Mayavi Amba-26

‘मायावी अम्बा और शैतान’ : कोई उन्माद बिना बुलाए, बिना इजाजत नहीं आता

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

# दूषित #

हमारी यादें नहीं होतीं। शक्कर के दानों की तरह हमारी स्लेट पट्‌टी एकदम कोरी होती है। हम यादें सहेजते भी नहीं हैं। हमारे सामने से वे वैसे ही गुजर जाती हैं, जैसे सरदियों में गरमाहट भरे और गरमियों में ठंडक वाले दिन। लेकिन उसके जैसे खोल कुछ अलग तरह के होते हैं। वे टहनियों, काँटों, झरबेरी और काँटेदार पौधों की तरह यादों को सहेज कर रखते हैं।

उसने भयंकर शारीरिक प्रताड़ना झेली थी। इस प्रताड़ना ने अतीत को झकझोर कर उसके सामने ला दिया था। बिजली कौंधने के बाद जैसे आसमान में तेज गड़गड़ाहट होती है, वैसे ही वह दर्द उसके सामने आया था। उस दर्द ने उसे यूँ जकड़ लिया था, जैसे किसी जिंदा आदमी को कोई लाश पकड़ ले। अतीत की उस भयानक रात की यादें उसके सामने खुद जिंदा हो गईं थीं। पतझड़ के मौसम में तेज हवा चलते ही जैसे सूखे पत्ते सब ओर से घेर लेते हैं, उसी तरह वह पुरानी यादों में घिर गई थी। वे यादें बदसूरत थीं। तकलीफदेह थीं। फिर भी वह उनके बीच से गुजर रही थी।

हमें अंदाजा हो गया कि वह अभी यादों के भँवर में डूब-उतरा रही है। इस वक्त अजीब सी तंद्रा में है। अचेत सी है। तो यहीं हमें बाहर निकलने का मौका मिल गया। बस एक क्षण का ही तो अंतराल था। उसे बेहोशी की दवा दी गई थी। उसके असर से वह सुस्त थी। हमें रोक नहीं सकती थी। वह एक कोने में पड़ी थी। सो, अब हमारे लिए कोने से बाहर आने की बारी थी। और उसके लिए हम में डूब जाने की। उसका अपने पर नियंत्रण नहीं था। हमें वह भूल गई थी। वह किसी भी तरह से हमारा प्रतिरोध नहीं कर सकती थी। हमें पता था कि ऐसा सुनहरा मौका फिर नहीं मिलेगा। ज्यादा समय तक भी नहीं मिलेगा। लिहाजा, हमने इस मौके को भुनाने के लिए पूरा जोर लगा दिया।

जब उन आदमियों ने उसके शरीर को रौंदा, तब वह वहाँ थी ही नहीं। सिर्फ हम थे और हमें वे छू भी नहीं सकते थे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता अलबत्ता, कि उन्होंने उसके जिस्म में उतर जाने के लिए कितना जोर लगाया। और वे उसको भी नहीं छू सके इसके बावजूद।

हमने हर तरफ से चहारदीवारी खींच दी थी। उसे बाहर निकलने ही नहीं दिया। चारों ओर से उसे घेर रखा था। क्योंकि वह कोई छोटी चीज तो थी नहीं, जो उसे उसके दिमाग के ही किसी कोने में गुड़ी-मुड़ी कर के रख देते। पर हमने उस आदमी को हिला डाला था। दर्द से चीखता हुआ जब तक वह कमरे से बाहर निकला, हम उस पर हावी हो चुके थे। हम उसे खा-पी रहे थे। उसकी ऊर्जा रसदार फल की तरह हमारे हाथों में थी। उसे पूरा निचोड़ लेने के बाद भी हम भूखे थे। अपना कटा हुआ अँगूठा हाथ में पकड़े उस आदमी की तसवीर हम भूले नहीं थे। माँस और माँसपेशियों को चीरकर उसका नाखून बाहर लटक आया था। वह बुरी तरह चीख रहा था। उसका खून बह रहा था। ढेर सारा खून। लेकिन हमें और खून चाहिए था।

उसके चेहरे और शरीर पर खून के छींटे थे। उनकी वजह से वह भयानक सुंदरता से चमक रही थी। जब उसकी कलाइयों में बेड़ियाँ डाली गईं और उस पर घूँसों की बरसात की गई, तब हम सुनिश्चित कर सकते थे कि उस पर जरा भी आँच न आए। मगर उसने हमें बाहर आने ही नहीं दिया।

कोई उन्माद बिना बुलाए नहीं आता। बिना इजाजत के नहीं आता। हम उसके भीतर भूखे थे। बेतुकी सी नश्वरता से बँधे थे। हमें उस पर गुस्सा आ रहा था। वह हमारे लिए सिर्फ एक खोल थी। इसलिए उसके फैसलों के अधीन रहना हमारे लिए अपमानजनक था। जैसे हम कोई सामान हों, जिसे ढोया जाए! जैसे चाहे इस्तेमाल कर लिया जाए! इसीलिए हमने उसे उकसाया और उसे अजीब दिवास्पनों ने घेर लिया। हमने उसे तमाम दृष्टियाँ दीं। और वे कभी अकेले नहीं आतीं। सो, वे कई चीजें अपने साथ ले आईं। वह जानती थी कि वे उसके भीतर से ही आ रही हैं। और उनको खत्म करने के लिए उन्हें उसे नष्ट करना होगा। वह अपने शरीर के भीतर मृतात्माओं का पूरा संसार लेकर आई थी।

हमने खून का स्वाद चख लिया था। अब हमें बस, उसके भरोसे की जरूरत थी। खून और भरोसा। इसकी शुरुआत हो चुकी थी और अब इसे बदला नहीं जा सकता था। 
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

25- ‘मायाबी अम्बा और शैतान’ : स्मृतियों के पुरातत्त्व का कोई क्रम नहीं होता!
24- वह पैर; काश! वह उस पैर को काटकर अलग कर पाती
23- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुना है कि तू मौत से भी नहीं डरती डायन?
22- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : अच्छा हो, अगर ये मरी न हो!
21- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वह घंटों से टखने तक बर्फीले पानी में खड़ी थी, निर्वस्त्र!
20- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : उसे अब यातना दी जाएगी और हमें उसकी तकलीफ महसूस होगी
19- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : फिर उसने गला फाड़कर विलाप शुरू कर दिया!
18- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : ऐसे बागी संगठन का नेतृत्त्व करना महिलाओं के लिए सही नहीं है
17- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सरकार ने उनकी प्राकृतिक संपदा पर दिन-दहाड़े डकैती डाली थी
16- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : अहंकार से ढँकी आँखों को अक्सर सच्चाई नहीं दिखती

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