Mayavi Amba-29

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून और आस्था को कुरबानी चाहिए होती है

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

अंबा के खाली पेट में गुड़गुड़ाहट हो रही थी। भूख के कारण बहुत कमजोरी लग रही थी। लिहाजा, वह पास में ही बह रही नदी में घुस गई। उसमें बहुत सी चमकदार मछलियाँ दिखाई दे रही थीं। पानी बर्फ जैसा ठंडा था। पहले-पहल गहराई उसकी जाँधों तक ही थी। लेकिन वहाँ तक कोई मछली उसके हाथ नहीं आई। इसलिए वह और आगे बढ़ गई। अब पानी पेट तक पहुँच गया। इस वक्त एक-एक पल उसके लिए भारी हो रहा था। उसका शरीर थकान से निढाल था। बिना भोजन के कमजोरी हद से ज्यादा महसूस हो रही थी। पानी के नीचे रेत की काली परत और फिसलन भरी घास-फूस थी। फिर भी वह अपने थके हुए पैरों को उसी सतह पर टिकाकर जैसे-तैसे पानी में लहराती रही। उसके भीगे कपड़े उसे नीचे की तरफ खींच रहे थे। हाथ-पैर जैसे लोहे के हो चुके थे। अब तक कुछ भी हाथ नहीं आया था। आखिर में उसकी आँखें बंद होने लगीं। हाथ भी जवाब देने लगे। तो, उसने बाहर निकलने का मन बना लिया कि तभी एक मछली कूदकर उसके हाथ में आ गई। उसने उसे कच्चा ही चबा डाला। जैसे मुर्गी का कोई मसालेदार अंडा हो या फिर चिकन, मटन के साथ भात और साथ में मक्खन में सिके हुए मगुए के दाने। अब तक कोहरा घना होने लगा था। ठंडक जैसे बारिश की तरह बरस रही थी। लेकिन अब तक के भारी संघर्ष से थकी अंबा ने इसकी परवा किए बिना एक और मछली पकड़ी और उसे भी कच्चा चबा लिया क्योंकि भूख उस पर भयानक तरीके से हावी थी। इसके बाद वह झाड़-झंखाड़ और खरपतवार के बीच बनी पंगडंडी से होते हुए आगे बढ़ी। चलते समय उसके चेहरे और हाथों में जंगली बेरी के काँटे चुभ रहे थे। मगर वह चलती रही कि तभी उसे सामने सुअर का एक बाड़ा दिखाई दिया। वह लोहे और लकड़ी से बना था। उसका लोहा जंग खा चुका था। सीमेंट और तार से उसकी घेराबंदी की गई थी। सुअर के मल की बदबू से वहाँ साँस लेना दूभर था। इतने में उसे कुछ दूरी पर ही पेट तक कीचड़ में धँसे हुए पतले काले सुअर की झलक देखी। उसने टॉर्च की रोशनी फेंककर उसकी मौजूदगी को पुख्ता करने कोशिश की। लेकिन टॉर्च की बैटरी खत्म हो चुकी थीं। कीचड़ से भरे उस बाड़े में जीवन का कोई संकेत नहीं था।

अंबा के हाथ-पैर ऐसे सुन्न हो गए थे, जैसे कटकर अलग हो चुके हों। लगातार झर रही बर्फ से पलकें भारी हो गईं थीं। तापमान लगातार गिर रहा था। ठंडी हवाओं के तेज प्रहार से आँखें मुँदती जा रही थीं। शरीर के दूसरे अंग भी निष्क्रिय होते जा रहे थे। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। बचे-खुचे एहसास भी खत्म होने को थे। सिर्फ इतना ख्याल था कि अगर उसने तुरंत अपने लिए सुरक्षित, गर्म जगह नहीं ढूँढी तो बहुत कुछ खो देगी।

अचानक उसे अपने सामने आसन्न खतरे का एहसास हुआ। शुरुआत, गुर्राने की धीमी आवाज से हुई।

शायद कोई जंगली जानवर उसके नजदीक आ रहा था। करीब… और करीब। डर के मारे अंबा की रीढ़ काँप गई। वह पीछे की तरफ हटी। तभी नाले की दुर्गंध के झोंके ने उसका मुँह बंद कर दिया। आवाज खोखली सी होकर भीतर ऐसे गूँज गई, जैसे किसी गुफा में गूँजती है।

