Mayavi Amba-37

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : तुम्हारे लोग मारे जाते हैं, तो उसके जिम्मेदार तुम होगे

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

“यह तो कोरा झूठ है। धोखा है ये! अब मैं समझी – वे तुम्हारे आदमी थे, जो झूठ बोलकर हमारे गाँव में आए। और किसलिए? ताकि तुम लोगों को हमारे गाँव में घुसने का बहाना मिल जाए!”, तारा जोर से चीखी।

“तारा मुझे उनसे बात करने दो। तुम वहाँ पीछे उन औरतों के पास जाओ।” इसके बाद मुखिया ने कहा, “देखिए, साहब। यहाँ किसी ने भी सरकारी अफसरों को रोक कर नहीं रखा है। आप जिन्हें ढूँढ रहे हैं, हमने उनको लाने के लिए अपने आदमी भेजे हैं। उनको यहाँ आने में समय लग सकता है क्योंकि वे अपने नियमित निरीक्षण पर हैं। अभी किस घर में होंगे, पता नहीं। गाँव वाले उन्हें ढूँढकर लाते ही होंगे। आप खुद उनसे पूछ लीजिएगा।”

इतने में मुखिया फेमडोम के पौत्र चिल्लाते हुए वहाँ आ पहुँचे, “वे नहीं मिले। वे कहीं नहीं मिले! रेजीमेंट के सैनिक लापता हो गए हैं!”। उनकी आवाज में दहशत थी।

“तुम अपने साथ-साथ, पूरे गाँव, औरतों और बच्चों को भी परेशानी में डाल रहे हो। हम फिर कहते हैं कि गाँव में किसी तरह की तलाश के आदेश नहीं दिए गए हैं। हमारे पास गवाह हैं, जिन्होंने तुम्हारे आदमियों को देखा है उन सैनिकों को ले जाते हुए। तुम्हारे पास कोई चारा नहीं है। हमें भीतर आने दो और उनके पास ले जाओ।”

“चालबाजी! साजिश! हमारे गाँव में घुसने का बहाना!” मुखिया ने कहा, “हम माँग करते हैं कि तुम यहाँ से चले जाओ और दोबारा मत लौटना। यहाँ कोई नहीं है। जाओ यहाँ से। तुम्हारे लिए यही एक रास्ता है।”

“लगता है, तुम्हें बात समझ नहीं आई। तुम हमसे कोई माँग करने की हालत में नहीं हो। तुम्हारे पास विकल्प नहीं है। बेवकूफी मत करो। हमारे पास आदेश है। तुम अभी समर्पण करना होगा।”

“अभी तो हम बात कर ही रहे हैं न। कि नहीं?”

“अच्छा, पता तो चलो कि मैं किससे बात कर रहा हूँ। जरा अपना चेहरा तो दिखाओ।”

“नहीं। मैं तुम्हें अपना परिचय देता हूँ। मैं वह हूँ, जो तुम्हें अपने गाँव में घुसने और एक बहादुर लडा़के को ले जाने से रोक रहा है।”

“हमने उन्हें ढूँढ लिया है। खोज निकाला है। वे भंडार में छिपे हुए थे!” ऐसा कहते हुए तभी कुछ गाँव वाले दोनों निरीक्षकों को गर्दन के पीछे से पकड़कर वहाँ ले आए।

“तुम्हारे आदमी मिल गए हैं। अब वे हमारे कैदी हैं। हम इन्हें तभी छोड़ेंगे, जब तुम अपनी फौज यहाँ से पीछे ले जाओगे।”

“तुम्हारी आवाज की दमदारी बता रही है कि तुम मुखिया फेमडोम लामा हो। तुम अब मुझसे बात करो – कर्नल मैडबुल से। तो तुम समझ सकते हो कि मामला काफी गंभीर है!” कर्नल मैडबुल की आवाज लाउड स्पीकर पर गूँजी। “तुम्हें हमारे आदमियों ने चारों ओर से घेर रखा है। अगर आगे तुम्हारे लोग मारे जाते हैं, तो उनकी मौत के लिए तुम ही जिम्मेदार होगे।”

“मैडबुल, तुम्हारे आदमी सुरक्षित हैं क्योंकि वे अपनी मर्जी से आए थे। यह बात तुम हमसे बेहतर जानते हो। हमें अपनी सुरक्षा की चिंता है। हम कैसे मानें कि दोनों निरीक्षकों को सौंप देने के बाद भी तुम्हारी फौज हम पर हमला नहीं करेगी? वे हमारी सुरक्षा की गारंटी हैं। जब तक हमारी चिंता दूर नहीं होती, तब तक हम उनको तुम्हें नहीं सौंपेंगे। अगर तुम सरकारी आदेश जारी करा दो कि हमारे लोगों को सुरक्षित रहने दिया जाएगा, तो हम इन दोनों को तुम्हारे हवाले कर सकते हैं।”

“यह इंतजाम नहीं हो सकता।”

“तो फिर हमारा काम भी खत्म समझो।” दोनों बंधक निरीक्षकों के चेहरे पर भी अब आशंकाएँ दिखने लगी थीं।

