़ी होती है। जन्माष्टमी पर उनके जैसी मिसाल के बारे में जानने, समझने और उनसे सीखने से बेहतर शायद ही कुछ बन पड़ता हो।