बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
अमावस की काली रात गहरा रही थी। यातनाओं से छुटकारा दिलानेवाला भी तो कोई हो। किसको टेरें? सुनकर दौड़ आने वाले श्रीहरि भी तो अब मन्दिरों में नहीं थे। घनघोर अँधेरा। आशा की धुँधली किरण भी नहीं। साल की बारह अमावसों ने एक साथ ही कब्जा किया था मराठा मुल्क पर। सालों-साल इसी तरह बीते। सदियों ने करवटें लीं। पर महाराष्ट्र का भाग्य उसी तरह सोया रहा। एक, दो, तीन सदियों से महाराष्ट्र पर अबाध रूप से सुल्तान राज कर रहे थे। महाराष्ट्र की बुद्धि और तलवार सुल्तानों की खिदमत में रम सी गई थी। स्वतंत्रता की उन्मुक्त हवा, अब उन्हें भूले-भटके भी याद नहीं आती थी। अपमान के अब वे आदी हो गए थे। महाराष्ट्र के सूरमाओं को अब आपसी वैमनस्य में उलझने की लत लग गई थी। विवेक का सागर सूख गया था। बाकी रह गई तो बस, क्षुद्र भावनाओं की दल-दल।
ज्ञानेश्वरी अज्ञान के अन्धकार में लोप हो गई। इस तमोयुग में अनाथों के नाथ एकनाथ, मराठा ठाकुरद्वारे की दहलीज पर खड़े हो गए। आर्तभाव से मराठों के अन्तर्मन में छिपी विवेकशक्ति को पुकारने लगे, “दरवाजा खोलो। दरवाजा खोलो माई।” इस पुकार का ऐसा असर कि एकनाथ जी के जीवन की साँझबेला में (ईस्वी 1560 से 1607) महाराष्ट्र की पूर्व दिशा में उजाला हुआ। वेरुल के भोसलों के दो पुत्र- मालोजी राजे तथा विठोजी राजे निजामशाही के सरदार थे। दरबारी कामों के साथ-साथ उन्होंने धरम-करम के, लोक कल्याण के काम करने का भी व्रत लिया। माता भवानी और शंकरजी के भक्त थे। उन्होंने श्रीघृष्णेश्वर का मन्दिर बाँधा। शम्भु महादेव जी के शिखर शिंगणापुर में मालोजी राजे ने एक विशाल तालाब बनाया। वहीं पर एक छोटा-सा अन्नक्षेत्र भी शुरू किया। शिखर शिंगणापुर के तालाब में और जनमानस में खुशी की लहरें हिलोरें लेने लगीं।
इन्हीं मालोजी राजे के यहाँ एक बेटा हुआ। नाम रखा गया शहाजी राजे। जन्म दिन था 5 मार्च, 1566। इसके दो ही साल बाद दूसरा बेटा हुआ। उसका नाम रखा शरीफजी राजे। मालोजी राजे की गृहस्थी फल-फूल रही थी। शूरता नए विक्रम स्थापित कर रही थी। कि अचानक वज्रपात हुआ। इन्दापुर की लड़ाई में मालोजी राजे का काम तमाम (ई.1605) हुआ। तब शहाजी राजे की उमर थी केवल सात साल। माँ उमाबाई साहब ने सती होने का निश्चय किया। उनके देवर विठोजी राजे ने आँखों में आँसू भरकर मनाया। तब कहीं अपना निश्चय उन्होंने छोड़ा। विठोजी राजे ने शहाजी राजे तथा शरीफजी राजे का ममता से लालन-पालन किया। भतीजों को शास्त्रास्त्र विद्या में निपुण किया। धीरे-धीरे बच्चे सयाने हुए।
शहाजी राजे 10 साल के हुए। शादी की उमर थी यह। विठोजी राजे की निगाह में एक लड़की थी। तेजस्विनी बाला। नाम था जिजाऊ। सिन्दखेड़ के राजा लखुजी जाधव राव की लाडली बेटी। लड़की गोरी थी। नाक-नक्श अच्छे। मुद्रा प्रसन्न थी। तेज-तर्रार, चतुर थी। विठोजी राजे ने लखुजी के पास शादी की बात चलाई। लखुजी को भी बात पसन्द आई। गुणों में, रूप-लावण्य में सोने का टुकड़ा थे शहाजी राजे। दामाद जँच गया। बात पक्की हुई।
