नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश
अभी चन्द रोज पहले की बात है। यू-ट्यूब पर देश के ख्यात बाँसुरी-वादक पंडित रोनू मजूमदार जी का एक साक्षात्कार सामने आया। अरविन्द पारिख जी देश के बड़े विख्यात और वरिष्ठ सितार-वादक हैं। उस्ताद विलायत खान साहब के शागिर्द हैं। वे रोनू मजूमदार जी का साक्षात्कार ले रहे थे। साक्षात्कार क्या था। बैठक थी। कार्यक्रम का नाम भी ‘बैठक’ ही था। इसमें अरविन्द जी बड़े-बड़े कलाकारों के साथ बैठते हैं। उनसे बातचीत करते हैं। उनसे उनके अनुभव पूछते हैं। उन कलाकारों से थोड़ा कुछ सुनते हैं। अपनी भी सुनाते हैं। और इस तमाम चीजों से ‘बैठक’ में सामने बैठे चुनिन्दा कलाकार, संगीत के विद्यार्थी लाभान्वित होते हैं।
तो उस रोज के कार्यक्रम में बात चली कि रोनू मजूमदार जी ने कहाँ-कहाँ, किस-किस से, कैसे और क्या सीखा। जवाब में उन्होंने बहुत सारी बातें बताईं। पूरी ही मार्के की बात थी। लेकिन अपने ज़ेहन में एक ख़ास तौर पर जा ठहरी। और वह थी पंडित विजय राघव राव जी के साथ पंडित रोनू मजूमदार जी की एक स्मृति। यह बात उन दिनों की है जब रोनू जी ने विजय राघव राव जी से बाँसुरी सीखनी शुरू ही की थी। उम्र उस वक्त कम ही थी उनकी। उसी दौर से जुड़े एक वाक़िअे को साझा करते हुए रोनू जी बताया कि पंडित विजय राघव राव जी ऐसी बाँसुरी इस्तेमाल करते थे, जो सात अँगुलियों की मदद से बजाई जाती है।
इसे यूँ समझा जा सकता है कि बाँसुरी सामान्य तौर पर छह अँगुलियों से बजती है। यही आम प्रचलन में भी है। इसमें ऊपर के हाथ की तीन अँगुलियों से छिद्रों को बन्द करके जब फूँक लगाई जाती है तो पहला सुर यानी ‘सा’ सुनाई देता है। इसके बाद क्रम से दूसरे हाथ की तीन अँगुलियों से एक-एक कर जब नीचे के छिद्र बन्द किए जाते हैं, तो क्रमश: मन्द्र सप्तक (लोवर ऑक्टेव) का ‘नी’, ‘ध’ और ‘प’ बजता है। बस, इतना ही। मन्द्र सप्तक में इससे नीचे बाँसुरी के सुर, सामान्य रूप से नहीं जाते। कलाकार इसके लिए जुगत लगाते हैं।
इसके लिए कभी वे सभी छह छिद्रों को बन्द कर माउथ-होल (जहाँ से फूँक मारते हैं) को थोड़ा होंठ के अन्दर दबाते हैं। जैसा कि हरि प्रसाद चौरसिया जी और उनकी शैली वाले अन्य बाँसुरी-वादक करते हैं। या फिर कोई-कोई लोग बाँसुरी में अतिरिक्त रूप से ‘की’ यानी चाबी लगाकर उसकी मदद लेते हैं। जैसे- पंडित रघुनाथ सेठ जी किया करते थे और अब उनकी शैली से प्रभावित बाँसुरी-वादक करते हैं। इन दोनों ही तरीकों से बाँसुरी में मन्द्र सप्तक का ‘तीव्र मध्यम’ और ‘शुद्ध मध्यम’ बज जाता है। कोई-कोई इससे नीचे तक जाकर गंधार यानी ‘ग’ भी बजा लेते हैं। लेकिन जैसा कि रोनू मजूमदार जी ने बताया, “मेरे गुरु बाँसुरी में छह छिद्रों के नीचे एक सातवाँ छिद्र किया करते थे। इससे ‘म’ बजाने के लिए सीधे हाथ की छोटी अँगुली को पूरा फैलाकर नीचे तक ले जाना होता था। उससे छिद्र बन्द करना होता था। तब कहीं जाकर वह मन्द्र सप्तक का ‘म’ निकलता था।”
