ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
इरावती नदी अनंत काल से होरी पर्वतों से लगकर बह रही है, अनवरत। इस नदी में तलहटी की रेत बहुत पहले मर चुके लोगों की अस्थियों से सफेद हो गई है। लेकिन इससे नदी के कालातीत प्रवाह पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वह अपनी गति से प्रवाहित है। हजारों साल पुरानी चट्टानों से घिरी अंतहीन धारा है यह नदी। इसके किनारे की चट्टानें हवा और बारिश की मार झेलते-झेलते ऐसी हो गई हैं, जैसे उन पर किसी ने नक्काशी कर दी हो। इन चट्टानों के बीच बनी दरारों में न जाने कहाँ से, कौन से बीज आकर गिरे और वहीं फँसकर अंकुरित हो गए हैं। मगर उन सबको अनदेखा करते हुए यह नदी पर्वतों से उतरकर उन सूने गाँवों से गुजरती है, जो अब सिर्फ टूट चुके सपनों से आबाद हैं। यहाँ से गुजरते हुए वह उन वीरान परिसरों को देखती जाती है, जहाँ कभी चहल-पहल हुआ करती थी। उन खेतों पर निगाह डालती है, जिनकी मिट्टी कभी खून से लाल हुई थी। आने वाले कल में इस नदी का अविरल प्रवाह ऐसी तमाम निशानियों को भी धो डालेगा। आहिस्ता-आहिस्ता हवा भी साफ कर देगा। ऐसे कि मानो कभी कुछ हुआ ही न हो। आखिर इस नदी ने युगों-युगों से यही तो किया है। अब फिर वह उस त्रासदी के अवशेषों को रसातल में ले जाकर डुबो देगी। सारी निशानियाँ हमेशा के लिए खो जाएँगी।
नाथन रे जानता है कि वह पागल नहीं है। उसने जो कुछ देखा, वह उसे बता नहीं पा रहा था। वह सब बताने के लिए उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिल रहे थे। लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल नहीं था कि वह भी भयभीत ग्रामीणों की तरह किसी मतिभ्रम का शिकार हो गया है। सामूहिक सम्मोहन में बँध गया है। उसने किसी नशे या बेहोशी की हालत में वह सब नहीं देखा था। वह वाकिआ उसके लिए उतना ही सच्चा था, जैसे मुँह में खून का स्वाद। वह सब सच में हुआ था। वह अब भी है, शांत और खतरनाक। उस अलौकिक अस्तित्त्व की उपस्थिति हर कहीं थी। हवा में, जमीन के नीचे, पत्तियों में, पानी में, फ़ूलों में और बीजों में, सब जगह। नाथन इस वक्त अनुभूतियों के इस नए संसार और अपनी दुनिया के बीच की खाई पाटने के संघर्ष में जुटा था।
वास्तव में उस रात गाँव में जो हुआ, उसे कोई कभी मान नहीं सकता। घटना ही ऐसी थी। हबीशी ग्रामीण तो बेहद ही अंधविश्वासी थे। उन्होंने जाँच अधिकारियों के सामने कुछ भी बोलने-बताने से साफ मना कर दिया। कुछ अन्य लोगों ने जरूर हिम्मत कर के पूरा घटनाक्रम बताया, लेकिन वे उसे प्रमाणित नहीं कर सके। वे ऐसा कर ही नहीं सकते थे। इसीलिए उनकी बातों को महज कोरी बकवास मान लिया गया। सरकारी जाँच अधिकारी अलबत्ता, इस बात से जरूर अचंभित थे कि सब के सब ग्रामीण ‘स्व-सम्मोहन’ जैसी स्थिति में पहुँचे कैसे! बाद में अचरज का निदान करते हुए उन्हीं में से किसी ने सुझाया कि आदिवासी अंधविश्वासी हैं। वे भूत-प्रेत को मानते हैं, तो संभव है कि उन्होंने वैसा कुछ देख-सुन लिया हो। उससे भयभीत होकर उत्तेजना में वे सब मतिभ्रम के शिकार हो गए हों, ऊटपटाँग बातें करने लगे हों।
घटनास्थल पर, जहाँ कर्नल मैडबुल को आख़िरी बार देखा गया, वहाँ कुछ विशिष्ट निशानियाँ अब भी थीं। मगर उनके बारे मे कोई कुछ बता नहीं सका।
“अजीब है, बड़ी अजीब बात है”, आगे इस मामले की सुनवाई करने वाला न्यायाधीश हैरान-परेशान होकर अपने आप में ऐसा कुछ बुदबुदाया और फिर उसने मामला वहीं खत्म कर दिया।