मंडप डाले गए। कनातें हवा में झूलने लगी। गाजे-बाजे बजने लगे। लखुजी की जिजाऊ ने शहाजी राजे भोसले के गले में वरमाला पहनाई। दो बलशाली कुल रक्त-सम्बन्ध में बँध गए। शादी धूम-धाम से हुई। लखुजी ने दामाद को सिर आँखों पर बिठाया। हँसती-मुस्काती जिजाऊ विवाह-मंडप में लक्ष्मीजी जैसी जँच रही थी। शहाजी राजे और जिजाऊ ने भोसले की गढ़ी में गाजे-बाजे के साथ प्रवेश किया। लक्ष्मी सुनहरे कदमों से घर में आ रही थी। उमाबाई साहब की आँखें आनन्द के आँसुओं से भर आईं। सुहागनों ने वधू-वर की आरती उतारी। बलैंया लीं। सास ने बहू को गले लगाया।
शीघ्र ही शरीफजी राजे की भी शादी हुई। उनकी पत्नी का नाम था दुर्गाबाई। उमाबाई साहब का घर फिर एक बार खुशी से चहकने लगा। विठोजी राजे की गृहस्थी भी भरी-पूरी थी। उनके आठ बेटे थे। सम्भाजी राजे, खेलोजी राजे, मम्बाजी राजे, नागोजी राजे, परसोजी राजे, त्र्यंबकजी राजे, कक्काजी राजे और मालोजी राजे। बच्चे बड़े हो रहे थे। तलवार के जौहर दिखा रहे थे। ये आठ भाई और शहाजी, शरीफजी। निजामशाही में 10 सूरमाओं की अघाड़ी की फौज तैयार हो रही थी। सगे-चचेरे भाई हिल-मिल कर रह रहे थे। उमाबाई साहब के पति मालोजी राजे भोसले ने पुणे प्रान्त की रियाया को खुश किया था। और अब, 10 भोसले की यह जवाँमर्द पलटन अपने खानदान के तथा पुणे की जनता के हौसले बुलन्द कर रही थी।
शहाजी-जिजाऊ विवाह से जाधवराव एवं भोसले खानदान अपनत्व के बन्धन में बँध गए। चाँद सूरज में रिश्ता हुआ। दो मराठा ताकतें एक हुईं। जाधवराव खानदान के पराक्रम से खुद निजामशाह आतंकित रहता था। वहीं भोसलों ने भी हाल ही में इन्दापुर की रणभूमि में अपने पराक्रम का परिचय दिया था (दि. 1605)। हालाँकि दोनों खानदानों के रणबाँकुरे अभी निजामशाह के सच्चे खिदमतगार ही थे। बादशाह की ताकत उन्हीं के दम से थी। अलबत्ता उसे उनसे बगावत की आशंका जरूर थी।
मराठा सरदार शूर-वीर थे। सीधे-सादे, सरल थे। उन्हें अभी तो यह गुमान भी नहीं था कि उनके ही बलबूते पर उन्हीं के मुल्क में जुल्म ढाया जा रहा है। उनके मन में भूल से भी अब तक यह ख्याल नहीं आया था कि उनकी बगावत से सुल्तानों की सल्तनतें हिल उठेंगी। ढह जाएँगी। और वे खुद स्वतंत्र्य साम्राज्य के सार्वभौम सम्राट बनेगें।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
3- शिवाजी ‘महाराज’ : महज पखवाड़े भर की लड़ाई और मराठों का सूरमा राजा, पठाणों का मातहत हुआ
2- शिवाजी ‘महाराज’ : आक्रान्ताओं से पहले….. दुग्धधवल चाँदनी में नहाती थी महाराष्ट्र की राज्यश्री!
1- शिवाजी ‘महाराज’ : किहाँ किहाँ का प्रथम मधुर स्वर….
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