उसके दिल की धड़कनें तेज हो गईं। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। वह लगतार उस काली परछाई को देख रही थी, जो उसकी ओर बढ़ रही थी। अब तक उसके दिल की धड़कनों का शोर इतना तेज हो चुका था कि पूरा जंगल उसे सुन सकता था। इतने में ही, उसके दु:स्वप्न के राक्षस की तरह वह काली परछाई वाला विशाल जीव उसके सामने प्रकट हो गया। उस पल अंबा के लिए पूरे ब्रह्मांड में जैसे सिर्फ दो जीव ही रह गए थे।

एक- वह जंगली जानवर।

दूसरी- अंबा खुद।

वह काँप रही थी। रात को देखा हुआ उसका भयंकर सपना उसके सामने सच होने वाला था। हबीशों के किस्से-कहानियों में उसने जिन दैत्यों के बारे में सुन रखा था, कुछ उन्हीं की तरह अँधेरे में चमकती उस भारी-भरकम जीव की आँखें उसे घूर रही थीं। वह एक दैत्याकार भैंसा था। अपनी दहकती आँखों से घूरते हुए वह उसकी ओर ऐसे खतरनाक तरीके से आगे बढ़ा, कि अंबा लड़खड़ाकर जमीन पर गिर गई। अंबा को अब उसकी चमकती त्वचा होरी पर्वत की गहरी काली खंदकों की तरह नजर आ रही थी। उसकी काली परछाई और बड़े-बड़े सींगों से उसके आकार को और विकरालता मिल रही थी। उसके शक्तिशाली खुर प्रागैतिहासिक काल के किसी भयानक जानवर से मेल खा रहे थे। अंबा की ओर देखकर गरजते हुए उसका अंग-अंग फड़क रहा था। यह संघर्ष के लिए उसके पूरी तरह तैयार होने का संकेत था। यह देख अंबा के मुँह से भी चीख निकली, मगर दबी और घुटी हुई। हालाँकि वह वहाँ ऐसे मरना नहीं चाहती थी। और यह तो हरगिज नहीं चाहती थी कि उसका शरीर जोतसोमा के जंगल के किसी नरभक्षी की भूख मिटाए।

तभी भैंसा जोर से गरजा। सन्नाटे को चीरती हुई उसकी आवाज पूरे जंगल में गूँज गई। उसे सुनकर अंबा डर के मारे भीतर तक हिल गई। उस भैंसे का गलफड़ा हवा में झूल रहा था। मुँह से लार टपक रही थी। उसके भारी-भरकम शरीर पर उसकी आँखें आग उगलते दो छोटे छेदों की तरह दिख रही थीं। इतने में ही, वह गरजते हुए तेजी से लहराया और आगे बढ़कर उसने अंबा की ठोड़ी को मुँह में दबाोच लिया।

लेकिन यह क्या? अचानक ही उसका गरजना बंद हो गया। अंबा ने देखा कि उसका भारी-भरकम सिर नीचे झुक गया। बड़ी सी पूँछ थरथराने लगी। विशाल काया दुबक कर पीछे हटने लगी। देखते ही देखते दूसरी ओर पेड़ों की आड़ में नजर आई।

अँधेरे से निकलकर उसने दहाड़ते हुए शिकार पर झपट्‌टा मारा था, लेकिन किसी अज्ञात भय ने उसे रोक दिया था। पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था।
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# खून, आस्था, कुरबानी #

भैंसाओझन (भैंसे के शरीर में रह रही ओझन की आत्मा) ने उसके भीतर हमें पहचान लिया था। उसने हमें उसकी त्वचा के भीतर छिपा हुआ देख लिया था। उसने हमारी वह गंध सूँघ ली थी जो उसके इर्द-गिर्द हवा में हमेशा लिपटी होती थी। उसकी आत्मा ने हमसे अपनी जुबान में बात की थी। भैंसाओझन की आवाज परतदार और कुछ ऐसी थी, जैसे कोई भारी धातु हवा को चीरती हो। उस आवाज के कँपन से धरती हिल गई थी। वैसे, भाषा केवल इंसानों के लिए होती है। वरना, बात करने के तो न जाने कितने और तरीके हैं, जो जानकारी की कमी या अजीब अभिव्यक्ति से भी कभी बाधित नहीं होते। जो जुबान से बाहर आते ही ठीक तरीके से समझ लिए जाते हैं।

“क्या आपको हमारी आवाज सुनाई देती है?”