सरकार ने कर्नल रोजी मैडबुल के अवैध कृत्यों की जाँच के लिए नए मजिस्ट्रेट के नेतृत्त्व में राज्य जेल समिति भी बनाई। रैड-हाउंड्स को भंग कर दिया गया और इस गिरोह के सदस्यों को स्थाई रूप से बैकाल जेल की उन्हीं सलाखों के पीछे भेज दिया गया, जहाँ उन्हें होना चाहिए था। बैकाल जेल में नए जेलर की नियुक्ति हो गई। हालाँकि वह ये देखकर अचरज में था कि कैदी जेल के भीतर पहले से कहीं ज्यादा खुश दिखाई दे रहे हैं। वे ‘बाहरी खतरे’ से खुद को जेल के भीतर अधिक सुरक्षित समझ रहे थे।
कर्नल रोजी मैडबुल के कृत्यों को “आपराधिक कलंक” माना गया। सरकार ने यह भी माना कि ‘अपराधी को न्याय के कठघरे में लाने के लिए वह पूरी ताकत लगा देगी।’ इसीलिए बाद से लापता मैडबुल की खोज में कई खोजी दल भेजे गए, ताकि उसे पकड़कर उस पर मुकदमा चलाया जा सके। लेकिन हर तरह की कोशिशों के बाद भी मैडबुल का कहीं कुछ पता नहीं चला कि वह जिंदा है या मर गया। इस कारण कानूनी प्रक्रिया जटिलताओं और कठिनाइयों में उलझ गई।
वैसे, एक हद तक यह पूरा घटनाक्रम सरकार के लिए फायदेमंद ही रहा क्योंकि ज्यादातर हबीशी ग्रामीण अच्छा-खासा मुआवजा लेकर अपनी जमीनें छोड़ने को राजी हो गए। वे मैदानों में जाकर बसने को तैयार हो गए। हालाँकि जैसे ही मीडिया में इसकी खबर फैली, सरकार को आलोचना का सामना भी करना पड़ा। उस पर ग्रामीणों के शोषण के आरोप लगे। संवाददाताओं ने कहा, “ग्रामीणों के साथ सरकार का बरताव ऐसा था, मानो वे प्रागैतिहासिक काल से निकलकर सीधे आधुनिक सभ्यता में आ गए हों। इसीलिए उनसे किसी ने उनकी राय जानने की कोशिश तक नहीं की। उनसे किसी ने पूछा तक नहीं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपनी जमीनें खाली करना चाहते भी हैं या नहीं। वे इस देश का हिस्सा बनना चाहते हैं या नहीं।”
वैसे, देखा जाए तो भोले-भाले ग्रामीणों से उनके भय का फायदा उठाकर उनकी जमीनें छीन लेना भी अपराध ही था। मुफ्त में उन्हें कहीं दूसरी जगह जमीन के टुकड़े देकर उनसे यह उम्मीद करना भी दोषपूर्ण था कि भविष्य में वे शांति बनाए रखेंगे। अलबत्ता, फिलहाल की सच्चाई यही थी कि उन ग्रामीणों के दिमागों में उस रात के आतंक की यादें ताजा थीं। इसके असर में वे निकट भविष्य में कुछ समय तो शांत ही रहने वाले थे।
***
रात का खाना खाने के बाद तारा ने अपनी छोटी सी रसोई में बरतन धोए। उन्हें अच्छी तरह चमकाया। सब्जी काटने के चाकू वगैरा भी अच्छे से साफ किए। सभी चीजों को उनकी जगह पर सलीके से रखा। फिर मेज साफ की और फर्श पर भी पोंछा मारा। इस तरह, पूरा काम निपटाने के बाद वह पास ही लेटी अपनी बच्ची के पास आ गई। उसने उसे गोद में उठाकर सीने से लगाया और सिर को सहलाया। माँ का प्यारभरा स्पर्श पाकर वह बच्ची भी मुस्कुरा दी। बच्ची अभी कुछ ही दिनों की थी, लेकिन तंदुरुस्त ऐसी कि लगता था जैसे अभी सीधे अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी। घुटनों पर चलने की उसे जरूरत ही नहीं पड़ेगी। उसे देखकर तारा के मन में एक हूक से उठी। वह सोचने लगी कि कितना अच्छा हो, अगर कभी कोई संघर्ष, कोई युद्ध हो ही न! नकुल भी तो हमेशा ऐसी ही कल्पना किया करता था।
