‘मायावी अंबा और शैतान’ : मौत को जिंदगी से कहीं ज्यादा जगह चाहिए होती है!

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

अब तक वहाँ का माहौल ऐसा हो चुका था जैसे कुछ बड़ा होने वाला हो। मगर वे लोग जिस प्राचीन ‘हबीशी’ जनजाति से ताल्लुक रखते थे, वह हमेशा जादू-टोने जैसी प्रवृत्तियों के लिए जानी जाती थी। उन लोगों में भावनाओं का ऐसा आवेग था जो न सिर्फ खून या आपसी संबंधों से बल्कि रहस्य की दुनिया से भी उन्हें आपस में जोड़ता था। इस जुड़ाव को शब्दों में बयान करना मुश्किल था।

इधर अंबा अब देसी हथगोलों को निष्क्रिय करने के लिए नीचे की तरफ झुक चुकी थी। जानलेवा हालात के लिए पूरी तरह तैयार। उसके कंधों की मांसपेशियाँ पत्थर की तरह मजबूत दिख रही थीं। तभी उसने पहले हथगोले के तार को छुआ। इतनी मुलायमियत से, जैसे कोई पंख छू रही हो। और देखते ही देखते उसी तार को अलग कर उसने हथगोला निष्क्रिय कर दिया। इसके बाद फिर एक और तार। बेहद सतर्कता के साथ। कभी नाखून की जरा सी खरोच से। कभी एक जोर की चोट के साथ। और हथगोला निष्क्रिय। मानो आग से खेलने का एक अजीब सा समारोह शुरू हो चुका था। सभी को हैरान कर देने वाला। हालाँकि वहाँ मौजूद लोगों में से किसी ने भी इससे पहले ऐसा समारोह कभी देखा नहीं था, फिर भी किसी ने पूछा नहीं कि आख़िर वह अपने हाथों से क्यों और कैसे यह सब कर रही है? यह शायद इसलिए ऐसा था कि उनमें से किसी को जिंदा बच जाने की अभी ज्यादा उम्मीद नहीं थी। मनहूसियत उन पर हावी थी।

उधर, अंबा ने जमीन में गड्‌ढे खोद-खोदकर निष्क्रिय हथगोलों को एक-एक कर उनमें दबाना शुरू कर दिया। हर बार हथगोला दबाने के बाद वह हाथ उठाकर साथियों को इशारा कर रही थी। वह पैरों को मोड़े हुई थी। कोहनियाँ भी मुड़ी थीं। लेकिन इस स्थिति में भी कुशलता के साथ अँगुलियों को उठाकर काम पूरा होने का इशारा दे रही थी। ऐसा लगता था जैसे वह अपने आस-पास की दुनिया से दूर किसी दूसरी दुनिया में चली गई हो। एक निर्जन दुनिया, जहाँ इंसान हैं ही नहीं। पूरी तरह उनका सफाया हो गया हो। उसकी अँगुलियाँ के पोर, उसकी नाक, उसकी आँखें, सब की सब जैसे विशिष्ट किस्म की अंतर-दृष्टि से लैस थीं। एक ऐसा रहस्यमय लेकिन सहज ज्ञान, जो कभी गलत नहीं होता था। इसी वजह से हर हथगोले का वजन, उसकी बनावट, उसकी गंध अपनी कहानी ख़ुद अंबा को बता रही थी। उसका दिमाग इन तमाम संकेतों को चकित कर देने वाली फुर्ती से पकड़ रहा था। बनावट और संतुलन में तिनके भर का भी अंतर समझने के लिए उसकी इंद्रियाँ एकदम चौकस थीं। तभी उसकी भौहें सिकुड़ गईं। उसने एक ओर झुक कर बड़ी सावधानी से अपना सिर पकड़ लिया। जैसे कि अब जो हथगोले उसके सामने आने वाले थे, उनमें कोई कठोर किस्म का रसायन भरा हो।

बस तीन और बचे हैं। अब दो और। एक और…

“अब हमें यहाँ से चलना चाहिए।”

आख़िरी हथगोले को गड्‌ढे में डालकर दबा देने के बाद अंबा दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बाँधे विजेता की उठ खड़ी हो हुई। यह सब चमत्कार जैसा ही था या कुछ-कुछ पागलपन जैसा भी।

“इस जगह पर विस्फोटकों का जाल बिछा हो सकता है। क्लोरीन मिला हुआ या कई अलग-अलग यंत्र एक साथ गुँथे हो सकते हैं।”

वैसे, बमों को निष्क्रिय करना बहुत टेढ़ा काम है। कभी भी इस प्रक्रिया में कोई बम फट जाने का खतरा हमेश रहता है। ऐसे में किसी के पास भी इतना समय नहीं होता वह चरणबद्ध तरीके से चले। पहले ‘ए’, ‘बी’ या ‘सी’ तार अलग करे। फिर ऊर्जा के स्रोत को ट्रिगर से दूर करे। इसके बाद ट्रिगर को चार्ज से। वास्तव में इस प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति का कौशल, उसकी समझ ही सबसे बड़ा सहारा होता है। और इस मामले में अंबा का हुनर तो ऐसा था कि उसे किसी किताब से समझाया नहीं जा सकता। क्योंकि उसने भी यह हुनर किसी किताब से नहीं सीखा था।

