कानून मंत्री भूल गए…इंसाफ दफन करने के इंतजाम उन्हीं की पार्टी ने किए थे!

विजय मनोहर तिवारी की पुस्तक, ‘भोपाल गैस त्रासदी: आधी रात का सच’ से, 16/12/2021

…केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली को अब पता चला है कि इंसाफ दफन हो गया है। उनका यही कथन आज (आठ जून 2010) की पहली सुर्खी है। यह उनका दिल्ली में दिया गया बयान है। अदालत के फैसले पर जब कैमरे सामने और माइक मुंह पर लगे तो मंत्री महोदय ने यह फरमाया। वे उस अतीत को भूल गए, जब इंसाफ को दफन करने के लिए ताबूत, रस्सी, कीलों और कब्र की खुदाई के लिए गैंती-फावड़े उन्हीं की पार्टी के सत्ताधारी नुमाइंदों ने तैयार कराए थे। अफसरों को उन्होंने रोजगार गारंटी योजना के जॉब कार्डधारी मजदूरों की तरह इस काम में लगा दिया था। किसी के जॉब कार्ड पर लिखा था कलेक्टर, किसी के कार्ड पर एसपी… 

…ऐसा (हादसा) अगर अमेरिका में होता तो यूनियन कार्बाइड, जो अब डाऊ केमिकल्स है, समाप्त हो जाती और उसके साथ कई इंश्योरेंस कंपनियां डूब जातीं। इतने मरहूमों के रिश्तेदारों और पांच लाख पीड़ितों के मुआवजे पर अर्थव्यवस्था हिल जाती। ये दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा हादसा था, जो मानवनिर्मित था और जिसके जिम्मेदारों की पहचान हो चुकी थी। इस सबके बावजूद जांच करने वालों की खामियों और कमजोरियों की वजह से पहले तो केस इतना लंबा खिंचा और जब परिणाम निकला भी तो इतना कमजोर। 

इस मामले में त्वरित और कारगर न्याय इसलिए भी बेहद जरूरी था कि इसके जरिए हम दुनिया को यह संदेश देते कि भारतीय राज्य व्यवस्था अपने नागरिकों की जिंदगी को गंभीरता से लेती है और किसी को भी उन्हें गिनीपिग समझने की इजाजत नहीं देती। भोपाल गैस त्रासदी कोई मानवीय भूल का नतीजा नहीं थी। यह सबित हो चुका है कि पैसे बचाने के लिए सुरक्षा संबंधी उसूलों को ताक पर रख दिया गया। ऐसा करते हुए संयंत्र के आसपास रहने वाले लोगों की जिंदगियों की कोई परवाह नहीं की गई। इसलिए हमारे यहां ही नहीं, इस घटना से स्तब्ध दुनिया भर के न्यायप्रेमी, जिम्मेदार लोगों के लिए त्रासदी की भयावहता के अनुरूप कठोर सजा की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन ढाई दशक बाद और वह भी केवल भारतीय दोषियों को दो दो साल की सजा के फैसले से वे सभी निराश होंगे।

हालांकि इसके ऊपर भी कई अदालते हैं। न्याय की उम्मीद खत्म नहीं होनी चाहिए, पर अदालत तो सबूतों और मजबूत दलीलों के आधार पर फैसला देगी। सरकारी पक्ष ऐसे मामलों में भी दोषियों को अपराध को गंभीरता के अनुपात में सजा नहीं दिलवा पाता तो व्यवस्था से लाखों लोगों का विश्वास उठ जाएगा।’ 

…लिहाजा तय हुआ कि इतने बड़े हादसे के इस फैसले तक पहुंचने में कौन कुसूरवार रहे हैं और किसकी गलती से मामले ने गलत रुख अख्तियार किया है, इन सवालों पर कानून के जानकारों से जवाब लिए जाएं।… 

…सो, जिन जानकारों से हमने बात की, उनमें संविधान विशेषज्ञ राजीव धवन, पूर्व जस्टिस फखरुद्दीन, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण, केंद्र सरकार के पूर्व सॉलीसिटर जनरल केके सूद और इस मामले की जांच से जुड़े रहे सीबीआई के पूर्व ज्वाइंट डायरेक्टर बीआर लाल शामिल थे। ….आइए, देखिए किसने क्या राय दी… 

राजीव धवन-  पूरे मामले में केवल सुप्रीम कोर्ट ही जिम्मेदार है। उसने 1996 में गैर इरादतन हत्या के मामले को लापरवाही से हुई मौत का दर्जा देकर दोषियों को छूट दी। अगर कमजोर धारा में मुकदमा दर्ज नहीं होता तो दोषियों को कम से कम दस साल की सजा होती। उस समय के एडीशनल सॉलीसिटर जनरल अलताफ अहमद ने 1996 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस अहमदी और जस्टिस एसबी मजूमदार की बेंच के सामने सीबीआई का पक्ष रखा। उन्होंने कहा कि सीबीआई के पास यूनियन कार्बाइड के खिलाफ कई सबूत हैं। साइंटिफिक और इंडस्ट्रीयल रिसर्च से मिले सबूत बताते हैं कि फैक्टरी के बड़े अफसरों को महीनों पहले से ही खतरे के बारे में मालूम था और उन्होंने बचाव के जरूरी कदम नहीं उठाए। ऐसे में यह उनकी लापरवाही नहीं बल्कि एक शहर को मौत के मुंह में धकेलने जैसा है। 