ऐसी बातें सोच-सोचकर उसका सिर चकराने लगता है। दुखों और आकांक्षाओं के बोझ से सिर भारी हो जाता है। इसी बीच कब उसकी आँख लगी, उसे पता नहीं चला। बाहर बारिश हो रही थी, जो सुबह होते-होते बंद हो गई। पेड़ों की पत्तियों और टहनियों से टपकती बूँदों के साथ जब पक्षियों का कलरव सुर में सुर मिलाने लगा, तभी तारा की आँख खुली। उसने उठते ही सबसे पहले अपनी नन्ही बच्ची को निहारा। उसे चूमा। नियमित अंतराल से चल रहीं बच्ची की छोटी-छोटी कोमल और गरम साँसों ने उसे नकुल की याद दिला दी।
हालाँकि तारा अभी बच्ची को अपलक देख ही रही है कि अचानक वह आँखें खोल देती है। आश्चर्यजनक रूप से उसकी आँखें एकदम साफ हैं। उन आँखों में एक अजीब सी चमक है। शायद यह जिज्ञासा और किसी शक्ति की चमक हो। उसके हाथ की नन्ही अँगुलियों के नाखून उसकी हथेली में गड़े हुए हैं। वह अपने आप में ही पूर्णता लिए हुए सी प्रतीत होती है। उसकी अँगुलियाँ पतली सफेद पत्तियों की तरह कभी-कभी खुलती हैं। जब वे खुलतीं तो हथेलियों पर आधी मुसकान जैसी रेखा उभर आती है। बच्ची की ऐसी चमकदार और साफ आँखों को देखकर तारा अचरज में डूब जाती है। उसकी पुतलियों पर सुनहरे धब्बे से नजर आते हैं, बिलकुल अंबा की आँखों की तरह। इस एहसास से तारा बेहद खुश हो जाती है।
फिर दिन गुजरता है। शाम के धुँधलके में घर लौटे पहाड़ी पंछियों का कलरव शुरू होता है। जबकि सूरज मौन साधक की तरह पेड़ों के झुरमुट के बीच कहीं समाधि लगाने की जगह तलाशता महसूस होता है। आसमान पर धीरे-धीरे रात के अँधियारे की चादर लंबी होती जाती है।
तारा जानती है कि इन ढलती रातों में उसके लिए उसकी पुरानी दुनिया के अंत की झलक है और हर सुबह की पहली किरण के साथ नई दुनिया के खुलने की दस्तक। अलबत्ता, कई मायनों में यह सिलसिला पुरानी से नई दुनिया के बीच का महज एक सामान्य बदलाव भी हो सकता है। अब इसकी वास्तविकता क्या है, यह तो अभी भविष्य के गर्त में ही है। यह सोचते हुए तारा की आँखें एक बार फिर नम हो जाती हैं। आँखों से आँसू लुढ़क कर उसकी बच्ची के गाल पर टपक जाते हैं।
उन्हें पोंछते हुए वह बच्ची को दुलारती है, “सो जा मेरी बच्ची…, लड़ाइयाँ करने के लिए इस दुनिया में शैतान राक्षस और डायनें अभी मौजूद हैं।”
#MayaviAmbaAurShaitan
—-
(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
—-
पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
79 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : जीवन की डोर अंबा के हाथ से छूट रही थी
78 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वहाँ रोजी मैडबुल का अब कहीं नामो-निशान नहीं था!
77 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह पटाला थी, पटाला का भूत सामने मुस्कुरा रहा था!
76 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायन को जला दो! उसकी आँखें निकाल लो!
75 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायन का अभिशाप है ये, हे भगवान हमें बचाओ!
74 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : किसी लड़ाई का फैसला एक पल में नहीं होता
73 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मैडबुल दहाड़ा- बर्बर होरी घाटी में ‘सभ्यता’ घुसपैठ कर चुकी है
72 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: नकुल मर चुका है, वह मर चुका है अंबा!
71 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: डर गुस्से की तरह नहीं होता, यह अलग-अलग चरणों में आता है!
70 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: आखिरी अंजाम तक, क्या मतलब है तुम्हारा?