ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
अंबा थकावट से बेसुध थी। उसकी आँखों में दर्द हो रहा था। वह बुखार से तप रही थी। उसे यह भी याद नहीं रहा कि रात में वह चल रही थी या किसी जानवर पर लटकी हुई थी। उसका शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था। मगर इस पसीने की गंध कुछ अजीब सी थी, थोड़ी तीखी सी। शरीर के खुले भाग में जिद्दी यादों की तरह खून पीने वाली जोंकें चिपकी हुई थीँ। उन्हें शरीर से हटाते हुए उसने जोतसोमा के खतरनाक झाड़-झंखाड़ वाले हिस्से को किसी तरह पार किया। उस दिन सुबह से ही तेज गर्मी हो रही थी। गर्मी के कारण पेड़ों की पत्तियाँ मुरझाकर मुड़ गईं थीं। यहाँ तक कि उनके जलने से भाप तक निकलने लगी थी। पूरा वातावरण डायन की कोख से भी ज्यादा गरम हो गया था।
बर्दाश्त से बाहर गरमी में अंबा को लगता था कि वह अपने जिस्म से चमड़ी और माँस को भी खींचकर हटा दे, सिर्फ हडिडयों के ढाँचे में रह जाए। हालाँकि जल्दी ही अंबा को राहत का मौका भी मिला क्योंकि दिन ढलने लगा था। रात की अगवानी करते हुए उसे भीतर ही भीतर कहीं खुशी हुई थी। कोहरा उतरने लगा था। वातावरण में ठंडक घुलने लगी थी। रात को निकलने वाले अनजान जीव-जन्तुओं की गंध भी हवा में मिलने लगी थी। जंगल के माहौल में उस समय सन्नाटा था। इसी बीच अंबा ने आकाश की ओर देखा तो ऊपर पेड़ों की घनी छाया का मंडप तना था। उससे ऊपर आसमान में मँडराते बादल बरस जाने को तैयार थे। कुछ ही देर में उनसे बूँदें झरने भी लगीँ। लेकिन जमीन तक पहुँचने से पहले उन बूँदों को विशाल वृक्षों के तनों, शाखाओं, पत्तों के चक्रव्यूह को भेदना पड़ा। देखते ही देखते पूरे वातावरण में गरमी की जगह उतनी ही नमी ने ले ली।
यह एक सूदूरवर्ती इलाका था। एक अनछुआ भूभाग। पथरीला और घने जंगलवाला। यहाँ दूर तक फैली छोटी पहाड़ियों का मंजर नहीं था। बल्कि इतिहास और संघर्षों की गाथाओं ने यहाँ के कई स्थानों, घाटियों, जलधाराओं, पेड़ों, आदि को जैसे पवित्र स्थल बना दिया था। इस जगह अंबा को अपने भीतर एक नई ऊर्जा का अनुभव हुआ। उसे अपनी सोच को एक नई दिशा भी मिलती दिखी।
अलबत्ता उसके मन में, न जाने कैसे, नकुल का ख्याल आ गया। उसका ख्याल आते ही वह नैराश्य की भावना में बह गई। उसे याद आया कि कैसे नकुल उसे छोड़कर भाग गया था। उसे उसकी किस्मत के भरोसे छोड़कर कायर की तरह भाग निकला था वह। तब अंबा को इस सच्चाई का सामना करना पड़ा था कि वह सच में कायर ही है। इसीलिए, जो उचित था, जो उसे करना चाहिए था, वह नहीं कर सका। इसी कारण, जो उसे नहीं करना चाहिए, उस अनुचित काम को करने से वह खुद को रोक न सका। लेकिन फिर अंबा ने खुद से सवाल भी किया कि क्या नकुल के इस चरित्र पर उसे कोई अचरज होना चाहिए? शायद नहीं, क्योंकि उसके साथ उसका रिश्ता तो पहले से ही दरका हुआ था। उसे हमेशा से ही पता था कि नकुल माँ के साथ हुए हादसे की वजह से बहुत दुखी है। वह माँ की पूजा करता था। इसीलिए उसके लिए उसने दिल में जो दुख-दर्द महसूस किया, वही अंबा के लिए उसकी नफरत के रूप में सामने आया।
नकुल में इस बदलाव की शुरुआत तभी हो गई थी, जब माँ के साथ दुष्कर्म हुआ था। फिर माता-पिता की आत्महत्या के बाद तो उसका व्यवहार और बदतर होता गया। वह सड़क से गुजरते पुजारियों को जूते फेंककर मार देता था। कहता था कि उनसे बदबू आती है। उसने एक बार अपनी पड़ोसन को पीटने की धमकी दे दी थी, क्योंकि वह बहुत जोर से हँसती थी। ऐसे ही एक बार किसी राहगीर को दलाल कह दिया। उसकी ऐसी हरकतों ने अंबा को हिलाकर रख दिया था। वह तो अच्छी बात ये थी कि उन दोनों का रोज बहुत ज्यादा लोगों से मेल-जोल नहीं था। फिर भी, नकुल की हरकतें अंबा के लिए उसके गुस्से से कहीं अधिक परेशान कर देने वाली थीँ। हालाँकि जब तनु बाकर ने उन दोनों को अपनाया तो नकुल की अस्थिर मनोदशा में बदलाव हुआ। उसका गुस्सा, नखरे और ऊटपटाँग हरकतें कम हो गईं। लेकिन उनकी जगह कुछ अन्य चीजों ने ले ली। अब ज्यादा कठोर और स्थायी सा भाव उस पर हावी हो गया। इस दौरान अंबा जब छुटिटयों में स्कूल से घर लौटती, तो वह नकुल को हमेशा ही चुपचाप घर के किसी कोने में बैठा हुआ पाती। वह गुमसुम सा दीवार की ओर मुँह किए रहता था। उसकी आँखों से अजीब सी शर्म झाँक रही होती थी। इस वक्त अंबा को नकुल के भीतर घर कर गए एक नए अंधकार का एहसास हुआ्र, जिसमें वह खुद हमेशा के लिए न जाने कहाँ गुम हो गई थी।