जस्टिस फखरुद्दीन- एंडरसन की जमानत की अर्जी जब जबलपुर हाईकोर्ट में लगी तब मैं वहीं वकालत करता था। बाद में हाईकोर्ट जज बना। जिन धाराओं में यह मामला चला, उसमें इससे ज्यादा सजा की गुंजाइश ही नहीं थी। इस मामले में दूसरी धाराएं लगनी थीं। यहीं से मामला गलत दिशा में मोड़ दिया गया। इसके अलावा एंडरसन को हर हालत में भारत लाया जाना चाहिए था। जब उसे गिरफ्तार किया गया था तो सबको उसकी जमानत की जल्दी थी। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे हिंदुस्तान हिल गया है। लग रहा था कि अगर उसे जमानत न मिली तो अमेरिका खा जाएगा। उसे बिना शर्त छोड़ दिया गया और अमेरिका जाने दिया गया। हमने इस पर आपत्ति भी दर्ज कराई कि अपराध की गंभीरता को देखते हुए जमानत में जल्दबाजी न बरती जाए। हमने सुप्रीम कोर्ट तक अर्जी लगाई लेकिन यह भी खारिज हो गई। तब साफ लग रहा था कि सरकारी वकील ढंग से पैरवी नहीं कर पाएंगे।  

प्रशांत भूषण- इस मामले को कमजोर करने के लिए सरकार कानून और अदालतें तीनों ही जिम्मेदार हैं। वरना यूनियन कार्बाइड के चीफ वॉरेन एंडरसन को अमेरिका भागने नहीं दिया जाता। उसको वापस लाने की कोई कोशिश नहीं हुई। सरकार डर रही थी कि दोषियों पर कार्रवाई करने से मल्टी नेशनल कंपनियां भारत नहीं आएंगी। यूनियन कार्बाइड के खिलाफ कड़ी कार्रवाई न करने का अमेरिका का भी दबाव था। इसी वजह से सरकार ने यूनियन कार्बाइड के साथ समझौता कर लिया। सरकार के सख्त न होने से अभियोजन पक्ष भी कमजोर रहा। गैर इरादतन हत्या के मामले को लापरवाही से हुई हत्या के मामले में बदल दिया गया। अदालत ने अभियोजन की हां में हां मिला दी। वह नहीं चाहती तो यह गैर इरादतन हत्या का मामला ही बनता और दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती। अब लापरवाही से हुई मौत का मामला चाहे सड़क दुर्घटना का हो या यूनियन कार्बाइड जैसी भयावह औद्योगिक दुर्घटना का, अधिकतम सजा दोनों में ही दो साल की है। चूंकि इस मामले में धाराएं बदलने पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग चुकी है इसलिए अब उन्हें इससे अधिक सजा नहीं मिल पाएगी। हाईकोर्ट में अपील व्यर्थ होगी। 

केके सूद-  सारा मामला सही धारा में केस नहीं चलाने को लेकर है। धारा 304 ए के दो भाग हैं- पहले में लापरवाही से हुई हत्या का मामला दर्ज होता है और दूसरी में गैर इरादतन हत्या का। पहले भाग में यानी लापरवाही से हुई मौत के मामले में अधिकतम सजा दो साल ही है। कानून इसमें फर्क नहीं करता कि लापरवाही से एक आदमी मरा है या 20 हजार। दुर्घटना के वक्त मेरा चचेरा भाई भोपाल में ही बतौर ब्रिगेडियर तैनात था। गैस के असर से वह जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो गया। मेरा मानना है कि सरकार को 304 ए में संशोधन करना चाहिए क्योंकि ये कानून सन् 1860 में बने थे। तब न यूनियन कार्बाइड जैसी खतरनाक फैक्टरियां थीं और न ही बीएमडब्ल्यू जैसी तेज कारें, जो एक बार में आठ-10 लोगों की जान ले लेती हैं। 

बीआर लाल- सीबीआई के जांच दल को केंद्र सरकार की ओर से साफ निर्देश थे कि वॉरेन एंडरसन को भारत लाने की कोशिश न की जाए। अगर एंडरसन को भारत लाया जाता तो मामला अलग ही शक्ल लेता। उसे न बुलाने से ही यह मामला कमजोर हो गया। ऐसे मामलों में सरकार का दखल होता है। सीबीआई का स्वतंत्र रूप से काम करना मुश्किल होता है। जांच बिल्कुल निष्पक्ष हो, सरकार की दखलंदाजी न हो और हम अदालत पर भरोसा करें।
(जारी….)
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(नोट : विजय मनोहर तिवारी जी, मध्य प्रदेश के सूचना आयुक्त, वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। उन्हें हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने 2020 का शरद जोशी सम्मान भी दिया है। उनकी पूर्व-अनुमति और पुस्तक के प्रकाशक ‘बेंतेन बुक्स’ के सान्निध्य अग्रवाल की सहमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर यह विशेष श्रृंखला चलाई जा रही है। इसके पीछे डायरी की अभिरुचि सिर्फ अपने सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकार तक सीमित है। इस श्रृंखला में पुस्तक की सामग्री अक्षरश: नहीं, बल्कि संपादित अंश के रूप में प्रकाशित की जा रही है। इसका कॉपीराइट पूरी तरह लेखक विजय मनोहर जी और बेंतेन बुक्स के पास सुरक्षित है। उनकी पूर्व अनुमति के बिना सामग्री का किसी भी रूप में इस्तेमाल कानूनी कार्यवाही का कारण बन सकता है।)
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श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ 
5. एंडरसन को जब फैसले की जानकारी मिली होगी तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी रही होगी?
4. हादसे के जिम्मेदारों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए थी, जो मिसाल बनती, लेकिन…
3. फैसला आते ही आरोपियों को जमानत और पिछले दरवाज़े से रिहाई
2. फैसला, जिसमें देर भी गजब की और अंधेर भी जबर्दस्त!
1. गैस त्रासदी…जिसने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को सरे बाजार नंगा किया!

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