“तूने अब बहुत बोल लिया बुड्‌ढे। और तुम सब, याद रखना हमने पहले ही तुम्हें चेतावनी दे दी थी।”

“तुम लोग राजद्रोह कर रहे हो।”

“तुम सबको फाँसी पर लटकाया जाएगा।”

“हमारा काम हो गया। अब हम लोग चलते हैं, शुभ रात्रि साहब।” रात हो गई थी। कर्नल रोजी मैडबुल के आदमी भी गाँव के द्वार से थोड़ा पीछे हट गए।

मगर यह अस्थायी युद्धविराम था।

माहौल में अलग सा तनाव पसर गया था। कोई नया आदेश आ गया था। कहीं कोई अलग ही खिचड़ी पक रही थी। शाम का धुँधलका घिरते ही अचानक खामोशी छा गई। असहज खामोशी। तूफान से पहले वाली शांति।

कर्नल मैडबुल के आदमी एक घंटे में वापस आए। वे गाँव की चारदीवारी के बाहर जमा हो गए। कारण जल्दी ही सामने आने वाला था।

“हम बातचीत के लिए तैयार हैं। बंधकों को छुड़ाने के एवज में गाँव वालों को सुरक्षा की गारंटी देने के लिए भी तैयार हैं।” उनकी ओर से एक मध्यस्थ ने गाँव वालों के सामने अपनी बात रखी। लेकिन इसके जवाब में उसे मिला बम धमाका। इसमें उस मध्यस्थ के चीथड़े उड़ते हुए पीछे की दीवार से टकरा गए। दूसरा मध्यस्थ भी जमीन पर चित हो गया। उसके शरीर से खून और आँतें बाहर निकल आईं।

उसके तुरंत बाद तो जैसे जंग की शुरुआत हो गई। उन्होंने गोलियों की बौछार शुरू कर दी। इससे ऐसा लगा, जैसे वे सैकड़ों की संख्या में हों। मगर असल में वे करीब 40 ही थे। झुंड की शक्ल में उन सभी ने मिलकर गाँव का द्वार धक्का मारकर खोल दिया।

भीतर भगदड़ मच गई। और वे अंदर आते ही गोलियाँ बरसाने लगे। आगे-आगे गाँव के युवा थे, जो सबसे पहले उनकी गोलियों के शिकार बने। कुछ पीछे की ओर भागे। मगर वे नदी तक पहुँचते, उससे पहले ही उनकी पीठ और सिर के पीछे वाले हिस्से में गोलियाँ दाग दी गईं।

गोलीबारी का नतीजा हमेशा भयंकर ही होता है।

कर्नल मैडबुल ने दोनों तय किए थे।

तीन..दो…एक

“फायर”

“गोली भरो, निशाना नीचे रखो।”

“लॉक”

हर तरफ भयंकर चीख-पुकार मची थी। छतों के खंभों से ईंट-गारा गिरकर चारों ओर बिखर रहा था। लगातार गोलीबारी ने इमारतें क्षतिग्रस्त कर दी थीं। उन्हें बदशक्ल कर दिया था। आखिर में छतों को सँभालकर रखने वाले लकड़ी के खंभे भी टुकड़े-टुकड़े हो गए। छतें धड़ाम से नीचे गिरने लगीं।

तीन..दो…एक

“फायर”

“गोली भरो, निशाना नीचे रखो।”

“लॉक”

तेजी से चलती गोलियाँ लोगों के शरीरों को छलनी करने लगीं। उन लोगों ने अब तक इतना बारूद दाग दिया था कि मिट्‌टी‌ तक गरम हो गई थी। उस पर पैर रखने से ऐसा लगता था, जैसे अभी उसमें धमाका हो जाएगा। वह पाँव जला रही थी। माहौल गंधक और बारूद की गंध से भर गया था। रेजीमेंट के सैनिक नशे में धुत, उन्मादी और गुस्से तथा हताशा में भरे हुए लग रहे थे। और गाँववालों में से कुछ तो पहले दौर की गोलीबारी से ही भयानक दहशत में आ गए थे।

वे वहशी सैनिक थे। वे लोगों को काट डालने, उनकी आँतें निकाल लेने, उनके चिथड़े-चिथड़े कर देने, बलात्कार और नरसंहार करने आए थे। वे आदमियों और औरतों को लगातार इसी तरह की धमकियाँ दे रहे थे। उनकी आवाजें इतना खौफ पैदा कर रही थीं कि गाँव के कई युवा तो डर के मारे रोने ही लगे। औरतें सहम गईं। वे अपने बच्चों की चिंता में चुप्पी साधे हुए थीं। बाहर शोर लगातार बढ़ता जाता था। तभी अगला आदेश हुआ :

तीन..दो…एक

“फायर”

“गोली भरो, निशाना नीचे रखो।”

“लॉक”

सैनिक पूरी रफ्तार से अंधाधुंध गोलियाँ चला रहे थे। अब किसी के भी कुछ नियंत्रण में नहीं था। एक घंटे तक यह कत्लेआम चला। किसी को नहीं पता था कि आखिर रेंजीमेंट के सैनिकों पर पथराव किसने किया। किसने एक सैनिक का चेहरा टमाटर की तरह मसल दिया। इस वक्त हर कोई सदमे में था। 
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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