फिर भी समय के साथ-साथ उसने सीख लिया था कि जब तक हो सके, भाई के साथ अपना रिश्ता निभाती चले। तब तक कैसे भी निभाती रहे, जब तक कि उनका रिश्ता बिलकुल मशीनी या मजबूरीवाला न हो जाए। इसीलिए नकुल ने जब उसके साथ विश्वासघात किया, तो उसे तनिक भी हैरानी नहीं हुई। उसे उससे कोई उम्मीद ही नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उसे अबकी बार माफ करना उसके लिए मुश्किल हो रहा था।
इन ख़यालों में डूबते-उतराते उसकी नजर घाटी के नीचे झिलमिलाते शहर पर पड़ी। उसे देखते ही उसका चेहरा रूखा हो गया। हाव-भाव में कटुता झलक आई। हालाँकि, तभी हवा का रुख बदला। यह हवा कुछ राहत देने वाली थी। वह अपने गंतव्य तक भी पहुँचने वाली थी। इससे उसे कुछ राहत महसूस हुई ही थी कि तभी तापमान एकदम से लुढ़क गया। रात का अँधेरा हो गया और बिना किसी पूर्व संकेत के अचानक ओले बरसने लगे। थोड़ी देर में बादल फट गया। यही कोई 50 मील प्रतिघंटे की रफ्तार से हवा चलने लगी। अंबा अब फिर फँस गई थी। उसे किसी तरह इस तूफान के कमजोर होने का इंतिजार करना पड़ा। कोई और चारा ही नहीं था।
अलबत्ता, जब तूफान कमजोर पड़ा तब तक रात गहरा गई थी। होरी के पहाड़ों ने रहस्यमयी कोहरे की चादर ओढ़ ली थी। अंबा जानती थी कि रेंजीमेंट के कुछ सैनिकों ने होरी के पहाड़ों के अलग-अलग हिस्सों में कई जर्जर से दिखने वाले मकानों में ठिकाने बना रखे हैं। इन ठिकानों को जानबूझकर खस्ताहाल रखा जाता है, ताकि वे उस इलाके में रहने वाले आम गरीबों के घरों जैसे दिखाई दें। इसके साथ ही अंबा को यह एहसास भी था कि अगर वह इस बार रेजीमेंट के सैनिकों के हाथ आ गई, तो उस पर कोई रहम नहीं होगा।
पश्चिम की मुख्य सड़क से दक्षिण की ओर बढ़ने पर एक बिंदु से आगे सड़कें और संकरी हो गईं। उनके किनारे बने घरों का आकार भी छोटा ही था। घरों की छतें ज्यादातर जस्ते की चादरों की थीं। उन पर ईंटें रखकर उन्हें दबाया गया था। दीवारों पर चित्रकारी की गई थी। जस्ते की चादरें दूर से किसी पोखर की तरह चमकती थीं। वहाँ गलियों, कोनों में टूटे हुए घरेलू बर्तन और आदिवासी प्रतीक चिन्ह रखे थे। यह इंतिजाम भटकती परेशान आत्माओं के मद्देनजर किया था। खाइयों के बीच नहरें और झाड़ियाँ थीं। दुश्मन के छिपने के लिए ये आदर्श जगहें थीं। ऐसी कई जगहें पूरी तरह रेजीमेंट के कब्जे में थीं।
मूसलधार बारिश और कड़ाके की सर्दी के कारण ज्यादातर लोग घरों में दुबके थे। सड़कें, गलियाँ खाली थीं। कुछ बहुत जरूरी काम-धंधों को छोड़कर, बाकी सब ठहरा हुआ था। कँपकँपाने वाली सर्दी से बचने के लिए कुछ थके-हारे लोग समूहों में तंबुओं के नीचे इकट्ठे थे। सड़कें कीचड़ से भरी हुई थीं। ऐसे में, अंबा जब वहाँ से गुजरी तो किसी का रत्तीभर भी उस पर ध्यान नहीं गया। घाटी से तीन मील नीचे उतरकर वह भूलभुलैया भरे रास्तों से होते हुए रात के वक्त होरी में प्रवेश कर गई। उस बदसूरत, उजाड़ बस्ती में उसने कदम रख दिया था।
तभी अचानक किसी पेड़ की शाख के चटकने की आवाज से वह चौंक गई।
#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
64 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह रो रहा था क्योंकि उसे पता था कि वह पाप कर रहा है!
63 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : पछतावा…, हमारे बच्चे में इसका अंश भी नहीं होना चाहिए
62 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह बहुत ताकतवर है… क्या ताकतवर है?… पछतावा!
61 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : रैड-हाउंड्स खून के प्यासे दरिंदे हैं!
60 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अब जो भी होगा, बहुत भयावना होगा
59 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह समझ गई थी कि हमें नकार देने की कोशिश बेकार है!
58 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अपने भीतर की डायन को हाथ से फिसलने मत देना!
57 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसे अब जिंदा बच निकलने की संभावना दिखने लगी थी!
56 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : समय खुशी मनाने का नहीं, सच का सामना करने का था
55 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : पलक झपकते ही कई संगीनें पटाला की छाती के पा