Mayavi Amba-58

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अपने भीतर की डायन को हाथ से फिसलने मत देना!

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

“मैं बताता हूँ तुझे। तू अपनी बंदूक नीचे रख दे। मैं भी अपने आदमियों से कहता हूँ कि वे अपनी बंदूकों की मैगजीनें खाली कर दें। इसके बाद हम बातचीत कर सकते हैं।”

200 गज।

थोड़ा और पास।

थोड़ा और।

“मैंने जैसा कहा, मैं बंदूक नीचे रख रहा हूँ।”

आ, आ जा हरामी, साले।

उसने सावधानी से निशाना साध रखा था। हालाँकि वह खुद अभी इसे लेकर बहुत आश्वस्त नहीं थी कि बारूद से इतनी अधिक भरी हुई बंदूक जब चलेगी, तो नतीजा क्या होगा। फिर भी उसने आगे बढ़ रहे शख्स की कमीज के खुले कॉलर के ‘वी’ आकार को निशाना बनाकर ट्रिगर दबा दिया। बंदूक की तीन फीट लंबी नाल से 800 फीट प्रति सेकंड की रफ्तार से गरजते हुए बारूद के गोले निकले और जोर के धमाके के साथ फैल गए। पूरे वातावरण में बारूद के घने काले बादलों का गुबार चढ़ गया। जबकि इस धमाके से बंदूक में इतनी जोर का झटका लगा, कि अंबा का कंधा खिसकते-खिसकते बचा।

लेकिन वह तो मणिमल नहीं था। अंबा को ऐसा लगा था कि शायद मथेरा ने आखिरी वक्त में मणिमल को आगे भेजा था, मगर नहीं। हालाँकि निशाना सीधे उस सामने वाले आदमी के माथे पर लगा था। अंबा की बंदूक से छोटे बारूद के गोले छूटते ही बिखर गए थे। उनमें से कई उस आदमी के माथे से टकराए थे। इससे वह ऐसा दिखने लगा जैसे उसके माथे पर किसी ने खून की आड़ी-तिरछी लाल लकीरें उकेर दी हों। उसके सीने को तो उसने निशाना ही बनाया था, जहाँ से खून की मोटी धार बह निकली थी। घाटी में पीछे की तरफ गिरते उस शख्स के चेहरे पर सदमे के भाव साफ दिखे थे। अंत में अंबा को उसके जूते के सोल भी दिखाई दिए। वह शायद मथेरा ही था। इसके बाद वह घाटी की ढालदार चट्‌टानों पर नीचे लुढ़ककर कहीं लापता हो गया। इधर अंबा ने गीले कपड़े को झटका और बंदूक की बट और कंधे के बीच रख लिया। इसके बाद सिर घुमाए बिना वह बंदूक में बारूद भरकर अगले हमले के लिए तैयार हो गई। उसने फिर निशाना साध लिया। सामने बिट्‌टा नाम का सैनिक अपने आका के मारे जाने के बाद बदहवास सा भाग रहा था। वह जल्दी से दूर निकल जाने की फिराक में था। लेकिन तभी एक और गर्जना हुई और पहले की तरह बारूद के गोले घाटी में बिखर गए।

क्षमता से ज्यादा भरी वह 20 गेज की बंदूक ऐसे गरजी, जैसे कोई बम फटा हो। उस धमाके के बाद धातु के उड़ते टुकड़े बिट्‌टा के शरीर के पीछे वाले हिस्सों में जगह-जगह धँस गए। वह दर्द और भय से कराह उठा। उन छोटे-छोटे धातु के टुकड़ों ने पेड़ों के तने चीर दिए। आस-पास लगे शाहबलूत के तमाम पेड़ों की पत्तियों को काट-छाँट दिया। पत्थरों से टकराकर उन्हें चूर-चूर कर दिया। बिट्‌टा के सिर की चमड़ी को तो करीब-करीब छील ही दिया। तब वह हारकर अंतिम मुकाबले के लिए पलट पड़ा। लेकिन उससे पहले ही अंबा ने दूसरी बार बंदूक दाग दी। इस बार निशाना पहले से ज्यादा करीब से साधा गया था। इससे बिट्‌टा की दोनों बगलें बुरी तरह छिल गईं। प्रहार इतना घातक था कि वह वहीं बेसुध होकर गिर गया और फिर जब उसे होश आया तो उसने खुद को हिलने-डुलने में भी असमर्थ पाया। उसके हाथ-पैर मजबूती से बाँध दिए गए थे। यह देख पहले तो उसने गुस्से में अंबा के ऊपर थूक दिया। उसे कोसने लगा। इससे गुस्साई अंबा ने उसके चेहरे पर तब तक तमाचे बरसाए, जब तक कि उसका चेहरा लहू-लुहान नहीं हो गया।

