ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
……“तुम इस बच्ची के भीतर क्यों हो?”
ओझन ने हम से सवाल किया लेकिन उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि हम उसे जवाब देंगे।
…..“हम पेड़ या किसी नदी के भीतर नहीं छिपते।”
…..“हम उसकी त्वचा की दीवारों के भीतर मखमली सतह में छिपे हैं।”
……“हम ऐसे गुँथे हुए हैं कि किसी का हम पर ध्यान नहीं जाएगा।”
हमारी बात सुनकर ओझन डर के मारे काँप गई। लेकिन उसने किसी पर भी अपना डर जाहिर नहीं होने दिया। खूबसूरती से उसे छिपा लिया। फिर ऊपरी तौर पर अफसोस जताते हुए बोली :
“तुम इसे कभी बड़ा नहीं करोगी। लोकी (एक देवता) से प्रार्थना करो कि वह इस बच्ची को ले जाएँ। इसके माँस से वह संतुष्ट होंगे। तुम्हें एक और तंदुरुस्त बच्चे के जन्म का आशीर्वाद देंगे।”
“धरती पर पहले से ही बहुत सारे बच्चे हैं। ऐसे बच्चों की यहाँ कोई गुंजाइश नहीं है। ये पत्थर की तरह नीरस होगी। इसका दिमाग बंजर जमीन की तरह होगा। उसके बाल ऐसे गुँथे, उलझे होंगे कि….”
“मेरी बच्ची के बारे में ऐसी बेकार, डरावनी बातें मत करो!” माँ बीच में ही चीख पड़ी, “ये क्यों मरे? तेरा बच्चा न मरे? या तेरा? या फिर तेरा?” उसने दो-तीन लोगों की तरफ रुख कर के सवाल दागा।
“देखो उस पत्ती को। उसे न धूप मिली, न मिट्टी और न बारिश। कुछ नहीं मिला है। फिर भी एक ठूँठ पर, धूल से उग आई है वह। सड़ी लकड़ी से रिसकर आए बासे पानी के आहार पर वह जिंदा है। ऐसे ही मेरी बच्ची भी जिंदा रहेगी।”
तभी गाँव की ओझन ने एक प्रतीक चिह्न उठा लिया। मखमली काले रंग के गोल घेरे में यह एक ‘आँख’ थी, जिसे यहाँ-वहाँ ले जा सकते थे। उसने उसे उस बच्ची के माथे पर रख दिया। इससे बच्ची की एकदम नई त्वचा थोड़ी फैल गई। इसके बाद वह बोली, “ये सूर्य है। बच्ची को उन दुष्ट लोगों की बुरी नजर से बचाने के लिए, जो दुलारने के बहाने भीतर ही भीतर इसे बद्दुआ दे सकते हैं।”
इसे लेकर हम अचरज में थे। थोड़ा उत्सुक भी यह जानने के लिए कि क्या यह (नजरबट्टू सूर्य) हम पर भी काम करेगा?
फिर वह ओझन उसके हाथों को मलते हुए बोली, “पटाला की इस पर निगाह है। कुछ अच्छा नहीं होने वाला।”
“बुढ़िया, तूने उस कलंकिनी का नाम लेने की हिम्मत कैसे की! डायन को तो दरवाजे से बाहर खदेड़ने की जरूरत होती है और तूने उसे यहाँ का रास्ता दिखा दिया। तेरी इतनी हिम्मत कि तूने मेरी दुधमुँही बच्ची के सामने उस नीच का नाम लिया!”
“अगर मैं गलत हूँ तो तुम मेरे ऊपर थूक देना। कल के रोज अगर तुम तकलीफ झेलती हो तो खुद अपनी गलती की वजह से झेलोगी, समझी। मैं अब इस पर अपनी नींद और बर्बाद नहीं कर सकती।”
इसके बाद गाँव के ओझा ने जन्मोत्सव से जुड़े रिवाज पूरे करने से मना कर दिया। उसकी सहमति के बिना उसका नाम अपवित्र मान लिया गया। इससे माँ का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वह तो जैसे पागल ही हो गई। उसकी गरिमा को चोट पहुँची थी। सो, वह ओझा पर ही फट पड़ी, जो कि अब तक अड़ा हुआ था।
“कैसी औरत है, क्या तुझे अपने आप पर शर्म नहीं आती?”
“मुझे क्यों शर्म आए ओझा, बता?”
“इस चीज के लिए सड़क पर ऐसे तमाशा करते हुए?”
“ये आजाद मुल्क है।”
“हाँ पर डायन जैसियों के लिए नहीं।”
“किसने कहा ऐसा?”
“इस छोटी डायन की आँखें ही देख ले। देख, कैसी अलग सी चमक रही हैं!”
इसके बाद ओझा की अगुवाई में उन लोगों ने एक आवाज लगाई। वहाँ मौजूद दूसरे लोगों के लिए ये संकेत था कि जो कुछ भी उनके हाथ आए, उसे माँ पर फेंक मारना है। सो, एक ने नुकीला पत्थर उठा लिया और उसके चेहरे की तरफ निशाना लगाकर उछाल दिया। मगर निशाना चूक गया। पत्थर माँ की बजाय उस बच्ची के सिर पर जा लगा। पत्थर ताकत से फेंका गया था। लेकिन उससे उस बच्ची का सिर नहीं फटा। बस, नाज़ुक त्वचा पर घाव हो गया। पत्थर की नोंक ने उसकी त्वचा को फाड़ दिया था। इससे दर्द तो जरूर तेज हुआ होगा, लेकिन वह रोई नहीं।
अपनी प्रतिक्रिया में उस बच्ची ने चौंककर अपनी आँखें खोलीं और बाहर की दुनिया को देखा। उसके साथ हमने भी बाहर देखा। पत्थर लेकर अगले हमले को तैयार लोग एकदम से ठिठक गए। उन्होंने चुपचाप पत्थर गिरा दिए और डर कर तेजी से पीछे हट गए। बच्ची की चिकनी नाज़ुक त्वचा पर हुए घाव से खून बह निकला था। इस नफरत भरे अनुभव का एहसास सीधा उसके दिल में उतर गया था। हम तक पहुँच चुका था।
इसी वक्त, उस बच्ची ने भीतर भी आँखें खोली थीं। वहाँ उसने हमें देखा। लेकिन उसे नहीं पता था कि हम कौन हैं। और हमारे साथ कैसे पेश आना है। हमें भी कुछ समझ नहीं आया था। हम एक-दूसरे के लिए अभी अजनबी थे। उसके साथ सहज होने में हमें थोड़ा वक्त लगने वाला था।
उसकी माँ ने अब उसे नाम दे दिया था, ‘अंबा’।
जैसे-जैसे समय बीता, उसने हमसे बातें करना बंद कर दिया। वह हमें अब गंभीरता से भी नहीं लेती थी। जल्द ही उसने हमारी उपेक्षा करनी शुरू कर दी। वह ऐसा समझने लगी, जैसे कि हम कई सिर वाले कोई दिमागी परजीवी हों। कोई गंदगी हों।
जबकि हम तो उसके भीतर दबी हुई ताकतें थीं। लेकिन वह अभी हमें लेकर उलझन में थी। शायद इसलिए कि उसे अब तक अपने मूल का ही पता नहीं था। उसे अपनी ताकतों का भी एहसास नहीं था। जबकि वास्तव में वही उसकी असली विरासत थीं।
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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