हमने भैंसाओझन से पूछा। उसकी आत्मा ने हमें जवाब दिया। बाहर हवा में सीटी बजने जैसी आवाज में वह सुनाई दिया।

…. “मैं तुम्हारी सभी आवाजें सुन रही हूँ। एक होकर बोलो।”

भैंसाओझन ने उसे और हमें, दोनों को संबोधित किया था। जब पहली बार उसने हमारे जरिए भैंसाओझन को सुना, तो उसे जोर का धक्का लगा था। हमने उसे लगे इस झटके को महसूस किया था। उसे बहुत गहराई तक उसकी आवाज सुनाई दी थी। इससे उसकी आँखें फटी रह गईं थीं। उस वक्त एक छोटे से सुनहरे पल के लिए ओझन (झाड़-फूँक करने वाली महिला), अंबा और हम, तीनों एक हो गए थे।

…….“हम थके हुए और भूखे हैं। ठंड से त्रस्त हैं। हम इस तरह जंगल में रात भर और रहे तो ज़िंदा नहीं बचेंगे।”

….“शायद अब तुम्हें और ऐसे नहीं रहना होगा। तुम मेरा ही इंतजार कर रहे थे। मैं भी तुम्हारे इंतजार में थी। ताकि मैं इस खोल को छोड़कर आखिर हमेशा के लिए आजाद हो जाऊँ।”

भैंसाओझन ने अपनी बात कह दी। हमें उसका मतलब समझ आ गया। यह बलिदान था। भैंसाओझन हम सबकी जान बचाने के लिए अपनी कुरबानी देने की पेशकश कर रही थी।

……“जंगल में तुम्हारे कानून नहीं चलते। जिंदा रहने के लिए तुम्हें मेरा आदेश मानना होगा। जो मैं कहती हूँ, वह करो। मैं तम्हें अपने इस शरीर का आसरा देती हूँ। मेरा कहा मानो। मैं तुम्हें इजाजत देती हूँ कि तुम मेरे इस शरीर के खून और माँस को अपना आहार बनाओ।”

…..“हम आपको मारना नहीं चाहते। आपने हमेशा बुद्धि और साहस के साथ जीवन जिया है।”

……“जब तुम बच्चे की तरह मेरे भीतर रहोगे तो मैं फिर माँ बन जाऊँगी। मैं जन्म के तरल पदार्थ से निर्मल और सूखी हूँ। वैसे, इस वक्त अंधकार के बीच घिरी हुई हूँ। मगर जितनी देर में इस अँधेरे में रहूँगी, उतना ही मुझे इस अँधियारे से प्यार होता जाएगा। इस अँधेरी खोह से बाहर लोग मुझे पुकारते हैं। मुझे अब ऐसे एकाकी रहने की कोई इच्छा नहीं है।”

भैंसाओझन ने अपनी इच्छा बता दी। उसे हमने अंबा के सामने जाहिर कर दिया। मगर हम उसकी हिचकिचाहट को महसूस कर रहे थे। इसलिए हमने उसे बार-बार उकसाया।

……“हम हथियार देकर तुम्हारी मदद करेंगे। तुम्हारे हाथ में हथियार दे देंगे। तुम्हें विवेक शून्य कर देंगे।”

हमने उस पर दबाव बनाया। लेकिन अंबा टस से मस न हुई, तो हमने उसे फिर उकसाया।

……“सही, गलत कुछ नहीं होता। बात केवल इतनी है कि तुम क्या कर सकती और क्या नहीं। चलो, हम तुम्हारे लिए बाकी सब दरवाजे बंद कर देते हैं।”

हम उसे तब तक समझाते रहे, जब तक उसने हाथ में हथियार नहीं उठा लिया। वैसे, हमारे लिए भी यह सबक ही था, “खून और आस्था को कुरबानी की जरूरत होती है।”

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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

29- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मृतकों की आत्माएँ उनके आस-पास मँडराती रहती हैं
28 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह तब तक दौड़ती रही, जब तक उसका सिर…
27- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : “तू…. ! तू बाहर कैसे आई चुड़ैल-” उसने इतना कहा और…
26 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : कोई उन्माद बिना बुलाए, बिना इजाजत नहीं आता
25- ‘मायाबी अम्बा और शैतान’ : स्मृतियों के पुरातत्त्व का कोई क्रम नहीं होता!
24- वह पैर; काश! वह उस पैर को काटकर अलग कर पाती
23- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुना है कि तू मौत से भी नहीं डरती डायन?
22- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : अच्छा हो, अगर ये मरी न हो!
21- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वह घंटों से टखने तक बर्फीले पानी में खड़ी थी, निर्वस्त्र!
20- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : उसे अब यातना दी जाएगी और हमें उसकी तकलीफ महसूस होगी

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