बिट्‌टा अब बुरी तरह भयभीत था। उसकी आँखें डर के मारे फट सी रहीं थीँ। अंबा को उसके चेहरे पर भय की ऐसी झलक देखकर बड़ी राहत सी मिली। उसकी तरफ पीठ करके पहले तो वह मुस्कुराई और फिर ठहाके लगाकर हँसने लगी। वह तब तक हँसती रही, जब तक उसकी आँखों से आँसू निकलकर गालों पर लुढ़क नहीं आए। इसके बाद वह पलटी और वहीं थोड़ी सी आग जलाकर हाथ सेंकने लगी। बिट्‌टा को उसने कुछ देर के लिए उसके हाल पर छोड़ दिया। वह छटपटाता हुआ दाँतों से काट-काटकर अपने बंधन खोलने की नाकाम कोशिश करने लगा। बीच-बीच में अंबा को गालियाँ देता। उस पर थूकता और जब-जब वह ऐसा करता, अंबा उसका कोई दाँत तोड़ देती। कभी उससे कहती कि तेरे इन दाँतों में बहुत सड़न जम गई है, चल इन्हें हटा देती हूँ। और फिर वह उसके कुछ दाँत तोड़ देती। ऐसा करते-करते बिट्‌टा के मुँह में कोई दाँत ही नहीं बचा। सिर्फ मसूढ़े रह गए और वे भी लहूलुहान। अब वह कुछ भी चबाने लायक नहीं बचा था। लेकिन अंबा को अब भी उस पर तरस नहीं आया। उसने उसे पूरी तरह असहाय कर देने का मन बना लिया था। वह बार-बार कहती जाती थी, “तुझे काटने का बड़ा शौक है न। लेकिन आज के बाद तू कभी होरी की किसी भी हबीशी औरत को काटने लायक नहीं बचेगा।”

बिट्‌टा अब तक पूरा निढाल हो चुका था। उसकी आँखें बंद हो गईं थीं। तभी अंबा ने उसकी आँखों में कोई खतरनाक दवा लगा दी और बोली, “अगर तू यहाँ से किसी तरह साँपों और कनखजूरों से बच गया, तब भी आँखें खोलकर सीधे निशाना नहीं लगा पाएगा।” बिट्‌टा बुरी तरह घबरा गया। उसकी आँखें डर के मारे चौड़ी हो गईं। उसकी चमड़ी का रंग उतर चुका था। वह पीली पड़ चुकी थी। अस्त-व्यस्त हाल में वह बुरी तरह कराह रहा था। दर्द से छटपटा रहा था। रो रहा था। उसका चेहरा पसीने से नहाया हुआ था। कंधे झूल गए थे। अँगुलियाँ पसीने से चिपचिपा रही थीं। इससे अंदाज हो रहा था कि वह जल्दी ही मुँह खोल देगा।

“यहाँ के आधे से ज्यादा हबीशी तुम लोगों से इस कदर नफरत करते हैं कि अगर वे तुझे यहाँ देख भी पाए तो तेरे को नंगा कर के तेरी चमड़ी उधेड़ डालेंगे।” ऐसा कहते हुए अंबा ने जब उसकी तरफ देखा तो वह जबरन मुस्कुराने की कोशिश कर रहा था। इस पर अंबा को थोड़ा अचरज हुआ।

“लेकिन उसके लिए बहुत देर हो चुकी है, है न!”

“क्या मतलब?”

“तू मुझसे अब सवाल कर रही है? मैं क्यों जवाब दूँ तुझे?” उसकी आवाज में कमजोरी साफ झलक रही थी।

“लेकिन अगर तू मेरे सवालों का जवाब नहीं देगा तो मैं चाकू से तेरे टुकड़े-टुकड़े कर के यहाँ के गिद्धों, कौवों को खिला दूँगी। तू ऐसे ही जिंदा रहेगा और वे तेरे खून-माँस का स्वाद लेते रहेंगे।”

“नहीं, तू ऐसा नहीं करेगी। तू ऐसा नहीं कर सकती।”

इतना सुनते ही अंबा ने धारदार छुरे से उसकी एक बाँह को चीर दिया। पलक झपकते ताजा गरम खून धरती पर फैल गया। बिट्‌टा दर्द से बिलबिला उठा।

“डायन तू मर क्यों नहीं जाती! चुड़ैल कहीं की! अच्छा, चल ठीक है। सुन, मेरी बात सुन। मुझे माफ कर दे! मैं तो बहुत मामूली सिपाही हूँ। मुझे क्या ही पता होगा भला? फिर भी जितना मैं जानता हूँ, तुझे बता दूँगा। बस, तू मुझे यहाँ ऐसे छोड़कर मत जा!”