तभी अंबा की आँखें स्नाइपर राइफल के टेलीस्कोप लैंस की तरह चमक उठीं। उसने तारों से लिपटे लगभग अदृश्य फोम के टुकड़े की ओर इशारा किया। वह सामान्य हथगोला था। लेकिन उसे उसके उन्नत संस्करण में तब्दील कर दिया गया था। उसे ऐसा बना दिया गया था कि पहले यह अपने लक्ष्य का भेदता। फिर भीतर जाकर फटता। उसे देख दल के सदस्य जहाँ के तहाँ ठिठक गए। यूँ जैसे वहीं जम गए हों। उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था कि वे वाकई इतने खुशकिस्मत भी हो सकते हैं। कि यह बम उनके सामने फटा नहीं और वे सब सही-सलामत बच गए।

खैर, खतरा अब टल गया था। सभी के चेहरों पर राहत साफ दिखाई दे रही थी। उन्हें जैसे दूसरी जिंदगी मिल गई थी।

तभी सोलोन को न जाने क्या सूझा। वह फोम पर लिपटे तार को छूते हुए बोल पड़ा, “भगवान हमारे साथ हैं।”

“रुको सोलोन, नहीं…… रुको… रुक जाओ……”

भड़ाSSSSSSSम……

और देखते ही देखते सोलोन का शरीर हवा में करीब 10 फीट ऊपर उछलता नजर आया। फिर मुड़ा-तुड़ा हुआ सा, अलग-अलग हिस्सों में नीचे गिरा। जोर की आवाज के साथ शरीर में घुसते हुए बम के टुकड़ों के दबाव से उसके अंग इधर-उधर छितरा कर गिरे थे। राइफल और जूते दूर जा गिरे थे। दल के बाकी सभी सदस्य पीठ के बल जमीन से लग चुके थे। रोध एक कोने में गिरा पड़ा था। सिर जमीन पर टकराने से उसका हैलमेट टूट गया था। अचरज से उसकी आँखें फटी हुई थीं। उसे भरोसा नहीं हो रहा था कि उसके सबसे अच्छे दोस्त का ये हाल हो गया है। माहौल एकदम से भारी हो गया था। हवा में बारूद की धुंध भर गई थी और वातावरण डर से भर गया था।

ऐसे मौकों पर हर किसी को छोटी-छोटी सामान्य बातों का भी ध्यान रखना चाहिए। सोलोन उस वक्त यही गलती कर बैठा था। वह उन बातों को भूल गया और भरे-पूरे इंसान से टुकड़ों में तब्दील हो गया। उसके हश्र को गोरा बर्दाश्त नहीं कर पाया। वह पलटा और तेजी से लड़खड़ाता हुआ पुल के रास्ते पर आगे बढ़ गया। आगे अँधेरे से भरा रास्ता था। लेकिन वह काँपता हुआ शायद हवा के सहारे उस रास्ते पर बढ़ा जा रहा था। धमाके की तेज आवाज से सभी लोगों के कान के पर्दे फट रहे थे। लेकिन गोरा ने बाकियों को उसी हाल में छोड़कर वहाँ से लौट जाना ही ठीक समझा था। उसकी तरह हालाँकि दल के दूसरे लोग भी डरे हुए थे। कुछ गुस्से में भी थे। वहीं, कुछ लोगों की आँखों में आँसू थे। लेकिन इसके बावजूद सभी शुक्रगुजार थे कि वे अब तक जिंदा हैं।

वहाँ बिखरा हुआ माँस और हडि्डयाँ उन लोगों को एक भीषण विडंबना की याद दिला रही थीं। बता रही थीं कि मौत को जिंदगी से कहीं ज्यादा जगह चाहिए होती है। पीछे कहीं जल रहे प्लास्टिक और रबर के कारण माँस तथा खून के जलने की गंध दब गई थी। नाक में समा रही ताजे खून की गंध ने उन लोगों के चेहरों को विद्रूप बना दिया था। फिर भी उन्होंने सोलोन के क्षत-विक्षत अंगों को किसी तरह समेटा और एक बड़े थैले में भर दिया। इसके बाद विस्फोट की धुंध जब छँटी, तब लगा कि भयानक रात इतनी अँधेरी नहीं थी। रास्ते पर धुआँ और चिंगारियाँ अब भी उठ रही थीं।

तभी अंबा ने रोध की तरफ देखा तो उसने उससे नज़रें चुरा लीं। फिर एक-दो बार उनकी आँखें मिलीं तो कोयले की गैस की तरह हल्का लेकिन तीखा गुस्सा उसकी आँखों से बाहर झड़ता हुआ दिखाई दिया। इसी बीच, एक नए रंगरूट की बाँह अंबा की बाँह से रगड़ गई। इससे उस जवान के शरीर में सिहरन सी पैदा हो गई। यह एक तरह के भय की श्रृंखला ही थी। शायद सभी में यह समाई हुई थी। इसीलिए उनमें से कोइ भी आरोप लगाने के लिए मुँह खोलने की हिम्मत नहीं कर रहे थे। लिहाजा वह शब्द, वह अपमानजनक, घिनौना कलंक घूरती निगाहों और भयानक मुस्कुराहट के साथ फुसफुसाहट की सूरत में शायद उनके मुँह से निकला था…., “डायन”। 
—— 
(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली कड़ियाँ 

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