ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
अंबा ने ध्यान से देखा तो नकुल को करीब 20 मीटर दूर उसकी बंदूक पर सिर झुकाकर चुपचाप बैठे हुए पाया। तभी बम का कोई टुकड़ा फिर से फटा और बाकर का दिल उसकी सफेद कमीज से बाहर झाँकने लगा। कंक्रीट की धूल का गुबार भी फिर से उठा। यह देख अंबा ने कंधे पर टँगा थैला एक तरफ फेंका और नकुल को तेजी से पीछे की तरफ खींचा। वह सुरक्षित था। अंबा का तो मुँह ही सूख गया था और इधर नकुल अब भी बहकी-बहकी बातें कर रहा था। जैसे, वह अपने होश में न हो।
“हम उसे यहाँ नहीं छोड़ सकते!”
“भाई, उसके लिए अब हम कुछ नहीं कर सकते। चलो, चलते हैं यहाँ से।”
लेकिन नकुल ने हिलने से भी इंकार कर दिया। उल्टा उसने बाकर की लाश को कसकर पकड़ लिया। तब अंबा ने पूरी ताकत से नकुल को झकझोरा, ताकि लाश पर से उसकी पकड़ ढीली पड़े। इस झटके से सच में, नकुल की पकड़ ढीली पड़ी लेकिन बाकर की लाश नीचे की तरफ लुढ़क गई। इससे उसका सिर फटकर लाल हो गया।
“मुझे लगता है, तुम सही कह रहे हो”, अंबा ने आखिर नकुल की बात मान ली और बोली, “तो चलो, जो करना है, जल्दी करते हैं। हमें समय बरबाद नहीं करना चाहिए। सुबह होने से पहले हम इस जगह से जितनी दूर निकल सकें, हमें निकलना भी है।”
इसके बाद उन दोनों ने बाकर के बिेखरे पड़े अंगों को समेटना शुरू कर दिया। उसके शरीर के चीथड़े यहाँ-वहाँ पड़े थे। कहीं पैर, कहीं सिर, कहीं हाथ। उन दोनों ने कुछ भी बेकार नहीं जाने दिया। अंबा ने एक हाथ में बाकर का पैर पकड़ा हुआ था। दूसरा हाथ एके-47 के पट्टे पर था, जो उसके कंधे पर लटकी थी। लेकिन कटे पैर का बोझ किसी इंसान के पूरे शरीर के वजन से ज्यादा महसूस हो रहा था उसे। उन दोनों ने मिलकर वहीं एक कब्र खोदी। इसके बाद अंबा ने पास ही बह रही जलधारा के ठंडे पानी से हाथ धोए। इधर, नकुल बाकर का कटा हुआ पैर, सिर आदि एक लबादे के भीतर रखने लगा।
थोड़ी रोशनी पड़ी तो उसने देखा कि तनु बाकर की आँखें पथराई हुईं हैं। मानो अचानक सामने आई मौत को देखकर उसे गहरा सदमा लगा हो। यह देख नकुल फिर थोड़ा विचलित हो गया। इससे जब वह लबादे में बाकर के अंगों को रख रहा था, तभी सिर किसी गेंद की तरह फिसलकर बाहर गिर गया। अलबत्ता, उसमें अब कुछ रह नहीं गया था। अंबा ने सिर को उठाया और फिर उसे भीतर डाल दिया। सभी अंग उस लबादे में रख दिए जाने के बाद वे दोनों उसे घसीटकर कब्र के पास ले आए। इसके बाद चंद मिनटों में उसे वहाँ दफनाकर वे ऊपर से मिट्टी डालने लगे। लेकिन ताजे खून की गंध ने कीड़े-मकोड़ों को पहले ही आमंत्रित कर दिया। वे भीतर दबाए जाने वाले मानव अंगों को खाने के लिए तैयार थे। यह देख अंबा ने कब्र को थोड़ा और गहरा किया क्योंकि वह जानती थी कि जंगल में महज किसी की मौत हो जाने से कहानी खत्म नहीं होती। इसके सिरे उसके बाद भी खुलते रहते हैँ। यहाँ भी ऐसा हो सकता था। शव को खाने वाले कीड़े दुश्मन को तनु बाकर के क्षत-विक्षत अंगों तक पहुँचा सकते थे। उसका सुराग दे सकते थे। इसीलिए अंबा ने गड्ढे को अधिक गहरा खोदकर उसमें जब सभी अंगों को अच्छे से ठिकाने लगा दिया, तभी वह आश्वस्त हुई।