बिट्‌टा से राज उगलवाने के लिए अंबा को उसके साथ बर्बरता करनी पड़ी थी। लेकिन उसने जो बताया, उससे उसे खास मदद नहीं मिलने वाली थी। अंबा को उससे केवल इतना पता चला था कि मैडबुल ने सभी नियमित अफसरों, जवानों को छुट्‌टी पर भेज दिया है। अब मैडबुल के आदेशों का पालन करने के लिए केवल उसकी निजी सेना ‘रेड-हाउंड्स’ उसके पास है। और वह इस वक्त ढेर सारा गोला-बारूद तथा ईंधन ट्रकों में लादकर किसी बड़े कारनामे को अंजाम देने की तैयारी में है।

अंबा की थकान गायब हो चुकी थी। हालाँकि उसकी भौंहें और सिर में अब भी काफी तेज दर्द था। इसलिए वह थोड़ी देर के लिए वहीं लेट गई और धीरे-धीरे साँस लेने लगी। इसके कुछ देर बाद उसने एक चट्‌टान के ऊपर चढ़कर देखा कि किसी भी वक्त मूसलधार बारिश हो सकती है। ऐसे में, उसने खुद से कहा कि इससे पहले कि बारिश मे घाटी के फिसलन भरे रास्तों से उतरना जानलेवा हो जाए, उसे सही-सलामत नीचे पहुँचना है। सो, वह उस सैनिक को वहीं छोड़कर वहाँ से चल पड़ी। बारूद की तेज गंध अब तक वहाँ की हवा में मौजूद थी। वह गंध नथुनों से होकर उसके दिमाग में चोट कर रही थी। उसका सिर दर्द से फटने लगा था। बीच-बीच में पत्तियों की सरसराहट कानों में ऐसी आवाजें घोल रही थी, जिन्हें समझने की उसमें हिम्मत तक नहीं थी। झाड़-झंखाड़ों के काँटों से उसके चेहरे, पीठ और पैरों पर असंख्य खरोंचों के निशान लग गए थे। बारिश के पानी से उन घावों में जलन होने लगी थी। लेकिन वह फिर भी आगे बढ़ती जाती थी।

मैडबुल के आदमी भी कहीं आस-पास अब तक उसे तलाश रहे थे। लेकिन वह बेखौफ चलती जाती थी। इसी बीच, चलते-चलते जब उसने ऊपर आसमान की तरफ देखा तो लगा जैसे सूरज की किरणें जटिल आकृतियाँ बना रही हों। उन्हें देखकर एक बार तो उसे लगा कि क्या इन आकृतियों के माध्यम पटाला उस पर नजर रखे हुए है। हालाँकि यह उसका आभास ही था शायद। इस समय की वास्तविकता तो मात्र उसके कँधे पर रखी बंदूक थी, जो चलते वक्त लगातार झटका देकर साथ होने का एहसास कराती थी। इसके अलावा बीच-बीच में पटाला की दी हुई सीख भी उसे सचेत करती जाती थी, “अपने भीतर की डायन को हाथ से फिसलने मत देना। खुद को उसका शिकार मत बनने देना।”

#MayaviAmbaAurShaitan
—-
(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
—- 
पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

57 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसे अब जिंदा बच निकलने की संभावना दिखने लगी थी!
56 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : समय खुशी मनाने का नहीं, सच का सामना करने का था
55 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : पलक झपकते ही कई संगीनें पटाला की छाती के पार हो गईं 
54 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : जिनसे तू बचकर भागी है, वे यहाँ भी पहुँच गए है
53 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : तुम कोई भगवान नहीं हो, जो…
52 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मात्रा, ज़हर को औषधि, औषधि को ज़हर बना देती है
51 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : न जाने यह उपहार उससे क्या कीमत वसूलने वाला है!
50 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसे लगा, जैसे किसी ने उससे सब छीन लिया हो
49 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मात्रा ज्यादा हो जाए, तो दवा जहर बन जाती है
48 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : डायनें भी मरा करती हैं, पता है तुम्हें

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *