यह ज्ञान बड़ी विचित्र चीज है! जानते हैं कैसे…

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 22/3/2022

हम श्रृंखला के पिछले भाग में ‘जीव’ को समझने की कोशिश कर रहे थे। जीव चेतना युक्त हो, विवेक पूर्ण हो आदि। उसकी एक विशेषता थी ज्ञानवान होना। 

यह ज्ञान बड़ी विचित्र चीज है। इसकी विशेषता है कि हर जीव खुद को ज्ञानवान ही समझता है। इसी ज्ञानवान होने की अनुभूति के कारण ही एक जीव अन्य से प्रेम या ईर्ष्या करता है। 

इस ज्ञान की अनुभूति जीवों में प्रेम और ईर्ष्या का कारण ही नहीं अपितु हिंसा और अपराध तक का कारण बनती है। विविध धर्मों के मानने वाले प्रतिधर्म वाले के प्रति वैरभाव तक रखते हैं।

लेकिन जैन धर्म का ज्ञाता इतना उदार है कि अब अपने सिद्धान्तों के स्तर पर प्रत्येक मत को सुन्दर और सम्भावना के स्तर पर एक पक्ष के तौर पर स्वीकार करता है। इसकी उच्चता स्यातवाद के सिद्धान्त में देखी जा सकती है। 

हमारा अहम इस उच्चता को इस तरह हासिल किए रहता है कि हम अपने उक्त ज्ञान के कारण अन्य की हत्या जैसे काम तक कर डालते हैं।

समस्या यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने ज्ञान को वास्तविक ज्ञान मान अन्य के प्रति उपेक्षा भाव रखता है। ज्ञान के इस भाव का इस कथा में बड़ा सटीक वर्णन है।

एक बार एक युवा संन्यासी वास्तविक ज्ञान की खोज में निकलकर एक आश्रम में जा पहुँचा। वहाँ रहते हुए उसे एक लम्बा समय हो गया। लेकिन संन्यासी के मन में शान्ति की अनुभूति नहीं हुई। वह सोचने लगा मेरा यह वृद्ध गुरु नित्य कुछ बातों को ही दोहरा देता है। अधिक समय मौन रहता है। इस वृद्ध गुरु को अधिक या फिर वास्तविक ज्ञान नहीं है। मुझे अब किसी दूसरे गुरु की खोज कर ज्ञान पाना चाहिए। अभी युवा संन्यासी ऊहापोह में ही था और आश्रम से गया नहीं था कि तभी एक रात्रि वृद्ध गुरु का मित्र उस आश्रम में आया। गुरु ने अपने शिष्यों से कहा, “कल मैं मेरे मित्र से सत्संग करूँगा।” अगले दिन उनके मित्र का प्रवचन शुरू हुआ। वह प्रवचन बहुत प्रभावशाली था। वेद, उनिषद्, पुराण, इतिहास आदि मंत्रों की, कथाओं की इतनी सुन्दर व्याख्या युवा संन्यासी ने कभी नहीं सुनी थी। युवा संन्यासी मन ही मन सोचने लगा कि अब इन्हें ही अपना गुरु बना लूँगा और सच्चे ज्ञान की प्राप्ति करूँगा। लेकिन रात होते-होते प्रवचन की अन्तिम व्याख्या के उपरान्त प्रवचन दे रहे गुरु ने संन्यासी के वृद्ध गुरु और अपने मित्र से पूछा, “आज मेरी व्याख्याएँ कैसी थीं।” ज़वाब में वृद्ध गुरु जोर से खिलखिला कर हँसने लगे और बोले, “मित्र तुम अभी तक शब्द रटकर बोलते हो? शब्दों के भाव पकड़ो। उनके अर्थ पकड़ो। उनके स्वरूप को पकड़ो। तुम अभी तक उधार के शब्दों को बोल रहे हो। मित्र, कब तक तुम ज्ञान को शब्दों की ध्वनियों में ढूँढ़ते रहोगे। शब्द-ब्रह्म की आराधना करो।” 

अपने गुरु की यह बात सुनकर युवा संन्यासी आश्चर्य से भर गया। अभी कुछ समय पहले तक वह सोच रहा था मुझे सच्चा गुरु मिल गया। लेकिन अब वह भाव की महत्ता समझ सका था कि ज्ञान तो पढ़े को जीवन में उतार लेना है। शब्द रटना नहीं बल्कि हृदय में स्थित नाद को सुनना है। वही नाद वास्तविक ज्ञान है। क्योंकि हृदय में ज्ञान अपने वास्तविक स्वरूप में रहता है। जिसका स्वरूप मानवीय है। जो अपने पवित्र स्वरूप में है और जिसका स्वरूप ही पवित्र है।

इसी ज्ञान के विषय में भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं – 

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। 
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।( 4/38)

अर्थात् ज्ञान से पवित्र कुछ नहीं, इस ज्ञान को अपने अन्त: करण से पा सकते हो।

ऐसे ही आत्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए जैन आचार्य कहते हैं – 

ज्ञानाद् भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्न: कथंचन।
ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तित:।। ( स.द.स.)

अर्थात् जो ज्ञान से भिन्न नहीं और न अभिन्न है। किसी प्रकार वह भिन्न और अभिन्न दोनों है, उसके पूर्व में अन्त में ज्ञान ही है, इसे ही आत्मा कहा गया है।

इसीलिए ज्ञानार्जन पर भगवान श्रीकृष्ण पूरा एक अध्याय कह देते हैं। वास्तविक ज्ञान मानव हित के लिए इन्द्रिय लोभ से ऊपर उठकर केवल समाज, राष्ट्र और प्राणी मात्र के हित के लिए कार्य करता दिखाई देता है। ऐसा ज्ञानवान ही स्व-त्याग कर, अहम् त्याग कर मानव उन्नति के लिए कार्य करता है। प्राणी मात्र के लिए प्रेम से भरा हुआ होता है।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 50वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ… 
49. संसारी और मुक्त जीव में क्या भेद है, इस छोटी कहानी से समझ सकते हैं
48. गुणवान नारी सृष्टि में अग्रिम पद धारण करती है…
47.चेतना लक्षणो जीव:, ऐसा क्यों कहा गया है? 
46. जानते हैं, जैन दर्शन में दिगम्बर रहने और वस्त्र धारण करने की परिस्थितियों के बारे में
45. अपरिग्रह : जो मिले, सब ईश्वर को समर्पित कर दो
44. महावीर स्वामी के बजट में मानव और ब्रह्मचर्य
43.सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से बाँट दो
42. सत्यव्रत कैसा हो? यह बताते हुए जैन आचार्य कहते हैं…
41. भगवान महावीर मानव के अधोपतन का कारण क्या बताते हैं?
40. सम्यक् ज्ञान : …का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात!
39. भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में जिन तीन रत्नों की चर्चा की, वे कौन से हैं?
38. जाे जिनेन्द्र कहे गए, वे कौन लोग हैं और क्यों?
37. कब अहिंसा भी परपीड़न का कारण बनती है?
36. सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी? 

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