अब तक रात गहरा चुकी थी। जंगल अस्वाभाविक रूप से खामोश था। अंबा ने ऊपर से नीचे तक अपनी बंदूक का जाइजा लिया और फिर अँधेरे में मानो एक-एक कदम टटोलते हुए वे दोनों आगे बढ़ने लगे। उन दोनों के चेहरों पर तनाव था क्योंकि वे अब तक रेंजीमेंट के इलाके में ही थे। उन्हें पता था कि यहाँ उनके जीवन पर कभी भी गंभीर संकट आ सकता है। इसलिए वे बड़ी सावधानी से आगे बढ़ रहे थे। अगले एक घंटे में वे इरावती नदी के किनारे एक सुनसान स्थान तक पहुँचने में कामयाब हो गए। पेड़ों के हरे पत्तों का लबादा ओढ़े हुए और चेहरों पर काली मिट्टी मले हुए दुश्मन की नजरों से बचते-बचाते वे यहाँ तक आए थे। अंबा सोच रही थी कि वे दोनों इस वक्त कितने अजीब लग रहे होंगे। नदी किनारे पहुँचकर नकुल ने बाँस की लकड़ियाँ आपस में बाँधी और एक छोटा बेड़ा तैयार कर लिया। इस तरह उसने दिखा दिया कि वह एकदम ही निकम्मा नहीं है। उसने बाँस के ही चप्पू भी बना लिए। अब उन दोनों को खुद चप्पू चलाते हुए नदी पार करनी थी।
नकुल जब नौका तैयार कर रहा था, तो अंबा पत्तियों का लबादा ओढ़े नदी के किनारे ही पहरा दे रही थी। उसकी बंदूक का मुँह सामने घने जंगल की ओर था, जहाँ से किसी भी पल खतरा सामने आ सकता था। नदी की लहरें बहुत डरावना शोर पैदा कर रही थीं। अंबा के घुटनों में दर्द अब तक बना हुआ था। इस कारण उसके हाथ अब हथियार का वजन उठा पाने से इंकार करने लगे थे। लिहाजा, उसने हथियार किनारे रखा और बाँस के बेड़े का चप्पू थाम लिया। अभी वह नदी की लहरों में आगे बढ़ने ही वाली थी कि वह बुरी तरह घबरा गई। नकुल ने अचानक तूफानी लहरों में छलाँग लगा दी। वह तेज बहाव में कहीं गायब हो गया। अंबा अभी कुछ समझ पाती कि उसे गोलियाँ चलने की आवाज सुनाई देने लगी। लिहाजा वह आनन-फानन में ही उसी बाँस के बेड़े पर पट लेट गई। नदी में नकुल के यूँ गायब हो जाने से उसका दिल बैठ गया था। गला सूखकर पत्थर हुआ जाता था। हालाँकि वह जानती थी कि नकुल अच्छा तैराक है। पक्के तौर पर वह डूबा तो नहीं ही होगा। फिर भी उसे फिक्र थी क्योंकि इरावती की लहरें तेज उछाल मार रहीं थीं। ऐसे में अच्छे से अच्छे तैराक के लिए टिकना मुश्किल हो जाता है। इसीलिए अंबा को चिन्ता हो रही थी।
#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
68 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’: मैं उसे ऐसे छोड़कर नहीं जा सकता, वह मुझसे प्यार करता था!
67 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उस वासना को तुम प्यार कहते हो? मुझे भी जानवर बना दिया तुमने!
66 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उस घिनौने रहस्य से परदा हटते ही उसकी आँखें फटी रह गईं
65 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : नकुल में बदलाव तब से आया, जब माँ के साथ दुष्कर्म हुआ
64 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह रो रहा था क्योंकि उसे पता था कि वह पाप कर रहा है!
63 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : पछतावा…, हमारे बच्चे में इसका अंश भी नहीं होना चाहिए
62 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह बहुत ताकतवर है… क्या ताकतवर है?… पछतावा!
61 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : रैड-हाउंड्स खून के प्यासे दरिंदे हैं!
60 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अब जो भी होगा, बहुत भयावना होगा
59 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह समझ गई थी कि हमें नकार देने की कोशिश बेकार है!