जो लोग बाँसुरी से थोड़ा-बहुत भी वाक़िफ़ हैं, उन्हें पता होगा कि सामान्य स्थिति में मन्द्र सप्तक का ‘प’ सही ढंग से, पूरे वजन के साथ, सुर में बजाना भी चुनौतीपूर्ण होता है। जब तक छिद्र कसकर बन्द न हों, तो वह ठीक से बजता नहीं। अब इसके बाद कमजोर समझी जाने वाली छोटी अँगुली से एक और छिद्र को बन्द करना और फिर मन्द्र सप्तक का तीव्र ‘म’ या शुद्ध ‘म’ बजाना? बड़े-बड़ों के लिए भी चुनौतीपूर्ण होता। फिर 12-13 साल के बालवय रोनू मजूमदार जी की बात ही क्या थी। सो, कोशिश के बाद भी बात नहीं बनी। और फिर उन्हें पंडित विजय राघव राव जी ने मन्द्र सप्तक के मध्यम से शुरू होकर ऊपर के सुरों की तरफ जाने वाले कुछ पलटा-अलंकार (सुर-समूहों के पैटर्न) बजाने का पाठ भी दे दिया। अब सोचिए! जब ‘म’ बजाना ही अभी चुनौती है, तो पलटा-अलंकार कैसे बजेंगे? सो, नहीं बजे और गुरु जी ने उन्हें डाँटकर कक्षा से चले जाने को कह दिया।
चोट सीधे दिल पर लगी रोनू जी को। सो, वे घर आए और 40 दिनों का संकल्प लिया। इसे रियाज़ की भाषा में कुछ लोग ‘चिल्ला मारना’ कहते हैं। मतलब 40 दिन जमकर रियाज़ कर के वे तमाम पलटा-अलंकार आदि साध लेना, जो बन नहीं रहे हैं। सो, लग गए रोनू जी भी। उनके मुताबिक, 25वें, 26वें दिन उनकी अनामिका और छोटी अँगुली के बीच के हिस्से में खूब सूजन आ गई। तब लगा कि ‘चिल्ला’ का क्रम टूट न जाए कहीं। जबकि ये टूटना नहीं चाहिए, ऐसा नियम है। लिहाज़ा, उन्होंने गरम पानी में हाथ डाल-डालकर सिकाई की और थोड़ी राहत मिलते ही उसी हालत में वे सभी पलटे-अलंकार बजाते रहे, जिन्हें साधना था। आख़िरकार 37-38वें दिन सफलता मिल गई। इसके बाद ऐसी मिली कि रोनू जी अगले कुछ सालों में ही देश के विख्यात बाँसुरी-वादकों में शुमाार किए जाने लगे और आज भी अपनी कला के शीर्ष पर बरकरार हैं।
अब इसके बाद बात आई यह समझने-समझाने की यह सब कैसे हुआ? तो रोनू जी ने बताया, “मैंने हमेशा विषय (सब्जेक्ट) से, अपनी बाँसुरी से, अपने संगीत से प्यार किया। उसमें मैं कहाँ पहुँचूँगा?, कब पहुँचूँगा?, कैसे पहुँचूँगा?, कितना कमाऊँगा?, ये सब ज्यादा सोचा नहीं। यानी सफलता (सक्सेस) मेरे ध्यान में नहीं थी। मैं तो बस करता गया। पड़ाव आते गए। उन्हें पार करता गया। और बस, जिसे लोग सफलता कहते हैं, वह भी अपने-आप मिलती गई।” इसके बाद उन्होंने युवा पीढ़ी को सन्देश भी यही दिया, “अपने सब्जेक्ट से प्यार कीजिए। सक्सेस अपने आप आपके हिस्से में आती जाएगी।” यही बात थी, जो अपने ज़ेहन में ठहरी।
अब ग़ौर कीजिएगा और ध्यान भी कि जब हमने स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई की तो हमारे दिमाग़ों में क्या था? अच्छा पढ़ना-लिखना या अच्छी नौकरी और पैसा? जब हमने संगीत, नृत्य, अभिनय जैसी किसी विधा को अपनाया तो हम क्या खोज रहे थे? मंच, प्रदर्शन, पैसा या सिर्फ अपनी कला में सर्वोच्चता? हमने जब भाषा, साहित्य, लेखन, अध्ययन-अध्यापन आदि विषयों में सम्भावनाएँ तलाशने के लिए पहला क़दम रखा तो हम क्या सोच रहे थे? नौकरी-पैसा या लिखे-पढ़े शब्दों में आनन्द? ऐसे सवाल हर कहीं हो सकते हैं। लेकिन सभी जगहों पर इनका ज़वाब यक़ीनन एक ही मिलेगा। वह भी सवाल की शक़्ल में कि, “लाखों साधकों की भीड़ में रोनू जी जैसे माहिर विशेषज्ञ सिर्फ़ एक फ़ीसद से कम क्यों हैं? शायद इसलिए कि सिर्फ़ उन्होंने ही सब्जेक्ट से प्यार किया। सो, सक्सेस उनके पीछे भागकर आई। जबकि बाकियों ने सक्सेस से प्यार किया, जो उनके आगे ही आगे खिसकती गई। सब्जेक्ट को अनदेखा किया, जो पीछे से और पीछे खिसकता गया। बीच में साधक रह गया। अकेला सा, असफल सा, असंतुष्ट सा।”
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